श्राद्ध एक परिचय

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श्राद्ध एक परिचय
श्राद्ध कर्म में पूजा करते ब्राह्मण
श्राद्ध कर्म में पूजा करते ब्राह्मण
अन्य नाम पितृ पक्ष
अनुयायी सभी हिन्दू धर्मावलम्बी
उद्देश्य श्राद्ध पूर्वजों के प्रति सच्ची श्रद्धा का प्रतीक हैं। पितरों के निमित्त विधिपूर्वक जो कर्म श्रद्धा से किया जाता है, उसी को 'श्राद्ध' कहते हैं।
प्रारम्भ वैदिक-पौराणिक
तिथि भाद्रपद शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा से सर्वपितृ अमावस्या अर्थात आश्विन कृष्ण पक्ष अमावस्या तक
अनुष्ठान श्राद्ध-कर्म में पके हुए चावल, दूध और तिल को मिश्रित करके 'पिण्ड' बनाते हैं, उसे 'सपिण्डीकरण' कहते हैं। पिण्ड का अर्थ है शरीर। यह एक पारंपरिक विश्वास है कि हर पीढ़ी के भीतर मातृकुल तथा पितृकुल दोनों में पहले की पीढ़ियों के समन्वित 'गुणसूत्र' उपस्थित होते हैं। यह प्रतीकात्मक अनुष्ठान जिन जिन लोगों के गुणसूत्र (जीन्स) श्राद्ध करने वाले की अपनी देह में हैं, उनकी तृप्ति के लिए होता है।
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अन्य जानकारी ब्रह्म पुराण के अनुसार श्राद्ध की परिभाषा- 'जो कुछ उचित काल, पात्र एवं स्थान के अनुसार उचित (शास्त्रानुमोदित) विधि द्वारा पितरों को लक्ष्य करके श्रद्धापूर्वक ब्राह्मणों को दिया जाता है', श्राद्ध कहलाता है।

ब्रह्म पुराण ने श्राद्ध की परिभाषा इस प्रकार की है, 'जो कुछ उचित काल, पात्र एवं स्थान के अनुसार उचित (शास्त्रानुमोदित) विधि द्वारा पितरों को लक्ष्य करके श्रद्धापूर्वक ब्राह्मणों को दिया जाता है, वह श्राद्ध कहलाता है।[1]

  • मिताक्षरा[2] ने श्राद्ध को इस प्रकार परिभाषित किया है, 'पितरों का उद्देश्य करके (उनके कल्याण के लिए) श्रद्धापूर्वक किसी वस्तु का या उससे सम्बन्धित किसी द्रव्य का त्याग श्राद्ध है।'
  • कल्पतरु की परिभाषा इस प्रकार है, 'पितरों का उद्देश्य करके (उनके लाभ के लिए) यज्ञिय वस्तु का त्याग एवं ब्राह्मणों के द्वारा उसका ग्रहण प्रधान श्राद्धस्वरूप है।'
  • रुद्रधर के श्राद्धविवेक एवं श्राद्धप्रकाश ने मिताक्षरा के समान ही कहा है, किन्तु इनमें परिभाषा कुछ उलझ सी गयी है।
  • याज्ञवल्क्यस्मृति[3] का कथन है कि पितर लोग, यथा–वसु, रुद्र एवं आदित्य, जो कि श्राद्ध के देवता हैं, श्राद्ध से संतुष्ट होकर मानवों के पूर्वपुरुषों को संतुष्टि देते हैं।
  • यह वचन एवं मनु[4] की उक्ति यह स्पष्ट करती है कि मनुष्य के तीन पूर्वज, यथा–पिता, पितामह एवं प्रपितामह क्रम से पितृ-देवों, अर्थात् वसुओं, रुद्रों एवं आदित्य के समान हैं और श्राद्ध करते समय उनकों पूर्वजों का प्रतिनिधि मानना चाहिए। कुछ लोगों के मत से श्राद्ध से इन बातों का निर्देश होता है; होम, पिण्डदान एवं ब्राह्मण तर्पण (ब्राह्मण संतुष्टि भोजन आदि से); किन्तु श्राद्ध शब्द का प्रयोग इन तीनों के साथ गौण अर्थ में उपयुक्त समझा जा सकता है।

श्राद्ध और पितर

श्राद्धों का पितरों के साथ अटूट संबंध है। पितरों के बिना श्राद्ध की कल्पना नहीं की जा सकती। श्राद्ध पितरों को आहार पहुँचाने का माध्यम मात्र है। मृत व्यक्ति के लिए जो श्रद्धायुक्त होकर तर्पण, पिण्ड, दानादि किया जाता है, उसे 'श्राद्ध' कहा जाता है और जिस 'मृत व्यक्ति' के एक वर्ष तक के सभी और्ध्व दैहिक क्रिया कर्म संपन्न हो जायें, उसी की 'पितर' संज्ञा हो जाती है।

'मेरे वे पितर जो प्रेतरूप हैं, तिलयुक्त जौ के पिण्डों से तृप्त हों।
साथ ही सृष्टि में हर वस्तु ब्रह्मा से लेकर तिनके तक,
चर हो या अचर, मेरे द्वारा दिये जल से तृप्त हों।' - वायु पुराण

श्राद्ध क्या है?

श्राद्ध प्रथा वैदिक काल के बाद शुरू हुई और इसके मूल में इसी श्लोक की भावना है। उचित समय पर शास्त्रसम्मत विधि द्वारा पितरों के लिए श्रद्धा भाव से मन्त्रों के साथ जो दान-दक्षिणा आदि, दिया जाय, वही श्राद्ध कहलाता है। 20 अंश रेतस (सोम) को 'पितृॠण' कहते हैं। 28 अंश रेतस के रूप में 'श्रद्धा' नामक मार्ग से भेजे जाने वाले 'पिण्ड' तथा 'जल' आदि के दान को श्राद्ध कहते हैं। इस श्रद्धावान मार्ग का संबंध मध्याह्न काल में श्राद्ध करने का विधान है।

श्राद्ध के देवता

वसु, रुद्र और आदित्य श्राद्ध के देवता माने जाते हैं।

श्राद्ध क्यों?

हर व्यक्ति के तीन पूर्वज पिता, दादा और परदादा क्रम से वसु, रुद्र और आदित्य के समान माने जाते हैं। श्राद्ध के वक़्त वे ही अन्य सभी पूर्वजों के प्रतिनिधि माने जाते हैं। ऐसा माना जाता है कि वे श्राद्ध कराने वालों के शरीर में प्रवेश करके और ठीक ढंग से रीति-रिवाजों के अनुसार कराये गये श्राद्ध-कर्म से तृप्त होकर वे अपने वंशधर को सपरिवार सुख-समृद्धि और स्वास्थ्य का आर्शीवाद देते हैं। श्राद्ध-कर्म में उच्चारित मन्त्रों और आहुतियों को वे अन्य सभी पितरों तक ले जाते हैं।

श्राद्ध के प्रकार

श्राद्ध तीन प्रकार के होते हैं-

  • नित्य- यह श्राद्ध के दिनों में मृतक के निधन की तिथि पर किया जाता है।
  • नैमित्तिक- किसी विशेष पारिवारिक उत्सव, जैसे - पुत्र जन्म पर मृतक को याद कर किया जाता है।
  • काम्य- यह श्राद्ध किसी विशेष मनौती के लिए कृत्तिका या रोहिणी नक्षत्र में किया जाता है।

श्राद्ध क्यों अनुपयोगी

नन्द पंण्डित कृत 'श्राद्धकल्प' (लगभग 1600 ई.) ने विरोधियों (जिन्हें वे नास्तिक कहते हैं) को विस्तृत प्रत्युत्तर दिया है। विरोधियों का कथन है कि पिता आदि के लिए, जो अपने विशिष्ट कर्मों के अनुसार स्वर्ग या नरक को जाते हैं या अन्य प्रकार का जीवन धारण करते हैं, श्राद्ध सम्पादन कोई अर्थ नहीं रखता। नन्द पंण्डित ने पूछा है – 'श्राद्ध क्यों अनुपयोगी है?' क्या इसीलिए कि इसके सम्पादन की अपरिहार्यता के लिए कोई व्यवस्थित विधान नहीं है? या इसीलिए कि श्राद्ध से फलों की प्राप्ति नहीं होती? या इसीलिए कि यह सिद्ध नहीं हुआ है कि पितृगण श्राद्ध से संतुष्टि पाते हैं? प्रथम प्रश्न का उत्तर यह है कि 'विज्ञ लोगों को पूरी शक्ति भर श्राद्ध अवश्य करना चाहिए'– ऐसे वचन हैं जो श्राद्ध की अनिवार्यता घोषित करते हैं। इसी प्रकार से दूसरा विरोध भी अनुचित है, क्योंकि याज्ञवल्क्यस्मृति[5] ने श्राद्ध के फल भी घोषित किये हैं, यथा दीर्घ जीवन आदि। इसी प्रकार तीसरा विकल्प भी स्वीकार करने योग्य नहीं है।

ब्राह्मण

श्राद्ध कृत्यों में ऐसा नहीं है कि केवल 'देवदत्त' आदि नाम वाले पूर्वज ही प्राप्तिकर्ता हैं और वे पितृ, पितामह एवं प्रपितामह शब्दों से लक्षित होते हैं। प्रत्युत वे नाम वसुओं, रुद्रों तथा आदित्यों जैसे अधीक्षक देवताओं के साथ ही द्योतित होते हैं। जिस प्रकार देवदत्त आदि शब्दों से जो लक्षित होता है, वह न केवल शरीरों (जैसे की नाम दिये गये हैं) एवं आत्माओं का द्योतन करता है, प्रत्युत वह शरीरों से विशिष्टिकृत व्यक्तिगत आत्माओं का परिचायक है। इसी प्रकार पितृ आदि शब्द अधीक्षक देवताओं (वसु, रुद्र एवं आदित्य) के साथ 'देवदत्त' एवं अन्यों के सम्मिलित रूप का द्योतन करते हैं। अत: वसु आदि अधीक्षक देवतागण पुत्रों आदि द्वारा दिये गये भोजन-पान से संतुष्ट होकर उन्हें, अर्थात् देवदत्त आदि को संतुष्ट करते हैं और श्राद्धकर्ता को संतति, पुत्र, जीवन, सम्पत्ति आदि से फल देते हैं। जिस प्रकार गर्भवती माता 'देहाद' (गर्भवती दशा में स्त्रियों की विशिष्ट इच्छा) रूप में अन्य लोगों से मधुर अन्न-पान आदि द्वारा स्वयं सन्तुष्टि प्राप्त करती है और गर्भस्थित बच्चे को भी संतुष्टि देती है तथा दोहद, अन्न आदि देने वाले को प्रत्युपकारक फल देती है, वैसे ही पितृ शब्द से द्योतित पिता, पितामह एवं प्रपितामह वसुओं, रुद्रों तथा आदित्यों के रूप हैं, वे केवल मानव रूप में कहे जाने वाले देवदत्त आदि के समान नहीं हैं।

इसी से ये अधिष्ठाता देवतागण श्राद्ध में किये गये दानादि के प्राप्तिकर्ता होते हैं, श्राद्ध से तर्पित (संतुष्ट) होते हैं और मनुष्य के पितरों को संतुष्ट करते हैं।[6] श्राद्धकल्पलता ने मार्कण्डेय पुराण से 18 श्लोक उद्धृत किये हैं, जिनमें बहुत से अध्याय 28 में पाये जाते हैं। जिस प्रकार बछड़ा अपनी माता को इतस्तत: फैली हुई अन्य गायों में से चुन लेता है, उसी प्रकार श्राद्ध में कहे गये मंत्र प्रदत्त भोजन को पितरों तक ले जाते हैं।[7]

श्राद्ध करने को उपयुक्त

साधारणत: पुत्र ही अपने पूर्वजों का श्राद्ध करते हैं। किन्तु शास्त्रानुसार ऐसा हर व्यक्ति जिसने मृतक की सम्पत्ति विरासत में पायी है और उससे प्रेम और आदर भाव रखता है, उस व्यक्ति का स्नेहवश श्राद्ध कर सकता है। विद्या की विरासत से भी लाभ पाने वाला छात्र भी अपने दिवंगत गुरु का श्राद्ध कर सकता है। पुत्र की अनुपस्थिति में पौत्र या प्रपौत्र भी श्राद्ध-कर्म कर सकता है। नि:सन्तान पत्नी को पति द्वारा, पिता द्वारा पुत्र को और बड़े भाई द्वारा छोटे भाई को पिण्ड नहीं दिया जा सकता। किन्तु कम उम्र का ऐसा बच्चा, जिसका उपनयन संस्कार न हुआ हो, पिता को जल देकर नवश्राद्ध कर सकता। शेष कार्य[8] उसकी ओर से कुल पुरोहित करता है।[9]

श्राद्ध के लिए उचित बातें

  • श्राद्ध के लिए उचित द्रव्य हैं- तिल, माष (उड़द), चावल, जौ, जल, मूल, (जड़युक्त सब्जी) और फल
  • तीन चीज़ें शुद्धिकारक हैं - पुत्री का पुत्र, तिल और नेपाली कम्बल या कुश।
  • तीन बातें प्रशंसनीय हैं - सफ़ाई, क्रोधहीनता और चैन (त्वरा (शीघ्रता)) का न होना।
  • श्राद्ध में महत्त्वपूर्ण बातें - अपरान्ह का समय, कुशा, श्राद्धस्थली की स्वच्छ्ता, उदारता से भोजन आदि की व्यवस्था और अच्छे ब्राह्मण की उपस्थिति।[9]

श्राद्ध के लिए अनुचित बातें

पिण्डदान करते श्रद्धालु

कुछ अन्न और खाद्य पदार्थ जो श्राद्ध में नहीं प्रयुक्त होते- मसूर, राजमा, कोदों, चना, कपित्थ, अलसी, तीसी, सन, बासी भोजन और समुद्र जल से बना नमकभैंस, हिरणी, उँटनी, भेड़ और एक खुर वाले पशु का दूध भी वर्जित है पर भैंस का घी वर्जित नहीं है। श्राद्ध में दूध, दही और घी पितरों के लिए विशेष तुष्टिकारक माने जाते हैं। श्राद्ध किसी दूसरे के घर में, दूसरे की भूमि में कभी नहीं किया जाता है। जिस भूमि पर किसी का स्वामित्व न हो, सार्वजनिक हो, ऐसी भूमि पर श्राद्ध किया जा सकता है।[9]

भाद्रपद में ही श्राद्ध क्यों

हमारा एक माह चंद्रमा का एक अहोरात्र होता है। इसीलिए ऊर्ध्व भाग पर रह रहे पितरों के लिए कृष्ण पक्ष उत्तम होता है। कृष्ण पक्ष की अष्टमी को उनके दिनों का उदय होता है। अमावस्या उनका मध्याह्न है तथा शुक्ल पक्ष की अष्टमी अंतिम दिन होता है। धार्मिक मान्यता है कि अमावस्या को किया गया श्राद्ध, तर्पण, पिंडदान उन्हें संतुष्टि व ऊर्जा प्रदान करते हैं। ज्योतिषशास्त्र के अनुसार पृथ्वी लोक में देवता उत्तर गोल में विचरण करते हैं और दक्षिण गोल भाद्रपद मास की पूर्णिमा को चंद्रलोक के साथ-साथ पृथ्वी के नज़दीक से गुजरता है। इस मास की प्रतीक्षा हमारे पूर्वज पूरे वर्ष भर करते हैं। वे चंद्रलोक के माध्यम से दक्षिण दिशा में अपनी मृत्यु तिथि पर अपने घर के दरवाज़े पर पहुँच जाते है और वहाँ अपना सम्मान पाकर प्रसन्नतापूर्वक अपनी नई पीढ़ी को आर्शीवाद देकर चले जाते हैं। ऐसा वर्णन 'श्राद्ध मीमांसा' में मिलता है। इस तरह पितृ ॠण से मुक्त होने के लिए श्राद्ध काल में पितरों का तर्पण और पूजन किया जाता है। भारतीय संस्कृति एवं समाज में अपने पूर्वजों एवं दिवंगत माता-पिता के स्मरण श्राद्ध पक्ष में करके उनके प्रति असीम श्रद्धा के साथ तर्पण, पिंडदान, यक्ष तथा ब्राह्मणों के लिए भोजन का प्रावधान किया गया है। पितरों के लिए किए जाने वाले श्राद्ध दो तिथियों पर किए जाते हैं। प्रथम मृत्यु या क्षय तिथि पर और दूसरा पितृ पक्ष में। जिस मास और तिथि को पितृ की मृत्यु हुई है अथवा जिस तिथि को उनका दाह संस्कार हुआ है, वर्ष में उम्र उस तिथि को एकोदिष्ट श्राद्ध किया जाता है।

एकोदिष्ट श्राद्ध में केवल एक पितर की संतुष्टि के लिए श्राद्ध किया जाता है। इसमें एक पिण्ड का दान और एक ब्राह्मण को भोजन कराया जाता है। यदि किसी को अपने पूर्वजों की मृत्यु की तिथियाँ याद नहीं है, तो वह अमावस्या के दिन ज्ञात-अज्ञात पूर्वजों का विधि-विधान से पिंडदान तर्पण, श्राद्ध कर सकता है। इस दिन किया गया तर्पण करके 15 दिन के बराबर का पुण्य फल मिलता है और घर परिवार, व्यवसाय तथा आजीविका में विशेष उन्नति होती है। यदि परिवार के किसी सदस्य की अकाल मृत्यु हुई है, तो पितृदोष के निवारण के लिए शास्त्रीय विधि के अनुसार उसकी आत्मशांति के लिए किसी पवित्र तीर्थ स्थान पर श्राद्ध करना चाहिए। सामर्थ्यनुसार किसी सुयोग्य कर्मनिष्ठ ब्राह्मण से श्रीमद्‌ भागवत पुराण की कथा अपने पितरों की आत्मशांति के लिए करवा सकते हैं। इससे विशेष पुण्य फल की प्राप्ति होती है। इसके फलस्वरूप परिवार में अशांति, वंश वृद्धि में रुकावट, आकस्मिक बीमारी, धन से बरकत न होना सारी सुख सुविधाओं के होते भी मन असंतुष्ट रहना आदि परेशानियों से मुक्ति मिल सकती है।

मातामह श्राद्ध

श्रद्धालु
  • मातामह श्राद्ध अपने आप में एक ऐसा श्राद्ध है जो एक पुत्री द्वारा अपने पिता को व एक नाती द्वारा अपने नाना को तर्पण किया जाता है।
  • इस श्राद्ध को सुख शांति का प्रतीक माना जाता है क्योंकि यह श्राद्ध करने के लिए कुछ आवश्यक शर्तें है अगर वो पूरी न हो तो यह श्राद्ध नहीं निकाला जाता।
  • शर्त यह है कि मातामह श्राद्ध उसी औरत के पिता का निकाला जाता है जिसका पति व पुत्र ज़िन्दा हो अगर ऐसा नहीं है और दोनों में से किसी एक का निधन हो चुका है या है ही नहीं तो मातामह श्राद्ध का तर्पण नहीं किया जाता।

श्राद्ध में कुश और तिल का महत्त्व

दर्भ या कुश को जल और वनस्पतियों का सार माना जाता है। यह भी मान्यता है कि कुश और तिल दोनों विष्णु के शरीर से निकले हैं। गरुड़ पुराण के अनुसार, तीनों देवता ब्रह्मा, विष्णु, महेश कुश में क्रमश: जड़, मध्य और अग्रभाग में रहते हैं। कुश का अग्रभाग देवताओं का, मध्य भाग मनुष्यों का और जड़ पितरों का माना जाता है। तिल पितरों को प्रिय हैं और दुष्टात्माओं को दूर भगाने वाले माने जाते हैं। मान्यता है कि बिना तिल बिखेरे श्राद्ध किया जाये तो दुष्टात्मायें हवि को ग्रहण कर लेती हैं।[9]

कम ख़र्च में श्राद्ध

विष्णु पुराण के अनुसार दरिद्र व्यक्ति केवल मोटा अन्न, जंगली साग-पात-फल और न्यूनतम दक्षिणा, वह भी ना हो तो सात या आठ तिल अंजलि में जल के साथ लेकर ब्राह्मण को देना चाहिए या किसी गाय को दिन भर घास खिला देनी चाहिए अन्यथा हाथ उठाकर दिक्पालों और सूर्य से याचना करनी चाहिए कि हे! प्रभु मैंने हाथ वायु में फैला दिये हैं, मेरे पितर मेरी भक्ति से संतुष्ट हों।

कौओं का महत्त्व

कौआ

ऐसा माना जाता है कि व्यक्ति मर कर सबसे पहले कौए का जन्म लेता है और ऐसी मान्यता है कि कौओं को खाना खिलाने से पितरों को खाना मिलता है। इसी कारण श्राद्ध पक्ष में कौओं का विशेष महत्त्व है और प्रत्येक श्राद्ध के दौरान पितरों को खाना खिलाने के तौर पर सबसे पहले कौओं को खाना खिलाया जाता है। जो व्यक्ति श्राद्ध कर्म कर रहा है वह एक थाली में सारा खाना परोसकर अपने घर की छत पर जाता है और ज़ोर ज़ोर से 'कोबस कोबस' कहते हुए कौओं को आवाज़ देता है। थोड़ी देर बाद जब कोई कौआ आ जाता है तो उसको वह खाना परोसा जाता है। पास में पानी से भरा पात्र भी रखा जाता है। जब कौआ घर की छत पर खाना खाने के लिए आता है तो यह माना जाता है कि जिस पूर्वज का श्राद्ध है वह प्रसन्न है और खाना खाने आ गया है। कौए की देरी व आकर खाना न खाने पर माना जाता है कि वह पितर नाराज़ है और फिर उसको राजी करने के उपाय किए जाते हैं। इस दौरान हाथ जोड़कर किसी भी ग़लती के लिए माफ़ी माँग ली जाती है और फिर कौए को खाना खाने के लिए कहा जाता है। जब तक कौआ खाना नहीं खाता, व्यक्ति के मन को प्रसन्नता नहीं मिलती। इस तरह श्राद्ध पक्ष में कौओं की भी पौ बारह है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. देशे काले च पात्रे च श्रद्धया विधिना च यत्। पितृनुद्दिश्य विप्रभ्यों दत्तं श्राद्धमुदाह्रतम्।। ब्रह्मपुराण (श्राद्धप्रकाश, पृष्ठ 3 एवं 6; श्राद्धकल्पलता, पृष्ठ 3; परा. मा. 1|2, पृष्ठ 299)। मिता. (याज्ञ. 1|217) में आया है–'श्राद्धं नाम्तदनीयस्य तत्स्यानीयसय वा द्रव्यस्य प्रेतोद्देशेन श्रद्धया त्याग:।' श्राद्धकल्पतरु (पृष्ठ 4) में ऐसा कहा गया है–'एतेन पितृनुद्दिश्य द्रव्योत्यागो ब्राह्मणस्वीकरणपर्यन्तं श्राद्धस्वरूपं प्रधानम्।' श्राद्धक्रियाकौमुदी (पृष्ठ 3-4) का कथन है–'कल्पतरुलक्षणमय्यनुर्वादय सन्न्यासिनामात्मश्राद्धे देवश्राद्धे सनकादिश्राद्धे चाव्याप्ते:।' श्रीदत्तकृत पितृभक्ति में आया है–'अत्र कल्पतरुकार: पितृनुद्दिश्य द्रव्यपातो ब्राह्मणस्वीकरणपर्यन्ती हि श्राद्धमित्याह तदयुक्तम्।' दीपकलिका (याज्ञवल्क्यस्मृति 1|128) ने कल्पतरु की बात मानी है। श्राद्धविवेक (पृष्ठ 1) ने इस प्रकार कहा है–'श्राद्धं नाम वेदवोधितपात्रम्भनपूर्वकप्रमीतपित्रादिदेवतोद्देश्यको द्रव्यत्यागविशेष:।' श्राद्धप्रकाश (पृष्ठ 4) ने इस प्रकार कहा है–'अत्रापस्तम्बादिसकलवचनपर्यालोचनया प्रमीतमात्रोद्देश्यकान्नत्यागविशेषस्य ब्राह्मणद्यधिककरण प्रतिपत्त्ययंगकस्य श्राद्धपदार्थत्वं प्रतीययते।' श्राद्धविवेक का कथन है कि 'द्रव्यत्याग' वेद के शब्दों द्वारा विहित (वेदबोधत) है और त्यागी हुई वस्तु सुपात्र ब्राह्मण को (पात्रालम्भनपूर्वक) दी जाती है। श्राद्धप्रकाश में 'प्रतिपत्ति' का अर्थ है यज्ञ में प्रयुक्त किसी वस्तु की अन्तिम परिणति, जैसा कि दर्शपूर्णमास यज्ञ में 'सह शाखया प्रस्तरं प्रहरति' नामक वाक्य आया है। यहाँ 'शाखाप्रहरण' 'प्रतिपत्तिकर्म' है (जैमिनि. 4|2|10-13) न कि अर्थकर्म। इसी प्रकार आहिताग्नि के साथ उसके यज्ञपात्रों का दाह प्रतिपत्तिकर्म है (जहाँ तक यज्ञपात्रों का सम्बन्ध है)।
  2. (याज्ञवल्क्यस्मृति 1|217
  3. याज्ञवल्क्यस्मृति (1|268=अग्निपुराण 163|40-41
  4. मनु (3|284
  5. याज्ञवल्क्यस्मृति (1|269
  6. श्राद्धकल्पलता, पृष्ठ 3-4)।
  7. यथा गोषु प्रनष्टासु वत्सो विन्दति मातरम्। तथा श्राद्धेषु दृष्टान्तो (दत्रान्नं) मंत्र: प्रापयते तु तम्।। मत्स्यपुराण (141|76); वायु पुराण (56|85 एवं 83|119-120); ब्रह्मण्ड, अनुर्षगपाद (218-90|91), उपोद्वातपाद (20|12-13); जैसा कि स्मृतिच. (श्रा. पृष्ठ 448) ने उदधृत किया है। और श्राद्धकल्पलता (पृष्ठ 5)।
  8. पिण्डदान, अग्निहोम
  9. 9.0 9.1 9.2 9.3 श्राद्ध: दस सवाल जो आज के युवा पूछना चाहते हैं (हिन्दी) (एच.टी.एम.एल) लाइव हिन्दुस्तान डॉट कॉम। अभिगमन तिथि: 16 सितंबर, 2011।

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