मटर

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मटर

मटर भारत में सर्दियों के मौसम में उगायी जाने वाली फ़सलों में महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है। इसमें न केवल प्रोटीन तत्त्व प्रचुर मात्रा में पाये जाते हैं, अपितु इसमें विटामिन, फास्फोरस तथा लौह तत्त्व भी काफ़ी मात्रा में उपस्थित होते हैं। देश भर में मटर की खेती व्यापारिक स्तर पर की जाती है। उत्तर भारत की पहाड़ियों में मटर की गर्मी और पतझड़ ऋतु वाली फ़सलें भी उगायी जाती हैं। इसके साथ ही इन मौसमों में उगायी गई मटर का कुछ भाग अप्रैल से नवम्बर के महीनों में मैदानी इलकों में भी पाया जाता है।

भौगोलिक स्थितियाँ

मटर की फ़सल सिर्फ़ भारत की ही नहीं, बल्कि सारे विश्व की प्रमुख फ़सलों में गिनी जाती है। आज सारे विश्व में मटर की कई क़िस्में उगायी जाती हैं। मटर की फसल को उगाने के लिए निम्नलिखित भौगोलिक स्थितियों की आवश्यकता होती है।

मिट्टी

मटर की फ़सल हल्की बलुई दोमट मिट्टी से लेकर मटियार दोमट मिट्टी तक की विभिन्न प्रकार की मिट्टी में उगायी जा सकती है। हालांकि मटर के लिए उपयुक्त भूमि अच्छे जल निकास वाली दोमट मिट्टी होती है, किन्तु क्षारीय मिट्टी में इसकी पैदावार अच्छी नहीं होती। मटर के लिए सबसे उपयुक्त पी.एच. मान 6.0 से 7.5 होता है।

जलवायु

मटर के लिए ठंडी जलवायु की आवश्यकता होती है और ग्रीष्म ऋतु के दौरान भारी गर्मी पड़ने पर इसकी फ़सल अच्छी नहीं होती। यह मौसम झुर्रीदार बीज वाली क़िस्मों के लिए बिल्कुल अनुपयुक्त होता है। जब फ़सल पर्याप्त ठंडी जलवायु में पकती है, तब हरी फलियों की पैदावार अधिक होती है। इसके फूल और फलियाँ पाले से अधिक प्रभावित होते हैं। हालांकि पाले का प्रभाव पौधों की पत्तियों और तनों पर भी हो सकता है। बीज अंकुरण के लिय तापमान 5 डिग्री सेल्सियम न्यूनतम और 22 डिग्री सेल्सियम अधिकतम होना आवश्यक है।

प्रकार

मटर की निम्न क़िस्में अधिकांशत: उगायी जाती हैं-
आर्केल - यह झुर्रीदार बीज वाली क़िस्म है। इसमें पौधे बौने और हरे रंग के मज़बूत होते हैं। पौधे की उँचाई 35-45 सेमी. तक होती है। फूल सफ़ेद रंग के व फलियों का रंग आकर्षक गहरा हरा होता है। फलियाँ 8 सेमी. तक लम्बी होती हैं। इनमें 7-8 गहरे रंग के मीठे दाने भरे होते हैं। बीज जब पूरी तरह पक जाते हैं, तब हल्के हरे रंग के होते हैं। इसकी बुबाई के 55 से 60 दिन के बाद फलियों को पहली बार चुना जाता है। हरी फलियों की पैदावार प्रति हेक्टेअर 100 से 130 कुन्तल तक होती है। बीज की पैदावार 15 कुन्टल प्रति हेक्टेअर होती है।
बोनविले - यह मध्यम लम्बाई वाली, दोहरी फलियों से युक्त, झर्रीदार बीज वाली क़िस्म है। इसमें 57 से 60 दिनों में फल आ जाते हैं। फलियाँ हल्के हरे रंग की, सीधी और लगभग 9 सेंमी. तक लम्बी होती हैं। दाने मीठे और गहरे हरे रंग के होते हैं। बुबाई के 85-90 दिनों के अदंर मटर की फ़सल तैयार हो जाती है। फलियों की उपज 100 से 120 कुन्तल प्रति हैक्टेयर होती है, जबकि बीज की मात्रा 12 से 15 कुन्तल प्रति हेक्टेयर होती है।
लिंकन - इस प्रकार की क़िस्म के पौधे बौने, मज़बूत और पत्तियाँ गहरे हरे रंग की होती हैं। फलियाँ गहरे हरे रंग की लम्बी होती हैं और साथ ही सिरे पर हल्की-सी मुडी हुई होती हैं। इसकी फलियों में अच्छे दाने होते हैं। फलियों में 8 से 10 दाने होते हैं और ये मीठे होते हैं। इस प्रकार की क़िस्म पहाडी इलाकों में बोने के लिए अधिक उपयुक्त है। इसकी पहली तुड़ाई बुबाई के 85 से 90 दिनों के बाद की जाती है।

बीज की बुआई

मटर

पछेती क़िस्मों के लिए 70 से 75 किग्रा. और अगेती क़िस्मों के लिए 100 किग्रा. प्रति हेक्टेअर तक बीज की आवश्यकता होती है, किन्तु आर्केल जैसी क़िस्मों के लिए 125 किग्रा. प्रति हेक्टेअर बीज की आवश्यकता होती है। बीजों को बोते समय अगेती क़िस्मों में कतार की दूरी 30 सेंमी. और मध्य मौसमी और पछेती क़िस्मों के लिए 45 सेंमी. की दूरी रखी जाती है, जो कि बहुत आवश्यक है। अगेती क़िस्में, जैसे- आर्केल मध्य अक्टूबर से नवम्बर के प्रथम सप्ताह तक बोई जा सकती है। मध्य मौसमी क़िस्में, जैसे- बोनविले और लिंकन अक्टूबर के अंतिम सप्ताह से नवम्बर के मध्य तक बोई जा सकती है। पछेती क़िस्म नवम्बर के अंत तक बोई जाती है।

उर्वरकों का प्रयोग

फलियों के शीघ्रता से विकास एवं बढ़ने के लिए नाइट्रोजन से युक्त उर्वरक की कुछ मात्रा लाभदायक होती है। फ़ॉस्फ़ेट के प्रयोग से मटर की गुणवत्ता एवं पैदावार दोनों में लाभ होता है। उसी प्रकार पौटेशियम खादों के उपयोग से पैदावार पर अच्छा प्रभाव पड़ता है। खेती की तैयारी करते समय गोबर की खाद 20 टन प्रति हेक्टेयर और किसान खाद, सी.ए.एन. 125 किग्रा. प्रति हेक्टेयर अथवा उत्तम वीर यूरिया 60 से 65 किग्रा. प्रति हेक्टेयर की आवश्यकता होती है। इसके साथ-साथ 420 किग्रा. सुपर फ़ॉस्फ़ेट तथा 100 किग्रा. म्युरेट ऑफ़ पोटाश प्रति हेक्टेअर की दर से देना चाहिए।

सिंचाई

उचित जमाव के लिए पलेवा की सलाह दी जाती है। इसके पश्चात् शुष्क मौसम में 10 से 15 दिनों के अतंराल पर हल्की सिंचाई भी करनी चाहिए। फूल एवं फलियों की शुरुआत के समय एक या दो सिंचाई करना आवश्क है। विकसित होते हुए फलों एवं फलियों की पाले से रक्षा करने के लिए पाले मौसम में पर्याप्त सिंचाई की आवश्यकता होती है।

खरपतवार नियंत्रण

अधिकतर बगीचे वाली मटर कतारों में बोई जाती है, अतः यंत्रों की सहायता से खरपतवारों को नियंत्रित करना कठिन हो जाता है। अधिकाशं सदाबहार खरपतवारों की रोकथाम के लिए रसायनों का उपयोग किया जाता है। फ़सल की बुबाई से पहले और बाद में पौधे उगने से पहले 900 लीटर पानी में 1.5 किग्रा. प्रति हेक्टेअर की दर से लिन्यूरान छिड़कने से सभी सदाबाहर घासों एवं खरपतवारों की रोकथाम हो जाती है। इस उपचार के बाद तीन से चार सप्ताह तक सिंचाई नहीं करनी चाहिए। एम.सी.इ.; टोपोटाक्स अथवा 2-4 डी., एम्युटॉक्स 0.84 किग्रा. प्रति हेक्टेअर का छिड़काव करने से सदाबार चौड़ी पत्ती वाले खरपतवारों पर काबू पाया जा सकता है। छिड़काव धूप वाले दिन ही जब हवा न चल रही हो, किया जाना चाहिए। इस उपचार के 10-12 दिनों बाद तक फ़सल की सिंचाई नहीं करनी चाहिए।

हानिकारक कीट

कुछ कीट मटर की फ़सल को नुकसान भी पहुँचाते हैं- मटर का पत्ती बेधक, माहू कुतरने वाले कीड़े, कट वमर्सद्ध तथा मटर का फली बेधक, फ़सल को बहुत नुकसान पहुँचाते हैं। मटर की पत्तियों पर इसके लार्वा का आक्रमण होने से पत्तियों पर सफ़ेद रंग की टेढी-मेढी नालियाँ बन जाती हैं और पौधों का विकास पूरी तरह से रुक जाता है।

रोकथाम
मटर का पौधा

0.05 प्रतिशत 'मिथाइल पाराथोन' का छिड़काव करने से इस कीट की रोकथाम की जा सकती है। यदि इसका प्रकोप दुबारा दिखाई पडे तो इस उपचार को 15-20 दिन बाद दोहराना चाहिए।

माहू कीट

यह कीट पत्तियों तथा रसदार स्थानों से रस चूसता है। इसके बदले में ये चिपचिपे तरल पदार्थ का भारी मात्रा में श्राव करता हैं, जिससे काली फफूंदी आकर्षित होती है। इसके कारण प्रकाश संश्लेषण क्रिया बुरी तरह प्रभावित होती है। मटर की फ़सल पर माहू कीट का आक्रमण जनवरी के बाद होता है।

रोकथाम

माहू का प्रकोप होन पर ही 0.05 प्रतिशत मैटासिक्टाक्स का घोल छिड़कना आवश्यक है। 15-20 दिनों के बाद यदि आवश्यक हो तो दोबारा छिड़काव करना चाहिए।

फली बेधक

इल्लियाँ फलियों में छेद करके अन्दर प्रवेश कर जाती हैं तथा इसके बीजों और दानों को नष्ट कर देती हैं। फलियों पर छोटे-छोटे छिद्रों से इसके होने का पता लग जाता है। इससे फ़सल का बहुत नुकसान होता है और पैदावार भी कम होती है। इसीलिए इसकी रोकथाम आवश्यक है।

रोकथाम

फ़सल पर 0.25 प्रतिशत कार्बारिल का छिड़काव करके इस बेधक की रोकथाम की जा सकती है। इस बात का सावधानी पूर्वक ध्यान रखना चाहिए कि फलियाँ इस छिड़काव से पहले तोड़ ली जायें या फिर छिड़काव के 10 दिन बाद ही तोड़ी जायें।

रोग

मटर की फ़सल पर कई रोगों का भी हमला होता है। 'चूर्णित आसिता' और 'पाउडरी मिल्डयू' रोग में पत्तियाँ, तने की शाखाएँ तथा फलियाँ बुकनी जैसे पदार्थ से ढक जाती हैं। इसका भीषण असर उस मौसम में होता है, जबकि दिन और रात के तापमान में काफ़ी अतंर होता है। भारी ओस गिरती है। यह बीमारी पछेती पकने वाली क़िस्मों को अधिक प्रभावित करती है। इसकी रोकथाम का उपाय यह है कि जैसे ही बीमारी दिखाई पड़े, फ़सल पर प्रति हेक्टेअर 0.3 प्रतिशत वाले 3 ग्राम गंधक के फफूंदी नाशक को एक लीटर पानी में घोलकर छिड़काव कर दे और हर सात दिन बाद यह छिड़काव दोहराना चाहिए। दूसरे फफूंदीनाशक, जैसे कैराथेन, बाविस्टिन का छिड़काव भी प्रति लीटर पानी में 1 ग्राम की दर से किया जा सकता है।

'झुलसा' (विल्ट) रोग केवल जड़ों पर आक्रमण करता है। इसके प्रभाव से जड़ें से काली पड़ जाती हैं। इसके कारण पौधा तुरंत झुलस जाता है और मर जाता है। अगेती क़िस्म इससे ज्यादा प्रभावित होती है। इसके रोकथाम का उपाय है कि फ़सल को अक्टूबर के अंतिम सप्ताह में या नवम्बर में बोया जाये, क्योंकि इस समय बोई गई फ़सल साधारणत: झुलसे के आक्रमण से बच जाती हैं। सितम्बर या अक्टूबर के शुरू में बोई गई फ़सल को इस बीमारी से सबसे अधिक पहुँचता है।

उतराई

सब्जी के उद्देश्य से फलियों के उपयोग के अनुसार ही मटर को उतारा जाता है। जब फलियों का रंग गहरे हरे से हल्के हरे रंग में बदल जाये तथा वे अच्छी प्रकार दानों से भर गई हों और वे सख्त न हो, तभी उन्हें तोड़ा जाना चाहिए। फलियाँ तोड़ने के दौरान पौधे को सावधानी से पकड़ना चाहिए, जिससे इसमें और फलियाँ लग सकें। यदि फलियाँ तोड़ते समय बेलें टूट गई, तो शेष फलियाँ समुचित रूप से विकसित नहीं हो पायेंगी।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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