आर्यभटीय

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आर्यभटीय
आर्यभटीय ग्रंथ
आर्यभटीय ग्रंथ
लेखक आर्यभट
मूल शीर्षक आर्यभटीय
देश भारत
भाषा संस्कृत
विषय गणित तथा खगोलशास्त्र
भाग आर्यभटीय में कुल 108 छंद है, साथ ही परिचयात्मक 13 अतिरिक्त हैं। यह चार पदों अथवा अध्यायों में विभाजित है: गीतिकपाद, गणितपाद, कालक्रियापाद, गोलपाद।
रचनाकाल 499 ई.
विशेष इसकी रचनापद्धति बहुत ही वैज्ञानिक और भाषा बहुत ही संक्षिप्त तथा मंजी हुई है।

आर्यभटीय (अंग्रेज़ी: Aryabhatiya) नामक ग्रन्थ की रचना महान गणितज्ञ आर्यभट ने की थी। यह संस्कृत भाषा में आर्या छंद में काव्यरूप में रचित गणित तथा खगोलशास्त्र का ग्रंथ है। इसकी रचनापद्धति बहुत ही वैज्ञानिक और भाषा बहुत ही संक्षिप्त तथा मंजी हुई है। इसमें चार अध्यायों में 121 श्लोक हैं। आर्यभटीय, दसगीतिका पाद से आरम्भ होती है।

रचना काल

आर्यभट ने अपने आर्यभटीय ग्रंथ की रचना 499 ई. में की। ख्युघृ 43,20,000 में ख्‌ 2 के लिए लिखा गया है और य्‌ 30 के लिए। दोनों अक्षर मिलाकर लिखे गए हैं और उनमें उ की मात्रा लगी है, जो 10,000 के समान है; इसलिए ख्यु का अर्थ हुआ 3,20,000; घृ के घ्‌ का अर्थ है 4 और ऋ का 10,00,000, इसलिए घृ का अर्थ हुआ 40,00,000। इस तरह ख्युघृ का उपर्युक्त मान हुआ। संख्या लिखने की इस रीति में सबसे बड़ा दोष यह है कि यदि अक्षरों में थोड़ा सा भी हेर फेर हो जाय तो बड़ी भारी भूल हो सकती है। दूसरा दोष यह है कि ल्‌ में की मात्रा लगाई जाय तो इसका रूप वही होता है जो लृ स्वर का, परंतु दोनों के अर्थों में बड़ा अंतर पड़ता है। इन दोषों के होते हुए भी इस प्रणाली के लिए आर्यभट की प्रतिभा की प्रशंसा करनी ही पड़ती है। इसमें उन्होंने थोड़े से श्लोकों में बहुत सी बातें लिख डाली हैं; सचमुच, गागर में सागर भर दिया है। आर्यभटीय के प्रथम श्लोक में ब्रह्म और परब्रह्म की वंदना है एवं दूसरे में संख्याओं को अक्षरों से सूचित करने का ढंग। इन दो श्लोकों में कोई क्रमसंख्या नहीं है, क्योंकि ये प्रस्तावना के रूप में हैं। इसके बाद के श्लोक की क्रमसंख्या 1 है जिसमें सूर्य, चंद्रमा, पृथ्वी, शनि, गुरु, मंगल, शुक्र और बुध के महायुगीय भगणों की संख्याएं बताई गई हैं। यहां एक बात ध्यान देने योग्य है कि आर्यभट ने एक महायुग में पृथ्वी के घूर्णन की संख्या भी दी है, क्योंकि उन्होंने पृथ्वी का दैनिक घूर्णन माना है। इस बात के लिए परवर्ती आचार्य ब्रह्मगुप्त ने इनकी निंदा की है। अगले श्लोक में ग्रहों के उच्च और पात के महायुगीय भगणों की संख्या बताई गई है। तीसरे श्लोक में बताया गया है कि ब्रह्मा के एक दिन (अर्थात एक कल्प) में कितने मन्वंतर और युग होते हैं और वर्तमान कल्प के आरंभ से लेकर महाभारत युद्ध की समाप्तिवाले दिन तक कितने युग और युगपाद बीत चुके थे। आगे के सात श्लोकों में राशि, अंश, कला आदि का संबंध, आकाशकक्षा का विस्तार, पृथ्वी के व्यास तथा सूर्य, चंद्रमा और ग्रहों के बिंबों के व्यास के परिमाण, ग्रहों की क्रांति और विक्षेप, उनके पातों और मंदोच्चों के स्थान, उनकी मंदपरिधियों और शीघ्रपरिधियों के परिमाण तथा 3 अंश 45 कलाओं के अंतर पर ज्याखंडों के मानों की सारणी है। अंतिम श्लोक में पहले कही हुई बातों के जानने का फल बताया गया है। इस प्रकार प्रकट है कि आर्यभट ने अपनी नवीन संख्या-लेखन-पद्धति से ज्योतिष और त्रिकोणमिति की कितनी ही बातें 13 श्लोकों में भर दी हैं। इस छोटे-से ग्रंथ में उन्होंने गणित और ज्योतिष की प्रमुख बातें रखीं। इस ग्रंथ में हम पहली बार देखते हैं कि भारतीय विज्ञान ने धर्म से अपने को स्वतंत्र कर लिया है। आर्यभट ने यूनानियों का अनुकरण करते हुए, वर्णमाला के आधार पर एक नई अक्षरांक-पद्धति को जन्म दिया। उनकी मान्यता थी कि पृथ्वी स्थिर नहीं है, बल्कि यह अपने अक्ष पर घूमती है। किंतु बाद के भारतीय ज्योतिषियों ने उनके इस सिद्धांत की उपेक्षा की। आर्यभट ने यह भी कहा था कि सूर्य ग्रहण और चंद्र ग्रहण किसी राहु-केतु (राक्षसों) के कारण नहीं, बल्कि चंद्र और पृथ्वी की छायाओं के कारण घटित होते हैं। त्रिकोणमिति में आज भी आर्यभट की मूल विधियों का इस्तेमाल होती हैं।[1]

'आर्यभटीय' नाम

आर्यभटीय उनके द्वारा किये गए कार्यों का प्रत्यक्ष विवरण प्रदान करता है। ऐसा माना जाता है कि आर्यभट ने स्वयं इसे यह नाम नहीं दिया होगा बल्कि बाद के टिप्पणीकारों ने आर्यभटीय नाम का प्रयोग किया होगा। इसका उल्लेख भी आर्यभट के शिष्य भास्कर प्रथम ने अपने लेखों में किया है। इस ग्रन्थ को कभी-कभी आर्य-शत-अष्ट (अर्थात आर्यभट्ट के 108 – जो की उनके पाठ में छंदों कि संख्या है) के नाम से भी जाना जाता है। आर्यभटीय में वर्गमूल, घनमूल, समान्तर श्रेणी तथा विभिन्न प्रकार के समीकरणों का वर्णन है। वास्तव में यह ग्रन्थ गणित और खगोल विज्ञान का एक संग्रह है। आर्यभटीय के गणितीय भाग में अंकगणित, बीजगणित, सरल त्रिकोणमिति और गोलीय त्रिकोणमिति शामिल हैं। इसमें सतत भिन्न (कँटीन्यूड फ़्रेक्शन्स), द्विघात समीकरण (क्वड्रेटिक इक्वेशंस), घात श्रृंखला के योग (सम्स ऑफ पावर सीरीज़) और ज्याओं की एक तालिका (Table of Sines) शामिल हैं। आर्यभटीय में कुल 108 छंद है, साथ ही परिचयात्मक 13 अतिरिक्त हैं। यह चार पदों अथवा अध्यायों में विभाजित है: गीतिकपाद, गणितपाद, कालक्रियापाद, गोलपाद।[2]

आर्यभटीय के खण्ड

आर्यभटीय प्राचीन भारत की एक महत्‍वपूर्ण संरक्षित कृति है। आर्यभट ने इसे पद्यबद्ध संस्‍कृत के श्‍लोकों के रूप में लिखा है। संस्‍कृत भाषा में रचित इस पुस्‍तक में गणित एवं खगोल विज्ञान से सम्‍बंधित क्रान्तिकारी सूत्र दिये। पुस्‍तक में कुल 121 श्‍लोक या बंध हैं। इनको चार पाद (खण्‍डों) में बाँटा गया है। इन खण्‍डों के नाम हैं: गीतिकापाद, गणितपाद, कालक्रियापाद एवं गोलपाद।

1. गीतिकापाद

आर्यभटीय के चारों खंडों में यह सबसे छोटा भाग है। इसमें कुल 13 श्‍लोक हैं। इस खण्‍ड का पहला श्‍लोक मंगलाचरण है। यह (तथा इस खण्‍ड के 9 अन्‍य श्‍लोक) गीतिका छंद में है। इसीलिए इस खण्‍ड को गीतिकापाद कहा गया है। इस खण्‍ड में ज्‍योतिष के महत्‍वपूर्ण सिद्धाँतों की जानकारी दी गयी है। इस खण्‍ड में संस्कृत अक्षरों के द्वारा संख्याएँ लिखने की एक ‘अक्षराँक पद्धति’ के बारे में भी जानकारी दी गयी है।

  • अक्षराँक पद्धति अक्षरों के द्वारा बड़ी संख्‍याओं को लिखने की एक अासान तकनीक है। इस पद्धति में आर्यभट ने '' से लेकर '' तक के अक्षरों को 1 से लेकर 1,00,00,00,00,00,00,00 तक शतगुणोत्‍तर मान, से तक के सभी अक्षरों को 1 से लेकर 25 संख्‍याओं के मान तथा से लेकर तक के व्‍यंजनों को 30, 40, 50 के क्रम में 100 तक के मान दिये। इस प्रकार उन्‍होंने छोटे शब्‍दों के द्वारा बड़ी संख्‍याओं को लिखने का एक आसान तरीका विकसित किया।

2. गणितपाद

इस खण्‍ड में गणित की चर्चा की गयी है। इसमें कुल 33 श्‍लोक हैं। जिनमें आर्यभट ने अंकगणित, बीजगणित और रेखागणित संबंधी कुछ सूत्रों का समावेश किया है। पहले श्लोक में अपना नाम बताया है और लिखा है कि जिस ग्रंथ पर उनका ग्रंथ आधारित है वह (गुप्तसाम्राज्य की राजधानी) कुसुमपुर में मान्य था। दूसरे श्लोक में संख्या लिखने की दशमलव पद्धति की इकाइयों के नाम हैं। इसके आगे के श्लोकों में वर्गक्षेत्र, घन, वर्गमूल, घनमूल, त्रिभुज का क्षेत्रफल, त्रिभुजाकार शंकु का घनफल, वृत्त का क्षेत्रफल, गोले का घनफल, समलंब चतुर्भुज क्षेत्र के कर्णों के संपात से समांतर भुजाओं की दूरी और क्षेत्रफल तथा सब प्रकार के क्षेत्रों की मध्यम लंबाई और चौड़ाई जानकर क्षेत्रफल बताने के साधारण नियम दिए गए हैं। एक जगह बताया गया है कि परिधि के छठे भाग को ज्या उसकी त्रिज्या के समान होती है। श्लोक में बताया गया है कि यदि वृत्त का व्यास 20,000 हो तो उसकी परिधि 62,832 होती है। इससे परिधि और व्यास का संबंध चौथे दशमलव स्थान तक शुद्ध आ जाता है। दो श्लोकों में ज्याखंडों के जानने की विधि बताई गई है, जिससे ज्ञात होता है कि ज्याखंडों की सारणी (टेबुल ऑव साइनडिफ़रेंसेज़) आर्यभट ने कैसे बनाई थी। आगे वृत्त, त्रिभुज और चतुर्भुज खींचने की रीति, समतल धरातल के परखने की रीति, ऊर्घ्वाधर के परखने की रीत, शंकु और छाया से छायाकर्ण जानने की रीति, किसी ऊँचे स्थान पर रखे हुए दीपक के प्रकाश के कारण बनी हुई शकु की छाया की लंबाई जानने की रीति, एक ही रेखा पर स्थित दीपक और दो शंकुओं के संबंध के प्रश्न की गणना करने की रीति, समकोण त्रिभुज के कर्ण और अन्य दो भुजाओं के वर्गों का संबंध (जिसे पाइथागोरस का नियम कहते हैं, परंतु जो शुल्वसूत्र में पाइथागोरस से बहुत पहले लिखा गया था), वृत्त की जीवा और शरों का संबंध, दो श्लोकों में श्रेणी गणित के कई नियम, एक श्लोक में एक-एक बढती हुई संख्याओं के वर्गों और घनों का योगफल जानने का नियम, (क+ख)2-(क2अख2)=2कख, दो राशियों का गुणनफल और अंतर जानकर राशियों को अलग-अलग करने की रीति, ब्याज की दर जानने का एक नियम जो वर्गसमीकरण का उदाहरण है, त्रैराशिक का नियम, भिन्नों को एकहर करने की रीति, बीजगणित के सरल समीकरण और एक विशेष प्रकार के युगपत्‌ समीकरणों पर आधारित प्रश्नों को हल करने के नियम, दो ग्रहों का युतिकाल जानने का नियम और कुट्टक नियम (सोल्यूशन ऑव इनडिटर्मिनेट इक्वेशन ऑव द फ़र्स्ट डिगरी) बताए गए हैं। जितनी बातें तैंतीस श्लोकों में बताई गई हैं उनकों यदि आजकल की परिपाटी के अनुसार विस्तारपूर्वक लिखा जाए तो एक बड़ी भारी पुस्तक बन सकती है।

3. कालक्रियापाद

कालक्रियापाद का अर्थ है काल गणना। इस खण्‍ड में 25 श्‍लोक हैं। यह खण्‍ड खगोल विज्ञान पर केन्द्रित है। इसमें काल एवं वृत्त का विभाजन, सौर वर्ष, चंद्र मास, नक्षत्र दिवस, अंतर्वेशी मास, ग्रहीय प्रणालियाँ एवं गतियों का वर्णन है। यह कालविभाग और काल के आधार पर की गई ज्योतिष संबंधी गणना से संबंध रखता है। पहले दो श्लोकों में काल और कोण की इकाइयों का संबंध बताया गया है। आगे के छह श्लोकों में योग, व्यतीपात, केंद्रभगण और बार्हस्पत्य वर्षों की परिभाषा दी गई है तथा अनेक प्रकार के मासों, वर्षों और युगों का संबंध बताया गया है। नवें श्लोक में बताया गया है कि युग का प्रथमार्ध उत्सर्पिणी और उत्तरार्ध अवसर्पिणी काल है और इनका विचार चंद्रोच्च से किया जाता है। परंतु इसका अर्थ समझ में नही आता। किसी टीकाकार ने इसकी संतोषजनक व्याख्या नहीं की है। 10वें श्लोक की चर्चा पहले ही आ चुकी है, जिसमें आर्यभट ने अपने जन्म का समय बताया है। इसके आगे बताया है कि चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से युग, वर्ष, मास और दिवस की गणना आरंभ होती है। आगे के 20 श्लोकों में ग्रहों की मध्यम और स्पष्ट गति संबंधी नियम हैं।

4. गोलपाद

यह आर्यभटीय का सबसे वृहद, अंतिम एवं महत्‍वपूर्ण खण्‍ड है। इस खण्‍ड में कुल 50 श्‍लोक हैं। इस खण्‍ड के अन्‍तर्गत एक खगोलीय गोले में ग्रहीय गतियों के निरूपण की विधि समझाई गयी है। आर्यभट की खगोल विज्ञान सम्‍बंधी सभी प्रमुख धारणाओं का वर्णन भी इसी खण्‍ड में मिलता है। पहले श्लोक से प्रकट होता है कि क्रांतिवृत्त के जिस बिंदु को आर्यभट ने मेषादि माना है वह वसंत-संपात-बिंदु था, क्योंकि वह कहते हैं, मेष के आदि से कन्या के अंत तक अपमंडल (क्रांतिवृत्त) उत्तर की ओर हटा रहता है और तुला के आदि से मीन के अंत तक दक्षिण की ओर। आगे के दो श्लोकों में बताया गया हे कि ग्रहों के पात और पृथ्वी की छाया का भ्रमण क्रांतिवृत्त पर होता है। चौथे श्लोक में बताया है कि सूर्य से कितने अंतर पर चंद्रमा, मंगल, बुध आदि दृश्य होते हैं। पाँचवाँ श्लोक बताता है कि पृथ्वी, ग्रहों और नक्षत्रों का आधा गोला अपनी ही छाया से प्रकाशित है और आधा सूर्य के संमुख होने से प्रकाशित है। नक्षत्रों के संबंध में यह बात ठीक नहीं है। श्लोक छह सात में पृथ्वी की स्थिति, बनावट और आकार का निर्देश किया गया है। आठवें श्लोक में यह विचित्र बात बताई गई है कि ब्रह्मा के दिन में पृथ्वी की त्रिज्या एक योजन बढ़ जाती है और ब्रह्मा की रात्रि में एक योजन घट जाती है। श्लोक नौ में बताया गया है कि जैसे चलती हुई नाव पर बैठा हुआ मनुष्य किनारे के स्थिर पेड़ों को विपरीत दिशा में चलता हुआ देखता है वैसे ही लंका (पृथ्वी की विषुवत्‌ देखा पर एक कल्पित स्थान) से स्थिर तारे पश्चिम की ओर घूमते हुए दिखाई पड़ते हैं। परंतु 10वें श्लोक में बताया गया है कि ऐसा प्रतीत होता है, मानो उदय और अस्त करने के बहाने ग्रहयुक्त संपूर्ण नक्षत्रचक्र, प्रवह वायु से प्रेरित होकर, पश्चिम की ओर चल रहा हो। श्लोक 11 में सुमेरु पर्वत (उत्तरी ध्रुव पर स्थित पर्वत) का आकार और श्लोक 12 में सुमेरु और बड़वामुख (दक्षिण ध्रुव) की स्थिति बताई गई है। श्लोक 13 में विषुवत रेखा पर 90-90 अंश की दूरी पर स्थित चार नगरियों का वर्णन है। श्लोक 14 में लंका से उज्जैन का अंतर बताया गया है। श्लोक 15 में बताया गया है कि भूगोल की मोटाई के कारण खगोल आधे भाग से कितना कम दिखाई पड़ता है। 16वें श्लोक में बताया गया है कि देवताओं और असुरों को खगोल कैसे घूमता हुआ दिखाई पड़ता है। श्लोक 17 में देवताओं, असुरों, पितरों और मनुष्यों के दिन रात का परिमाण है। श्लोक 18 से 23 तक खगोल का वर्णन है। श्लोक 24-33 में त्रिप्रश्नाधिकार के प्रधान सूत्रों का कथन है, जिनसे लग्न, काल आदि जाने जाते हैं। श्लोक 34 में लंबन, 35 में आक्षनदृक्कर्म और 36 में आयनदृक्कर्म का वर्णन है। श्लोक 37 से 47 तक सूर्य और चंद्रमा के ग्रहणों की गणना करने की रीति है। श्लोक 48 में बताया गया है कि पृथ्वी और सूर्य के योग से सूर्य के, सूर्य और चंद्रमा के योग से चंद्रमा तथा ग्रहों के योग से सब ग्रहों के मूलांक जाने गए हैं। श्लोक 49 और 50 में आर्यभटीय की प्रशंसा की गई है।

प्रचार

आर्यभटीय का प्रचार दक्षिण भारत में विशेष रूप से हुआ। इस ग्रंथ का पठन पाठन 16वीं 17वीं शताब्दी तक होता रहा, जो इस पर लिखी गई टीकाओं से स्पष्ट है। दक्षिण भारत में इसी के आधार पर बने हुए पंचांग आज भी वैष्णव धर्म वालों को मान्य होते हैं। खेद है, कि हिंदी में आर्यभटीय की कोई अच्छी टीका नहीं है। अंग्रेजी में इसके दो अनुवाद हैं, एक श्री प्रबोधचंद्र सेनगुप्त का और दूसरा श्री डब्ल्यू.ई. क्लार्क का। पहला 1927 ई. में कलकत्ते और दूसरा 1930 ई. में शिकागों से प्रकाशित हुआ था।

  • आर्यभट के दूसरे ग्रंथ का प्रचार उत्तर भारत में विशेष रूप से हुआ, जो इस बात से स्पष्ट है कि आर्यभट के तीव्र आलोचक ब्रह्मगुप्त को वृद्धावस्था में अपने ग्रंथ खंडखाद्यक में आर्यभट के ग्रंथ का अनुकरण करना पड़ा। परंतु अब खंडखाद्यक के व्यापक प्रचार के सामने आर्यभट के ग्रंथ का पठन पाठन कम हो गया और धीरे-धीरे लुप्त हो गया।[3]
  • आर्यभट जोर देकर कहते हैं कि पृथ्वी ब्रह्माण्ड का केंद्र है और अपने अक्ष पर घूर्णन करती है। वस्तुतः आर्यभट पहले भारतीय खगोल विज्ञानी थे जिन्होंने स्थिर तारों की दैनिक आभासी गति की व्याख्या करने के लिए पृथ्वी की घूर्णी गति का विचार सामने रखा। परंतु उनके इस विचार को न तो उनके समकालीनों ने मान्यता प्रदान की न ही उनके बाद के खगोल विज्ञानियों ने। यह अनपेक्षित भी नहीं था, क्योंकि उन दिनों आम मान्यता यह थी कि पृथ्वी ब्रह्माण्ड के केंद्र में है और यह स्थिर भी रहती है।[4]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. पुस्तक- भारत: इतिहास, संस्कृति और विज्ञान |लेखक- गुणाकर मुले |प्रकाशक- राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली | पृष्ठ संख्या- 158
  2. आर्यभटीय (हिंदी) इट्स हिन्दी। अभिगमन तिथि: 18 मार्च, 2018।
  3. हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 1 |प्रकाशक: नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 440-42 |
  4. आर्यभटीय: दुनिया को गण‍ित एवं खगोल विज्ञान का पाठ पढ़ाने वाली महान कृति (हिंदी) सांईटिफिक वर्ल्ड। अभिगमन तिथि: 18 मार्च, 2018।

बाहरी कड़ियाँ

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