अष्टका कृत्य (श्राद्ध)

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अष्टका कृत्य (श्राद्ध)
श्राद्ध कर्म में पूजा करते ब्राह्मण
श्राद्ध कर्म में पूजा करते ब्राह्मण
अनुयायी सभी हिन्दू धर्मावलम्बी
उद्देश्य श्राद्ध पूर्वजों के प्रति सच्ची श्रद्धा का प्रतीक हैं। पितरों के निमित्त विधिपूर्वक जो कर्म श्रद्धा से किया जाता है, उसी को 'श्राद्ध' कहते हैं।।
प्रारम्भ वैदिक-पौराणिक
तिथि भाद्रपद शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा से सर्वपितृ अमावस्या अर्थात् आश्विन कृष्ण पक्ष अमावस्या तक
अनुष्ठान श्राद्ध-कर्म में पके हुए चावल, दूध और तिल को मिश्रित करके जो 'पिण्ड' बनाते हैं। पिण्ड का अर्थ है शरीर। यह एक पारंपरिक विश्वास है, कि हर पीढ़ी के भीतर मातृकुल तथा पितृकुल दोनों में पहले की पीढ़ियों के समन्वित 'गुणसूत्र' उपस्थित होते हैं। यह प्रतीकात्मक अनुष्ठान जिन जिन लोगों के गुणसूत्र (जीन्स) श्राद्ध करने वाले की अपनी देह में हैं, उनकी तृप्ति के लिए होता है।
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अन्य जानकारी ब्रह्म पुराण के अनुसार श्राद्ध की परिभाषा- 'जो कुछ उचित काल, पात्र एवं स्थान के अनुसार उचित (शास्त्रानुमोदित) विधि द्वारा पितरों को लक्ष्य करके श्रद्धापूर्वक ब्राह्मणों को दिया जाता है', श्राद्ध कहलाता है।

आश्वलायन गृह्यसूत्र[1] के मत से अष्टका के दिन (अर्थात् कृत्य) चार थे, हेमन्त एवं शिशिर (अर्थात् मार्गशीर्ष, पौष, माघ एवं फाल्गुन) की दो ऋतुओं के चार मासों के कृष्ण पक्षों की आठवीं तिथियाँ। अधिकांश में सभी गृह्यसूत्र, यथा–मानवगृह्यसुत्र[2], शांखायन गृह्यसूत्र[3], खादिरगृह्यसूत्र[4], काठक गृह्यसूत्र[5], कौषितकि गृह्यसूत्र[6] एवं पार. गृह्यसूत्र[7] कहते हैं कि केवल तीन ही अष्टका कृत्य होते हैं; मार्गशीर्ष (आग्रहायण) की पूर्णिमा के पश्चात् आठवीं तिथि (इसे आग्रहायणी कहा जाता था); अर्थात् मार्गशीर्ष, पौष (तैष) एवं माघ के कृष्ण पक्षों में। गोभिलगृह्यसूत्र[8] ने लिखा है कि कौत्स के मत से अष्टकाएँ चार हैं और सभी में मास दिया जाता है, किन्तु गौतम, औदगाहमानि एवं वार्कखण्डि ने केवल तीन की व्यवस्था दी है। बौधायन गृह्यसूत्र[9] के मत से तैष, माघ एवं फाल्गुन में तीन अष्टकाहोम किये जाते हैं। आश्वलायन गृह्यसूत्र[10] ने एक विकल्प दिया है कि अष्टका कृत्य केवल अष्टमी (तीन या चार नहीं) को भी सम्पादित किये जा सकते हैं। बौधायन गृह्यसूत्र[11] ने व्यवस्था दी है कि यह कृत्य माघ मास के कृष्ण पक्ष की तीन तिथियों (7वीं, 8वीं एवं 9वीं) को या केवल एक दिन (माघ कृष्णपक्ष की अष्टमी) को भी सम्पादित हो सकता है। हिरण्यकेशी गृह्यसूत्र[12] ने केवल एक अष्टका कृत्य की, अर्थात् माघ के कृष्ण पक्ष में एकाष्टका की व्यवस्था दी है। भारद्वाज. गृह्यसूत्र[13] ने भी एकाष्टका का उल्लेख किया है, किन्तु यह जोड़ दिया है कि माघ कृष्ण पक्ष की अष्टमी को, जबकि चन्द्र ज्येष्ठा में रहता है, एकाष्टका कहा जाता है। हिरण्यकेशी गृह्यसूत्र[14] के मत से अष्टका तीन दिनों तक, अर्थात् 8वीं, 9वीं (जिस दिन पितरों के लिए गाय की बलि होती थी) एवं 10वीं (जिसे अन्वष्टका कहा जाता था) तक चलती है। वैखानसस्मार्तसूत्र[15] का कथन है कि अष्टका का सम्पादन माघ या भाद्रपद (आश्विन) के कृष्ण पक्ष की 7वीं, 8वीं या 9वीं तिथियों में होता है।

श्राद्ध संस्कार करता एक श्रद्धालु

अष्टका विधि

अष्टका की विधि तीन भागों में है; होम, भोजन के लिए ब्राह्मणों को आमंत्रित करना (भोजनोपरान्त उन्हें देखने तक) एवं अन्वष्टक्य या अन्वष्टका नामक कृत्य। यदि अष्टका कई मासों में सम्पादित होने वाली तीन या चार हों, तो ये सभी विधियाँ प्रत्येक अष्टका में की जाती हैं। जब अष्टका कृत्य केवल एक मास में, अर्थात् केवल माघ की पूर्णिमा के पश्चात् हो तो उपर्युक्त कृत्य कृष्णपक्ष की सप्तमी, अष्टमी एवं नवमी को किये जाते हैं। यदि यह एक दिन ही सम्पादित हों तो तीनों विधियाँ उसी दिन एक के उपरान्त एक अवश्य की जानी चाहिए।

गृह्यसूत्रों में विशद विधि

अष्टकाओं के विषय में आश्वलायन, कौशिक, गोभिल, हिरण्यकेशी एवं बौधायन के गृह्यसूत्रों में विशद विधि दी हुई है। आपस्तम्बगृह्यसूत्र[16] में उसका संक्षिप्त रूप है जिसे हम उदाहरणार्थ प्रस्तुत कर रहे हैं। एकाष्टका की परिभाषा देने के उपरान्त आपस्तम्बगृह्यसूत्र[17] ने लिखा है–'कर्ता को एक दिन पूर्व (अमान्त कृष्ण पक्ष की सप्तमी को) सायंकाल आरम्भिक कृत्य करने चाहिए। वह चार प्यालों में (चावल की राशि में से) चावल लेकर उससे रोटी पकाता है, कुछ लोगों के मत से (पुरोडास की भाँति) आठ कपालों वाली रोटी बनायी जाती है। अमावस्या एवं पूर्णिमा के यज्ञों की भाँति आज्यभाग नामक कृत्य तक सभी कृत्य करके वह दोनों हाथों से रोटी या अपूप की आहुतियाँ देता है और आपस्तम्ब मंत्रपाठ का एक मंत्र[18] पढ़ता है। अपूप का शेष भाग आठ भागों में विभाजित कर दिया जाता है और ब्राह्मणों को दिया जाता है। दूसरे दिन वह (कर्ता) 'मैं तुम्हें यज्ञ में बलि देने के लिए, जो कि पितरों को अच्छा लगता है, बनाता हूँ' कथन के साथ गाय को दर्भ स्पर्श कराकर बलि के लिए तैयार करता है। मौन रूप से (बिना 'स्वाहा' कहे) घृत की पाँच आहुतियाँ देकर पशु की वपा (मांस) को पकाकर और उसे नीचे फैलाकर तथा उस पर घृत छिड़ककर वह पलाश की पत्ती से (डंठल के मध्य या अन्त भाग से पकड़कर) उसकी आगे की मंत्र[19] के साथ में आहुति देता है। इसके उपरान्त वह भात के साथ मांस आगे के मंत्रों[20] के साथ आहुति रूप में देता है। इसके पश्चात् वह दूध में पके हुए आटे को आगे के मंत्र[21] के साथ आहुति रूप में देता है। तब आगे के मंत्रों[22] के साथ घृत की आहुतियाँ देता है। स्विष्टकृत के कृत्यों से लेकर पिण्ड देने तक के कृत्य मासिक श्राद्ध के समान ही होते हैं।[23] कुछ आचार्यों का मत है कि अष्टका से एक दिन उपरान्त (अर्थात् कृष्ण पक्ष की नवमी को) ही पिण्ड दिये जाते हैं। कर्ता अपूप के समान ही दोनों हाथों से दही की आहुति देता है। दूसरे दिन गाय के मांस का उतना अंश, जितने की आवश्यकता हो, छोड़कर अन्वष्टका कृत्य सम्पादित करता है।'


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. आश्वलायन गृह्यसूत्र 2|4|1
  2. मानवगृह्यसुत्र 218
  3. शांखायन गृह्यसूत्र 3|12|1
  4. खादिरगृह्यसूत्र 3|2|27
  5. काठक गृह्यसूत्र (61|1
  6. कौषितकि गृह्यसूत्र (3|15|1
  7. पार. गृह्यसूत्र (3|3
  8. गोभिलगृह्यसूत्र 3|10|48
  9. बौधायन गृह्यसूत्र 2|11|1
  10. आश्वलायन गृह्यसूत्र 2|42
  11. बौधायन गृह्यसूत्र 2|11|1-4
  12. हिरण्यकेशी गृह्यसूत्र (2|14|2
  13. भारद्वाज. गृह्यसूत्र (2|15
  14. हिरण्यकेशी गृह्यसूत्र (2|14 एवं 15
  15. वैखानसस्मार्तसूत्र 4|8
  16. आपस्तम्बगृह्यसूत्र 8|21 एवं 22
  17. आपस्तम्बगृह्यसूत्र 8|21|10
  18. आपस्तम्बगृह्यसूत्र(2|20|27
  19. आप. मंत्रपाठ, 2|20|28
  20. आपस्तम्ब मंत्रपाठ, 2|20|29-35
  21. 2|21|1 'उक्थ्यश्चातिरात्रश्च'
  22. 2|21|2-9
  23. आपस्तम्बगृह्यसूत्र 8|21|1-9

बाहरी कड़ियाँ

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