श्राद्ध में पितृ

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पितृ का अर्थ

'पितृ' का अर्थ है 'पिता', किन्तु 'पितर' शब्द जो दो अर्थों में प्रयुक्त हुआ है:-

  1. व्यक्ति के आगे के तीन मृत पूर्वज
  2. मानव जाति के प्रारम्भ या प्राचीन पूर्वज जो एक पृथक् लोक के अधिवासी के रूप में कल्पित हैं।[1]

दूसरे अर्थ के लिए ऋग्वेद[2] में उल्लेख है "वह सोम जो कि शक्तिशाली होता चला जाता है और दूसरों को भी शक्तिशाली बनाता है, जो तानने वाले से तान दिया जाता है, जो धारा में बहता है, प्रकाशमान (सूर्य) द्वारा जिसने हमारी रक्षा की – 'वह सोम, जिसकी सहायता से हमारे पितर लोगों ने एक स्थान[3] को एवं उच्चतर स्थलों को जानते हुए गौओं के लिए पर्वत को पीड़ित किया।" ऋग्वेद[4] में पितृगण निम्न, मध्यम एवं उच्च तीन श्रेणियों में व्यक्त हुए हैं। वे प्राचीन, पश्चात्यकालीन एवं उच्चतर कहे गये हैं।[5] वे सभी अग्नि को ज्ञात हैं, यद्यपि सभी पितृगण अपने वंशजों को ज्ञात नहीं हैं।[6] वे कई श्रेणियों में विभक्त हैं, यथा–अंगिरस्, वैरूप, भृगु, नवग्व एवं दशग्व[7]; अंगिरस् लोग यम से सम्बन्धित हैं, दोनों को यज्ञ में साथ ही बुलाया जाता है।[8] ऋग्वेद[9] में ऐसा कहा गया है–"जिसकी (इन्द्र की) सहायता से हमारे प्राचीन पितर अंगिरस्, जिन्होंने उसकी स्तुति-वन्दना की और जो स्थान को जानते थे, गौओं का पता लगा सके।" अंगिरस् पितर लोग स्वयं दो भागों में विभक्त थे; नवग्व एवं दशग्व।[10] कई स्थानों पर पितर लोग सप्त ऋषियों जैसे सम्बोधित किये गये हैं[11] और कभी-कभी नवग्व एवं दशग्व भी सप्त ऋषि कहे गये हैं।[12] अंगिरस् लोग अग्नि[13] एवं स्वर्ग[14] के पुत्र कहे गये हैं। पितृ लोग अधिकतर देवों, विशेषत: यम के साथ आनन्द मनाते हुए व्यक्त किये गये हैं।[15] वे सोमप्रेमी होते हैं[16], वे कुश पर बैठते हैं[17], वे अग्नि एवं इन्द्र के साथ आहुतियाँ लेने आते हैं[18] और अग्नि उनके पास आहुतियाँ ले जाती हैं।[19] जल जाने के उपरान्त मृतात्मा को अग्नि पितरों के पास ले जाती है।[20] पश्चात्कालीन ग्रन्थों में भी, यथा मार्कण्डेय पुराण[21] में ब्रह्मा को आरम्भ में चार प्रकार की श्रेणियाँ उत्पन्न करते हुए व्यक्त किया गया है, यथा–देव, असुर, पितर एवं मानव प्राणी।[22]

भाद्रपद की प्रतीक्षा हमारे पूर्वज पूरे वर्ष भर करते हैं। वे चंद्रलोक के माध्यम से दक्षिण दिशा में अपनी मृत्यु तिथि पर अपने घर के दरवाज़े पर जाते हैं और सम्मान पाकर अपनी नई पीढ़ी को आशीर्वाद देते हैं।

ऐसा माना गया है कि शरीर के दाह के उपरान्त मृतात्मा को वायव्य शरीर प्राप्त होता है और वह मनुष्यों को एकत्र करने वाले यम एवं पितरों के साथ हो लेता है।[23] मृतात्मा पितृलोक में चला जाता है और अग्नि से प्रार्थना की जाती है कि वह उसे सत् कर्म वाले पितरों एवं विष्णु के पाद-न्यास (विक्रम) की ओर ले जाए।[24] यद्यपि ऋग्वेद[25] में यम की दिवि (स्वर्ग में) निवास करने वाला लिखा गया है, किन्तु निरुक्त[26] के मत से वह मध्यम लोक में रहने वाला देव कहा गया है। अथर्ववेद[27] का कथन है–"हम श्रद्धापूर्वक पिता के पिता एवं पितामह की, जो बृहत् मध्यम लोक में रहते हैं और जो पृथ्वी एवं स्वर्ग में रहते हैं, पूजा करें।" ऋग्वेद[28] में आया है–'तीन लोक हैं; दो (अर्थात् स्वर्ग एवं पृथ्वी) सविता की गोद में हैं, एक (अर्थात् मध्यम लोक) यमलोक है, जहाँ मृतात्मा एकत्र होते हैं।' 'महान प्रकाशमान (सूर्य) उदित हो गया है, (वह) पितरों का दान है।[29]' तैत्तिरीय ब्राह्मण[30] में ऐसा आया है कि पितर इससे आगे तीसरे लोक में निवास करते हैं। इसका अर्थ यह है कि भुलोक एवं अंतरिक्ष के उपरान्त पितृलोक आता है। बृहदारण्यकोपनिषद्[31] में मनुष्यों, पितरों एवं देवों के तीन लोक पृथक-पृथक् वर्णित हैं। ऋग्वेद[32] में यम कुछ भिन्न भाषा में उल्लिखित है, वह स्वयं एक देव कहा गया है, न कि प्रथम मनुष्य जिसने मार्ग बनाया[33], या वह मनुष्यों को एकत्र करने वाला है[34] या पितरों की संगति में रहता है। कुछ स्थलों पर वह निसन्देह राजा कहा जाता है और वरुण के साथ ही प्रशंसित है।[35] किन्तु ऐसी स्थिति बहुत ही कम वर्णित है।[36]

पितरों की अन्य श्रेणियाँ

पुराण
  • पितरों की अन्य श्रेणियाँ भी हैं, यथा–पितर: सोमवन्त:, पितर: बर्हिषद: एवं पितर: अग्निष्वात्ता:।
  • अन्तिम दो के नाम ऋग्वेद[37] में आये हैं। शतपथ ब्राह्मण ने इनकी परिभाषा यों की है–"जिन्होंने एक सोमयज्ञ किया, वे पितर सोमवन्त: कहे गये हैं; जिन्होंने पक्व आहुतियाँ (चरु एवं पुरोडास के समान) दीं और एक लोक प्राप्त किया, वे पितर बर्हिषद: कहे गये हैं; जिन्होंने इन दोनों में कोई कृत्य नहीं सम्पादित किया और जिन्हें जलाते समय अग्नि ने समाप्त कर दिया, उन्हें अग्निष्वात्ता: कहा गया है; केवल ये ही पितर हैं।"[38]
  • पाश्चात्कालीन लेखकों ने पितरों की श्रेणियों के नामों के अर्थों में परिवर्तन कर दिया है।
  • उदाहरणार्थ, नान्दीपुराण (हेमाद्रि) में आया है- ब्राह्मणों के पितर अग्निष्वात्त, क्षत्रियों के पितर बर्हिषद्, वैश्यों के पितर काव्य, शूद्रों के पितर सुकालिन: तथा म्लेच्छों एवं अस्पृश्यों के पितर व्याम हैं।[39]
  • यहाँ तक की मनु[40] ने भी पितरों की कई कोटियाँ दी हैं और चारों वर्णों के लिए क्रम से सोमपा:, हविर्भुज:, आज्यपा: एवं सुकालिन: पितरों के नाम बतला दिये गये हैं। आगे चलकर मनु[41] ने कहा है कि ब्राह्मणों के पितर अनग्निदग्ध, अग्निदग्ध, काव्य बर्हिषद्, अग्निष्वात्त एवं सौम्य नामों से पुकारे जाते हैं। इन नामों से पता चलता है कि मनु ने पितरों की कोटियों के विषय में कतिपय परम्पराओं को मान्यता दी है।
  • इन नामों एवं इनकी परिभाषा के लिए मत्स्य पुराण[42] में भी उल्लेख है।
  • शातातपस्मृति[43] में पितरों की 12 कोटियों या विभागों के नाम आये हैं, यथा–पिण्डभाज: (3), लेपभाज: (3), नान्दीमुख (3) एवं अश्रुमुख (3)। यह पितृविभाजन दो दृष्टियों से हुआ है।
  • वायु पुराण[44], ब्रह्माण्ड पुराण[45], पद्म पुराण[46], विष्णुधर्मोत्तर[47] एवं अन्य पुराणों में पितरों के सात प्रकार आये हैं, जिनमें तीन अमूर्तिमान् हैं और चार मूर्तिमान्; वहाँ पर उनका और उनकी संतति का विशद वर्णन हुआ हैं इन पर हम विचार नहीं करेंगे।
  • स्कन्द पुराण[48] ने पितरों की नौ कोटियाँ दी हैं; अग्निष्वात्ता:, बर्हिषद:, आज्यपात्, सोमपा:, रश्मिपा:, उपहूता:, आयन्तुन:, श्राद्धभुज: एवं नान्दीमुखा:। इस सूची में नये एवं पुराने नाम सम्मिलित हैं।
  • भारतीय लोग भागों, उपविभागों, विभाजनों आदि में बड़ी अभिरुचि प्रदर्शित करते हैं और सम्भवत: यह उसी भावना का एक दिग्दर्शन है।
  • मनु[49] ने कहा है कि ऋषियों से पितरों की उदभूति हुई, पितरों से देवों एवं मानवों की तथा देवों से स्थावर एवं जंगम के सम्पूर्ण लोक की उदभूति हुई।
  • यह द्रष्टव्य है कि यहाँ देवगण पितरों से उदभूत माने गये हैं। यह केवल पितरों की प्रशस्ति है (अर्थात् यह एक अर्थवाद है)।

देवों से भिन्न

पितर लोग देवों से भिन्न थे। ऋग्वेद[50] के 'पंचजना मम होत्रं जुषध्वम्' में प्रयुक्त शब्द 'पंचजना:' एवं अन्य वचनों के अर्थ के आधार पर ऐतरेय ब्राह्मण[51] ने व्याख्या की है वे पाँच कोटियाँ हैं, अप्सराओं के साथ गन्धर्व, पितृ, देव, सर्प एवं राक्षस। निरुक्त ने इसका कुछ अंशों में अनुसरण किया है[52] और अपनी ओर से भी व्याख्या की है। अथर्ववेद[53] में देव, पितृ एवं मनुष्य उसी क्रम में उल्लिखित हैं। प्राचीन वैदिक उक्तियाँ एवं व्यवहार देवों तथा पितरों में स्पष्ट भिन्नता प्रकट करते हैं। तैत्तिरीय संहिता[54] में आया है–'देवों एवं मनुष्यों ने दिशाओं को बाँट लिया, देवों ने पूर्व लिया, पितरों ने दक्षिण, मनुष्यों ने पश्चिम एवं रुद्रों ने उत्तर।' सामान्य नियम यह है कि देवों के यज्ञ मध्याह्न के पूर्व में आरम्भ किये जाते हैं और पितृयज्ञ अपरान्ह्न में।[55] शतपथ ब्राह्मण[56] ने वर्णन किया है कि पितर लोग अपने दाहिने कंधे पर (और बायें बाहु के नीचे) यज्ञोपवीत धारण करके प्रजापति के यहाँ पहुँचे, तब प्रजापति ने उनसे कहा- 'तुम लोगों को भोजन प्रत्येक मास (के अन्त) में (अमावस्या को) मिलेगा, तुम्हारी स्वधा विचार की ते­ज़ी होगी एवं चन्द्र तुम्हारा प्रकाश होगा।' देवों से उसने कहा- 'यज्ञ तुम्हारा भोजन होगा एवं सूर्य तुम्हारा प्रकाश।' तैत्तिरीय ब्राह्मण[57] ने लगता है, उन पितरों में जो देवों के स्वभाव एवं स्थिति के हैं एवं उनमें, जो अधिक या कम मानव के समान हैं, अन्तर बताया है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. यह दृष्टिकोण यदि भारोपीय (इण्डो यूरोपीयन) नहीं है तो कम से कम भारत पारस्य (इण्डो ईरानियन) तो है ही। प्राचीन पारसी शास्त्र फ्रवशियों (फ्रवशीस=अंग्रेज़ी बहुवचन} के विषय में चर्चा करते हैं, जो आरम्भिक रूप में प्राचीन हिन्दू ग्रन्थों में प्रयुक्त 'पितृ' या प्राचीन रोमकों (रोमवासियों) का 'मेनस' शब्द है। वे मृत लोगों के अमर एवं अधिष्ठाता देवता थे। क्रमश: 'फ्रवशी' का अर्थ विस्तृत हो गया और उसमें देवता तथा पृथ्वी एवं आकाश जैसी वस्तुएँ भी सम्मिलित हो गयीं, अर्थात् प्रत्येक में फ्रवशी पाया जाने लगा।
  2. ऋग्वेद (10|14|2 एवं 7; 1015|2 एवं 9|97|39
  3. जहाँ गायें छिपाकर रखी हुई थीं
  4. ऋग्वेद (10|15|1
  5. ऋग्वेद 10|15|2
  6. ऋग्वेद 10|15|13
  7. ऋग्वेद (10|14|5-6
  8. ऋग्वेद 10|14|3-5
  9. ऋग्वेद (1|62|2
  10. ऋग्वेद 1|62|4; 5|39|12 एवं 10|62|6
  11. ऋग्वेद 4|42|8 एवं 6|22|2
  12. ऋग्वेद (1|62|4
  13. ऋग्वेद 10|62|5
  14. ऋग्वेद (4|2|15
  15. ऋग्वेद 7|76|4, 10|14|10 एवं 10|15|8-10
  16. ऋग्वेद 10|15|1 एवं 5, 9|97|39
  17. ऋग्वेद 10215|5
  18. ऋग्वेद 10|15|10 एवं 10|16|12
  19. ऋग्वेद 10|15|12
  20. ऋग्वेद 10|16|1-2 एवं 5=अथर्ववेद 18|2|10; ऋग्वेद 10|17|3
  21. मार्कण्डेय पुराण (अध्याय 45
  22. और देखिए ब्रह्मापुराण (प्रक्रिया, अध्याय 8, उपोद्घात, अध्याय 9|10)–'इत्येते पितरो देवा देवाश्च पितर: पुन:। अन्योन्यपितरो होते।'
  23. ऋग्वेद 10|14|1 एवं 8, 10|1625)।
  24. ऋग्वेद 10|14|9 एवं 10|16|4
  25. ऋग्वेद (10|64|3
  26. निरुक्त (10|18
  27. अथर्ववेद (18|2|49
  28. ऋग्वेद (1|35|6
  29. ऋग्वेद 10|107|1
  30. तैत्तिरीय ब्राह्मण (1|2|10|5
  31. बृहदारण्यकोपनिषद् (1|5|16
  32. ऋग्वेद (10|138|1-7
  33. ऋग्वेद 10|14|2
  34. ऋग्वेद (10|14|1
  35. ऋग्वेद 10|14|7)।
  36. इस विषय में अधिक जानकारी के लिए देखिए इस खण्ड का अध्याय 6।
  37. ऋग्वेद (10|15|4 एवं 11=तैत्तरीय संहिता 2|6|12|2
  38. देखिए तैत्तिरीय ब्राह्मण (1|6|9|5) एवं काठकसंहिता (9|6|17)।
  39. मिलाइए मनु 3|117)।
  40. मनु(3|193-198
  41. मनु(3|199
  42. मत्स्य पुराण(141|4, 141|15-18
  43. शातातपस्मृति (625-6
  44. वायुपुराण (72|1 एवं 73|6
  45. ब्रह्माण्ड पुराण (उपोदघात् 9|53
  46. पद्म पुराण (5|9|2-3
  47. विष्णुधर्मोत्तर (1|138|2-3
  48. स्कन्द पुराण (6|216|9-10
  49. मनु (3|201
  50. ऋग्वेद (10|53|4
  51. ऐतरेयब्राह्मण (13|7 या 3|31
  52. निरुक्त (3|8
  53. अथर्ववेद (10|6|62
  54. तैत्तिरीय संहिता (6|1|1|1
  55. शांखायन ब्राह्मण 5|6
  56. शतपथ ब्राह्मण(2|4|2|2
  57. तैत्तिरीय ब्राह्मण (1|3|10|4

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