करमकल्ला

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करमकल्ला (अंग्रेज़ी: Cabbage) एक प्रकार का शाक है, जिसमें केवल कोमल पत्तों का बँधा हुआ संपुट होता है। इसे 'बंदगोभी' और 'पत्तागोभी' भी कहते हैं। यह 'जंगली करमकल्ला' (ब्रेसिका ओलेरेसिया)[1] से विकसित किया गया है। शाक के लिए उगाया जाने वाला करमकल्ला मूल प्रारूप से बहुत भिन्न हो गया है, यद्यपि फूल और बीज में विशेष अंतर नहीं पड़ा है। करमकल्ले को भोजन में सलाद के रूप में कच्चा भी खाया जाता है। यह गुणों से भरपूर है, इसीलिए चिकित्सक मरीज को बीमारी के बाद पत्तागोभी खाने की सलाह देते हैं। यह रक्त की वृद्धि करता है, गरमी कम करता है, पाचन में सहायक होता है। अधिकतर इसका प्रयोग सब्जी बनाने में किया जाता है।

प्राकृतिक दशाएँ

करमकल्ले के लिए पानी और ठंडे वातावरण की आवश्यकता होती है। इसको खाद भी खूब चाहिए। बीच में दो चार दिन गर्मी पड़ जाने से भी करमकल्ले का संपुट अच्छा नहीं बन पाता। संपुट बनने के बदले इसमें से शाखाएँ निकल पड़ती हैं, जिनमें फूल तथा बीज उगने लगते हैं। करमकल्ला पाला नहीं सहन कर सकता। पाले से यह मर जाता है। यद्यपि ऋतु ठंडी होनी चाहिए, तो भी करमकल्ले के पौधों को दिन में धूप मिलना आवश्यक है। छाया में इसके अच्छे पौधे नहीं उगते।[2]

खाद तथा पानी

करमकल्ले के लिए खूब खाद चाहिए होती है, परंतु किसी विशेष प्रकार की खाद की आवश्यकता नहीं है; यहाँ तक कि ताजे गोबर से भी यह काम चला लेता है, किंतु सड़ा गोबर और रासायनिक खाद इसके लिए अधिक उपयोगी है। अन्य पौधों में अधिक खाद देने से फूल अथवा फल देर में तैयार होते हैं। इसके विपरीत करमकल्ला अधिक खाद पाने पर कम समय में ही खाने योग्य हो जाता है। पानी में थोड़ी भी कमी होने से पौधा मुरझाने लगता है और उसकी वृद्धि रुक जाती है। पर इसकी जड़ में पानी लगने से पौध सड़ने लगता है। भूमि से पानी की निकासी अच्छी होनी चाहिए। जिसमें पानी जड़ों के पास एकत्र न होने पाए। भूमि दोरसी हो, अर्थात्‌ उसमें चिकनी मिट्टी की भाँति बँधने की प्रवृत्ति न हो। जो भूमि पानी मिलने के पश्चात्‌ बँधकर कड़ी हो जाती है, वह करमकल्ले के लिए उपयुक्त नहीं होती। मिट्टी कुछ बलुई हो। इतने पर भी भूमि की गुड़ाई बार-बार करनी चाहिए, परंतु गुड़ाई इतनी गहरी न की जाए, पौधे की जड़ ही कट जाए।

जातियाँ

करमकल्ले की कई जातियाँ हैं। कुछ तो लगभग तीन महीने में तैयार हो जाती हैं और कुछ के तैयार होने में छ: महीने तक का समय लग सकता है। भारत के मैदानों के लिए शीघ्र तैयार होने वाली जातियाँ ही उपयुक्त होती हैं, क्योंकि यहाँ जाड़ा अधिक दिनों तक नहीं पड़ता। आकृतियों में भी बहुत अंतर होता है। कुछ का पत्ता इतना छोटा और सिर इतना चपटा रहता है कि वे भूमि पर बिठे हुए जान पड़ते हैं। कुछ के तने 16 से 20 इंच तक लंबे होते हैं। इनका सिर गोल, अंडाकार या शंक्वाकार हो सकता है। पत्तियों का रंग पिलछाँव, हरा, धानी (गाढ़ा हरा), अथवा इतना गहरा लाल होता है कि वे काली दिखाई पड़ती हैं। भारत के मैदानों में हलके रंग के करमकल्ले ही उगाए जाते हैं। कुछ के पत्ते चिकने और कुछ के झालरदार होते हैं। अमरीका के बीज बेचने वाले पाँच सौ से अधिक जातियों के बीज बेचते हैं।[2]

पौध तैयार करना

यद्यपि कुछ स्थानों में खेत में ही बीज बो दिया जाता है और उनके उगने पर अवांछित पाधों को निकालकर फेंक दिया जाता है, तो भी सुविधा इसी में होती है कि बीजों को छिछले गमलों में बोया जाए। 10-15 दिन के बाद इनको अन्य बड़े गमलों में दो से चार इंच तक की दूरी पर रोप दिया जाता है। कुछ समय और बीतने पर इन्हें खेतों में आरोपित कर देते हैं। रद्दी बीज, पौधों को बहत पास-पास आरोपित करना, आरोपण में असावधानी, शरद ऋतु से पूर्व ही उन्हें खेतों में लगा देना अथवा खेतों में आरोपित करने में विलम्ब करना, भूमि का अनुपयुक्त होना, अथवा पानी की कमी, इन सबके कारण करमकल्लों में बहुधा अच्छा संपुट नहीं बन पाता और वे शीघ्र फूल और बीज देने लगते हैं।

रोपड़

भारत में पौधे 7-8 से लेकर 20-22 इंच तक की दूरी पर लगाए जाते हैं और गोड़ाई का काम हाथ से किया जाता है, परंतु अमरीका में पंक्तियों के बीच बहुधा 30-36 इंच तक की दूरी छोड़ दी जाती है और मशीन से गुड़ाई की जाती है। संपुट बन जाने पर भी गोड़ाई और सिंचाई करते रहना चाहिए, क्योंकि इससे संपुट का भार बढ़ता रहता है। तैयार पौधों को काटकर बाहर की कुछ पत्तियाँ तोड़कर फेंक दी जाती हैं। भारत में उन्हें खाँचे में भरकर, सिर पर उठाकर अथवा इक्कों में लादकर बाज़ार पहुँचाया जाता है, पर विदेशों में इस काम के लिए मोटर गाड़ियों का उपयोग होता है।

  • विदेश में करमकल्ले की नरम पत्तियों पर नमक छिड़ककर और कुछ समय तक उसे रखकर एक प्रकार का अचार बनाया जाता है, जिसे 'सावर क्राउट' कहते हैं।

रोग

भूमि में रहने वाला एक परजीवी 'प्लैस्मोडायोफ़ोरा ब्रैसिका'[3] करमकल्ले में रोग उत्पन्न करता है। अधिकतर यह भूमि के अम्ल में पनपता है और मिट्टी में चूना तथा राख मिलाने से नष्ट होता है, परंतु यदि पौधों में यह परजीवी लग ही जाए तो उन पौधों को जला देना चाहिए और उस भूमि में चार पाँच वर्षों तक करमकल्ला नहीं बोना चाहिए। करमकल्ले में तने के सड़ने की प्रवृत्ति एक संक्रामक रोग से उत्पन्न होती है, जो आक्रांत बीज तथा रोगग्रस्त करमकल्ला खाने वाले चौपायों के गोबर आदि में फैलता है। रोगग्रस्त पोधों को जला डालना चाहिए और अगली बार बीज बोते समय गमले की मिट्टी को फ़ॉरमैल्डिहाइड[4] के फीके विलयन से (एक भाग को 260 भाग जल में मिलाकर) कुछ समय तक तर रखना चाहिए। बीज को भी 15 मिनट तक इसी विलयन में भिगोकर रखना चाहिए। कभी-कभी करमकल्ला खाने वाले पतिंगों से फ़सल की रक्षा करनी पड़ती है। यह काम पौधों से कुछ ऊंचाई पर मसहरी तानकर किया जाता है, किंतु भारत में इसकी आवश्यकता कदाचित्‌ ही कहीं पड़ती है। तना काटने वाले कीड़ों को मारने के लिए आटे या चोकर में थोड़ा चोटा और पेरिस ग्रीन ताजे घास में मिलाकर खेत में छोड़ देना चाहिए। करमकल्ले के सिरों में घुसने वाले कीड़ों को मिट्टी के तेल, साबुन, पानी और पेरिस ग्रीन का मिश्रण छिड़ककर नष्ट किया जाता है।[2]


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शोध

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. Brassica oleracea
  2. 2.0 2.1 2.2 करमकल्ला (हिन्दी) भारतखोज। अभिगमन तिथि: 07 जून, 2014।
  3. Plasmodiphora Brassica
  4. Formaldehyde

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