कुशीनगर का इतिहास

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बुद्ध मूर्ति, कुशीनगर

कुशीनगर प्राचीन भारत के तत्कालीन महाजनपदों में से एक एवं मल्ल राज्य की राजधानी था।[1] यह नगर 26°45’ उत्तरी अक्षांश और 83°55’ पूर्वी देशांतर के बीच स्थित था। वर्तमान समय में यह गोरखपुर से 32 मील (लगभग 51.2 कि.मी.) पूर्व, देवरिया से 21 मील (लगभग 33.6 कि.मी.) उत्तर और पडरौना से 13 मील (लगभग 20.8 कि.मी.) दक्षिण-पश्चिम में स्थित है।

विद्वान् विचार

कनिंघम ने कुशीनगर को वर्तमान देवरिया ज़िले में स्थित 'कसिया' से समीकृत किया है।[2] अपने समीकरण की पुष्टि में उन्होंने 'परिनिर्वाण मंदिर' के पीछे स्थित स्तूप में मिले ताम्रपत्र का उल्लेख किया है। जिस पर 'परिनिर्वाणचैत्य ताम्रपत्र इति' उल्लिखित है।[3] कनिंघम के इस समीकरण से विंसेंट स्मिथ[4] और पार्जिटर प्रभृति विद्वान् सहमत नहीं हैं। उनके अनुसार कसिया के अवशेषों एवं चीनी यात्री ह्वेनसांग के यात्रा विवरणों में पर्याप्त भिन्नता है। इस भिन्नता को ध्यान में रखते हुए स्मिथ ने कुशीनगर को नेपाल में पहाड़ियों की पहली श्रृंखला के पार स्थित होने के मत को उचित माना है।[5] रीज डेविड्स के अनुसार यदि हम चीनी यात्रियों के यात्रा विवरणों पर विश्वास करें तो कुशीनगर के मल्लों का प्रदेश, शाक्य प्रदेश के पूर्व में पहाड़ी ढाल पर स्थित होना चाहिए। कुछ अन्य विद्वान् उनका प्रदेश शाक्यों के दक्षिण में एवं वज्जिगण के पूर्व में स्थित बतलाते हैं।[6] लेकिन बाद के (1906-1907) पुरातात्विक उत्खनन से प्राप्त सामग्रियों के आधार पर कनिंघम की समीक्षा को उचित मानते हुए 'कसिया' और 'कुशीनगर' को एक ही मानना उचित होगा।

कनिंघम को इन भग्नावशेषों से ‘महापरिनिर्वाण विहार’ नामांकित अनेक मृण्मुद्राएँ और स्तूप के भीतर से कुछ ताम्रपत्र भी मिले हैं। इनके अतिरिक्त इन खंडहरों से महात्मा बुद्ध की वैसी ही विशाल मूर्ति प्राप्त हुई है, जैसी कि ह्वेनसांग ने कुशीनगर में देखी थी। 'तथागत' की निर्वाण मूर्ति बौद्ध शिल्पियों का प्रिय विषय रही है, परंतु कसिया जैसी पत्थर की विशाल प्रतिमा अन्यत्र नहीं मिलती। ये विभिन्न तथ्य भी कनिंघम के समीकरण के औचित्य की पुष्टि करते हैं।

वैदिक साहित्य में उल्लेख

वैदिक साहित्य में मल्लों अथवा उनकी राजधानी का कोई उल्लेख नहीं मिलता है, परंतु परवर्ती साहित्य में उनका वर्णन अनेक ग्रंथों में मिलता है। महाभारत के भीष्मपर्व[7] में यह मल्ल राष्ट्र के रूप में वर्णित है, जो अंग, वंग और कलिंग के समान ही पूर्वी भारत में एक प्रमुख राज्य था। बुद्ध-पूर्व युग में वहाँ महासम्मत वंश का राज्य था। इस कुल में इक्ष्वांकु (ओवकाक), कुश तथा महासुदस्सन प्रमुख शासक हुए थे।[8] उनके समय में यह नगर 'कुशावती' नाम से विख्यात था। इसका विस्तार 144 वर्ग कि.मी. क्षेत्रफल में था। बुद्ध मेतय के शासन काल में इसे 'केतुमती' नाम से जाना जाता था।[9]

गौतम बुद्ध के पूर्व मल्ल राजतंत्रात्मक राज्य था। वह कब और कैसे गणराज्यों में परिवर्तित हो गया यह कहना कठिन है? किंतु बुद्ध के काल में उसकी स्थिति निश्चित रूप से एक स्वतंत्र गणराज्य की थी। मल्लों के संस्थागार का उल्लेख अनेक स्थलों पर हुआ है जहाँ एकत्र होकर वे विचार-विमर्श करते थे। बुद्ध काल में मल्लों की राजधानी कुशीनगर एक महत्त्वपूर्ण नगर के रूप में प्रसिद्धि प्राप्त कर चुकी थी।

बौद्ध साहित्य में वर्णन

बौद्ध भिक्षु ध्यान स्थली, कुशीनगर

बौद्ध साहित्य में कुशीनगर का विशद वर्णन मिलता है। इसमें कुशीनगर के साथ 'कुशीनारा'[10], कुशीनगरी[11] और कुशीग्राम[12] प्रभृति अन्य नामों का भी उल्लेख है। बुद्ध-पूर्व युग में यह कुशावती के नाम से विख्यात थी। बुद्ध ने कुशीनगर को प्राचीन कुशावती से अभिहित किया था। विस्तार और समृद्धि की दृष्टि से उनका कहना था कि यह राजधानी पूर्व से पश्चिम 12 योजन लंबी एवं उत्तर से दक्षिण 7 योजन चौड़ी थी।[13] इसमें सात प्राकार, चार तोरण और खजूर वृक्षों के सात निकुंज थे।[14] यह नगर हिरण्यवती नदी के पश्चिमी तट के समीप एक प्रमुख स्थलमार्ग पर स्थित था।[15] इसी स्थल-मार्ग से बावरी ऋषि के शिष्यों के जाने का उल्लेख है।[16] बुद्ध की मृत्यु के समय महाकश्यप भी राजगृह से कुशीनगर इसी मार्ग से गए थे।[17]

नगर की स्थिति

इस नगर की स्थिति, रक्षा एवं व्यापार की दृष्टि से सर्वथा अनुकूल थी। नगर के समीप ही उपवत्तन नामक शालवन था, जिसके एक भाग को मल्लों ने प्रमोद उद्यान में परिणत कर दिया था। यह हिरण्यवती के दूसरे किनारे पर स्थित था।[18] इस उपवत्तन शालवन में ही भगवान ने अंतिम निवास किया था। और यहीं युगल साल वृक्षों के नीचे उनका महापरिनिर्वाण हुआ था। उपवत्तन शालवन को कनिंघम ने वर्तमान कसिया के ‘माथा कुँवर कोट’ से समीकृत किया है।[19]

बौद्ध ग्रंथों में कुशीनगर एवं अन्य प्रमुख नगरों के बीच की दूरी उल्लिखित है, जो इस नगर की स्थिति निश्चित करने में सहायक है। कुशीनगर से पावा कि दूरी तीन गव्यूत[20] बुद्ध ने अपनी अंतिम यात्रा में इसी रास्ते से ककुक्षा नदी को पार किया था।[21] राजगृह से इस नगर की दूरी 25 योजन[22] एवं 'सागल' (स्यालकोट) से 100 योजन थी।[23] ह्वेनसांग कुशीनगर से 700 मील चलकर वाराणसी पहुँचा था।[24]

समृद्धिशाली नगर

कुशीनगर बहुत समृद्धिशाली नगर था। स्वयं गौतम बुद्ध ने इसकी प्रशंसा की है। 'बुद्धघोष' ने उन विशिष्ट कारणों का उल्लेख किया है, जिनसे प्रेरित होकर बुद्ध ने कुशीनगर को परिनिर्वाणार्थ चुना था-

  1. ‘महासुदस्सन’ सुतांत का उपदेश वहीं किया गया था।
  2. सुभद्र की प्रवज्या वहीं संभव थी।
  3. अस्थि विभाजन की समस्या हल करने वाला व्यक्ति वहाँ उपस्थित था।[25] दिग्विजयी चक्रवर्ती सम्राट महासुदर्शन[26] के राज्यकाल में 'कुशावती' (कुशीनगर) 84000 नगरियों में प्रमुख थी।[27] यह समृद्ध, रमणीय, जनाकीर्ण एवं धन्य-धान्य संपन्न थी। यह देवताओं की राजधानी 'अलकमंदा' की भाँति दिन-रात दस शब्दों से गुंजायमान रहती थी।[28] लेकिन यहाँ यह उल्लेखनीय है कि बुद्ध के काल में यह नगर राजगृह, वैशाली और श्रावस्ती की तरह प्रथमकोटि का नगर नहीं था।[29] अत: यह कहा जा सकता है कि इस नगर का क्रमश: ह्रास हुआ था।

बुद्ध की क्रीड़ास्थली

बुद्ध का कुशीनगर से विशेष लगाव था। पूर्वजन्मों में भी यह नगरी उनकी क्रीड़ास्थली रह चुकी थी। एक उल्लेख के अनुसार वे सात बार चक्रवर्ती सम्राट बनकर कुशीनगर में राज्य कर चुके थे।[30] अंतिम बार जब बुद्ध यहाँ आए तो मल्लों ने उनका स्वागत किया। स्वागत-सत्कार में सम्मिलित न होने वाले व्यक्तियों के लिए 500 मुद्रा दंड का प्रावधान था। इस प्रकार कुशीनगर बुद्ध की शिक्षाओं से पूर्णरूपेण प्रभावित हुआ और वहाँ के अनेक संभ्रांत व्यक्ति उनके समर्थक बने। अत: ऐसे अनेक उद्धरणों से यह स्पष्ट है कि बौद्ध धर्म का स्वयं बुद्ध के समय में ही बहुविध विकास हो चुका था। और अनेक संभ्रांत व्यक्तियों ने इस धर्म की सदस्यता स्वीकार की थी।

परिनिर्वाण स्थल

निर्वाण मन्दिर, कुशीनगर

ज्ञातव्य है कि कुशीनगर में ही बुद्ध ने परिनिर्वाण प्राप्त किया था। वहाँ के मल्लों ने भगवान के अंतिम संस्कार का समुचित प्रबंध किया था। 6 दिनों तक वे लोग उनके निष्प्राण शरीर का नृत्य, गीत, वाद्य एवं गंद्य पुष्पादि से सत्कार करते रहे। सातवें दिन वे उसे 'मुकुट बंधन चैत्य' ले गए।[31] शालवन से चलकर वे नगर में उत्तर द्वार से प्रविष्ट हुए और पूर्व द्वार से निकलकर चैत्य स्थान पर पहुँचे। वहीं पर चक्रवर्ती राजोचित विधान के अनुसार दाह-संस्कार किया गया।[32] 'मुकुट बंधन चैत्य' को वर्तमान रामाभार तालाब के पश्चिमी तट पर स्थित एक विशाल स्तूप के खंडहर से समीकृत किया जा सकता है, जो माथा कुँबर के कोट से लगभग एक मील की दूरी पर स्थित है।[33]

दाह-संस्कार के पश्चात् अस्थि-विभाजन के संदर्भ में विवाद उत्पन्न हो गया। इस अवसर पर उपस्थित लोगों में वैशाली के लिच्छवी, कपिलवस्तु के शाक्य, अल्लकप के बुली, रामग्राम के कोलिय, पावा के मल्ल, मगधराज अजातशत्रु तथा वेठ-द्वीप (विष्णुद्वीप) के ब्राह्मण मुख्य थे।[34] कुशीनगर के मल्लों ने विभाजन का विरोध किया। प्रतिद्वंद्वी राज्यों की सेनाओं ने उनके नगर को घेर लिया। युद्ध प्राय: निश्चित था, किन्तु द्रोण ब्राह्मण के आ जाने से अस्थि अवशेषों का आठ भागों में विभाजन संभव हुआ।[35] विभिन्न राज्यों के प्रतिनिधि अस्थि अवशेषों को अपनी राजधानियों में ले गए और वहाँ नवर्निमित स्तूपों में उन्हें स्थापित किया गया। साँची के तोरण पर उत्कीर्ण चित्र इस घटना के ज्वलंत उदाहरण है।[36] इसके अतिरिक्त तोरण के मध्य भाग में नीचे की ओर नगर के परिखा तथा प्राकार का भी अंकन मिलता। प्राकार के भीतर नगर के कुछ विशिष्ट भवन भी दृष्टिगोचर होते हैं।[37]

कुशीनगर के मल्लों का अपना संथागार था, जहाँ पर राजनीतिक तथा धार्मिक विषयों पर विवाद होते थे। आनंद जिस समय तथागत की मृत्यु का समाचार लेकर कुशीनगर गए, उस समय मल्ल अपनी राज्य सभा में थे। तत्पश्चात् उन्होंने अपने संथागार में ही तथागत के अंतिम संस्कार के प्रारूप पर विचार-विमर्श किया था। दीघनिकाय में महापरिनिब्बान सुतांत में कुशीनारा के मल्लों में 'पुरिष' नामक एक अधिकारी वर्ग का उल्लेख मिलता है जो रीज डेविड्स के मतानुसार अधीनस्थ कर्मचारियों का एक वर्ग था।[38]

इन्हें भी देखें: परिनिर्वाण मन्दिर कुशीनगर एवं प्राचीन कुशीनगर के पुरावशेष

चीनी यात्रियों का विवरण

पाँचवीं शताब्दी ई. में जब फाह्यान ने भारत का भ्रमण किया तो कुशीनगर को उपेक्षित एवं निर्जन पाया। केवल कुछ स्थानों पर स्तूप और संघाराम बने हुए थे। सातवीं शताब्दी में जब ह्वेनसांग भारत आया तो उस समय भी यह स्थान निर्जन था। उसने यहाँ मात्र कुछ संघाराम देखे थे। इस संबंध में चीनी यात्रियों का विवरण निम्नलिखित है-

फाह्यान का उल्लेख

चीनी यात्री फाह्यान 399-414 ई. के बीच कुशीनगर आया था। उसने कुशीनगर को पिप्पलिवन के अंगार स्तूप के पूर्व में 12 योजन और वैशाली से 12 योजन की दूरी पर स्थित बतलाया।[39] उसने संपूर्ण जनपद को निर्जन एवं उजाड़ पाया था। फाह्यान ने नगर के उत्तर निरंजना नदी के किनारे शालवन में दो वृक्षों के बीच बुद्ध के परिनिर्वाण प्राप्त करने के स्थान का उल्लेख किया है।[40] शालवन के विहार में उस समय भी कुछ भिक्षु निवास करते थे। फाह्यान लिखता है कि परिनिर्वाण स्तूप के अतिरिक्त वहाँ चार अन्य स्तूप थे, जो क्रमश: निम्नलिखित चार स्थानों पर बने थे-

  1. जहाँ सुभद्र[41] ने अर्हतत्त्व को प्राप्त किया था।
  2. जहाँ वज्रपाणि यक्ष की गदा गिरी थी।
  3. जहाँ मल्लों ने बुद्ध के निष्प्राण शरीर का सप्ताहपर्यंत पूजन किया था।
  4. जहाँ बुद्ध के अस्थि अवशेषों को विभाजित किया गया था।

फाह्यान के भारत आगमन के समय यहाँ गुप्तों का साम्राज्य था। उस समय भारतवर्त कला और संस्कृति के क्षेत्र में अपनी पराकाष्ठा पर था। कुमारगुप्त के शासन काल में हरिबल स्वामी ने कसिया के सुविख्यात परिनिर्वाण मंदिर के निकटवर्ती स्तूप का जीर्णोद्धार किया। फाह्यान यहाँ से 12 योजन चलकर उस स्थान पर पहुँचा था, जहाँ बुद्ध ने लिच्छवियों को वापस भेजा था, क्योंकि वे लोग उनके साथ परिनिर्वाण स्थल तक जाना चाहते थे। यही एक पत्थर की लाट (स्तंभ) थी, जिस पर उनके परिनिर्वाण की घटना का अंकन था।[42]

ह्वेनसांग का विवरण

चीनी यात्री ह्वेनसांग

सातवीं शताब्दी में जब ह्वेनसांग कुशीनगर आया तो उस समय इस स्थान की स्थिति अच्छी नहीं थी। यह नगर 10 ली की परिधि में फैला मात्र खंडहर सदृश्य रह गया था।[43]यहाँ की जनसंख्या अत्यल्प थी। नगर के उत्तर पश्चिम चुंड[44] के निवास-स्थान पर अशोक द्वारा बनवाया गया एक स्तूप था।

नगर के उत्तर-पश्चिम तीन-चार ली की दूरी पर स्थित 'अजितवती'[45] नदी के पश्चिमी किनारे पर ह्वेनसांग ने सालवन का उल्लेख किया है। इस सालवन में विभिन्न घटनाओं के स्मारकस्वरूप अनेक स्तूप बने हुए थे। इनमें से दो का संबंध बुद्ध के पूर्व जन्म की कथाओं से था। वहाँ पर ईंटों से निर्मित एक बड़ा चैत्य था, जिसमें एक मूर्ति रखी थी। इसमें बुद्ध परिनिर्वाण को प्राप्त तथा उत्तर की ओर सिर किए हुए लेटी अवस्था में दिखाए गए थे। इस चैत्य के समीप अशोक द्वारा निर्मित 200 फुट ऊँचा एक भग्न स्तूप था। स्तूप के सामने मौर्यकालीन प्रस्तर-स्तंभ था, जिस पर परिनिर्वाण का वृत्तांत उत्कीर्ण था।[46]

अन्य स्तूपों में सुभद्र के मरण-स्थल से संबद्ध स्तूप का उल्लेख किया जा सकता है, जो विहार से पश्चिम की ओर स्थित था। वह ब्राह्मण मतावलंबी था। सुभद्र ने एक सौ बीस वर्ष की अवस्था में गौतम बुद्ध से दीक्षा ली थी।[47] इन स्तूपों के अतिरिक्त वज्रपाणि यक्ष के गदापतन, देवताओं द्वारा तथागत के शरीर पूजन एवं माया देवी के विलाप आदि घटनाओं से संबंद्ध स्थानों पर भी स्तूप निर्मित थे।[48] नगर के उत्तर हिरण्यवती (अजितवती) नदी के दूसरे तट से 300 पग दूर एक स्थल पर बुद्ध के दाह संस्कार का उल्लेख है।[49] इस स्थल पर भी एक स्तूप था जिसकी मिट्टी मानी जाती थी। स्थल पर निर्मित एक ऐसे स्तूप का भी ह्वेनसांग ने उल्लेख किया है, जो महाकाव्य द्वारा बुद्ध की पादवंदना से संबद्ध था। एक दूसरे स्तूप को अशोक ने बनवाया था। वह उस स्थान पर था, जहाँ बुद्ध की अस्थियों क बँटवारा आठ नरेशों के बीच हुआ था। उसके सामने एक स्तंभ था, जिस पर उपर्युक्त घटना का वृत्तांत उत्कीर्ण था।[50] यद्यपि ह्वेनसांग ने यहाँ के विहारों के भिक्षुओं की संख्या का उल्लेख नहीं किया है, परन्तु उसके वर्णन से तत्कालीन विहारों के और उनमें सन्निहित तत्त्वों का पूर्ण परिचय प्राप्त होता है।

इंत्सिग का उल्लेख

सातवीं शताब्दी के अंत में इत्सिंग नामक एक अन्य चीनी यात्री भी कुशीनगर आया था। उसके समय में कुशीनगर की स्थिति अच्छी थी। संभवत: उसे महाराज हर्ष का सुफल संरक्षण था। इत्सिंग ने लिखा है कि 'शालवन' तथा 'मुकुट बंधन' प्रसिद्ध चैत्य थे, जहाँ शरद तथा वसंत ऋतु में दूर-दूर से श्रद्धालु आया करते थे। उस समय विहार में रहने वाले भिक्षुओं की संख्या सौ थी। वहाँ के भिक्षुओं के पास पर्याप्त साधन थे, अत: यात्रियों के स्वागत-सत्कार में उन्हें कठिनाई नहीं होती थी। एक बार अकस्मात् वहाँ 500 भिक्षुओं का समूह (जत्था) आ पहुँचा, जिनका स्थानीय विहार में भोजन आदि से स्वागत-सत्कार किया गया। इत्सिंग ने समय की गणना के लिए प्रयुक्त एक ऐसे विशिष्ट विधान का उल्लेख किया है, जिसका इन विहारों में प्रयोग किया जाता था।[51]

पुरातात्विक शोध का इतिहास

कुशीनगर के संदर्भ में प्राप्त साहित्यिक स्रोतों की पुष्टि प्राय: पुरातात्विक साक्ष्यों से भी होती है। कसिया के अवशेषों को सर्वप्रथम प्रकाश में लाने का श्रेय बुकानन[52] और लिस्टन[53] को है। कुशीनगर को कसिया से समीकृत करते हुए भी ये विद्वान् इस स्थल के ऐतिहासिक महत्त्व से अवगत न थे। 1854 ई. में एच.एच. विल्सन ने भी कसिया को कुशीनगर से समीकृत किया।[54] परंतु कुशीनगर की ओर इतिहास प्रेमियों का ध्यान कनिंघम द्वारा 1860-1861 ई. में इस क्षेत्र की खुदाई के बाद ही आकृष्ट हुआ। उत्खनन के परिणामों के आधार पर कनिंघम ने आधुनिक ‘कसिया’ को कुशीनगर से समीकृत किया।[55] कनिंघम के उत्खनन के समय यहाँ पर माया कुँवर का कोट एवं रामाभार नामक दो बड़े तथा कुछ अन्य छोटे टीले मात्र अवशिष्ट थे। यह समस्त भू-भाग वनाच्छादित एवं दुर्गम्य था। निकटवर्ती ग्रामों के निवासी इन टीलों की ईंटें निकाला करते थे, जिससे प्राचीन स्मारकों का दुरुपयोग हो रहा था। मुकुट बंधन चैत्य के ऊपर रामाभार भवानी की मठिया और एक अन्य स्तूप के ऊपर किसी नट की समाधि बन चुकी थी।[56]

कनिंघम के पश्चात् उनके सहायक अधिकारी कार्लाइल ने 1875 से 1877 ई. तक कसिया में महत्त्वपूर्ण सर्वेक्षण किया और कई टीलों की खुदाई करवाई। कसिया के सुप्रसिद्ध परिनिर्वाण प्रतिमा मंदिर एवं निकटस्थ स्तूप के अनुसंधान का श्रेय कार्लाइल को ही प्राप्त है।[57] सन् 1896 ई. में प्रांतीय सरकार की ओर से विंसेंट स्मिथ ने कसिया का सर्वेंक्षण किया।[58] पुन: पुरातत्व विभाग द्वारा फोगेल के निर्देशन में 1904 से 1907 ई. तक तथा हीरानंद शास्त्री की देख-रेख में 1910-1912 तक उत्खनन किया गया। इसके परिणामस्वरूप बहुत-से स्तूप, चैत्य तथा विहार प्रकाश में आये। ये स्मारक एक-दूसरे के सान्निध्य में ही नहीं थे, अपितु इनका निर्माण विभिन्न चरणों में हुआ था। तिथि तथा संवतयुक्त अभिलेखों के अभाव में इन स्मारकों का तिथि-निर्धारण दुष्कर है। यद्यपि इन स्मारकों में प्रयुक्त ईंटों की नाप से तिथि-निर्धारण किया जा सकता है, परंतु स्मारकों के परवर्ती निर्माताओं द्वारा पूर्वकालीन ईंटों के तिथि-निर्धारण के संदर्भ में इनकी माप का प्रयोग सर्वथा निरापद नहीं कहा जा सकता।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अंगुत्तरनिकाय, भाग 1, पृ. 213 तत्रैव, भाग 4 पृ. 252 महावस्तु, भाग 1 पृ. 34
  2. ए. कनिंघम, दि ऐंश्येंट ज्योग्राफी आफ् इंडिया, पृ. 363
  3. आर्कियोलाजिकल् सर्वे आफ् इंडिया, वार्षिक रिपोर्ट, 1911-12, पृ. 17
  4. विस्तृत, जर्नल् आफ़ दि रायल एशियाटिक सोसायटी (1902), पृ. 139 और आगे स्मिथ अर्ली हिस्ट्री आफ़ इंडिया (चतुर्थ संस्करण), पृ. 167, पादटिप्पणी-5 (स्मिथ का यह मत सर्वमान्य नहीं है, क्योंकि ह्वेनसांग के विवरणों के आधार पर कुछ निश्चित करना संभव नहीं है। ह्वेनसांग के आगमन के पश्चात् भी इस स्थान पर निरंतर परिवर्तन होते रहे। रोचक है, सारनाथ में भी, जिसकी स्थिति संदिग्ध नहीं है, ऐसी ही विषमता पाई जाती है।
  5. जर्नल आफ़ दि रायल एशियाटिक सोसायटी, 1913, पृ. 152 तु., विमल चरण लाहा, प्राचीन भारत का ऐतिहासिक भूगोल, पृ. 171
  6. रीज डेविड्स बुद्धिस्ट इंडिया, वाराणसी, इंडोलाजिकल बुक हाउस (1979) पुनर्मुद्रित, पृ. 26
  7. महाभारत, भीष्मपर्व, 10/45
  8. महावंश, भाग दो, पृ. 1-6 जातक (फाउसबाल संस्करण), भाग दो, पृ. 65 दीर्घनिकाय, भाग 2, (हिंदी अनुवाद राहुल सांकृत्यायन एवं जगदीश काश्यप, महाबोधि सभा, सारनाथ 1935), पृ. 152
  9. जी.पी. मललसेकर, डिक्शनरी आफ पालि प्रापर नेम्स, भाग 1, (लंदन, पालि टेक्ट्स सोसाइटी 1974, पुनर्मुद्रित), पृ. 563
  10. दीघनिकाय, भाग दो, पृ. 109; दीपवंस, भाग 3, पृ. 32
  11. दिव्यावदान, पृ. 152, 153, 194
  12. तत्रैव, पृ. 108
  13. द्रष्टव्य, दीघनिकाय, (हिंदी अनुवाद, राहुल सांस्कृत्यायन एवं जगदीश काश्यप, महाबोधि सभा, सारनाथ (वाराणसी, 1935 ई.) भाग दो, पृ. 146-152 :अयं कुशीनारा, कुशावती नाम राजधानी अहोसि...)
  14. दीघनिकाय, भाग दो, पृ. 170-171
  15. इस नदी को अधिकांश विद्वानों ने छोटी गंडक से समीकृत किया है; (देखें, कनिंघम, ऐंश्येंट ज्योग्राफी आफ़ इंडिया, पृ. 364) भिक्षु धर्मरक्षित के मतानुसार कसिया के समीप बहने वाली 'कुसमीनारा' तथा हिरवा की नारी उसी के अवशेष हैं। द्रष्टव्य भिक्षु धर्मरक्षित, कुशीनगर का इतिहास, पृ. 32
  16. सुत्तनिपात, 5, 10, 12
  17. विनयपिटक, भाग दो, पृ. 284
  18. सारत्थप्पकासिनी, जिल्द पहली, पृ. 222; तुलनीय, भरत सिंह उपाध्याय, बुद्धकालीन भारतीय भूगोल (प्रथम संस्करण), पृ. 320
  19. आर्कियोलाजिकल सर्वे आफ इंडिया, वार्षिक रिपोर्ट, 1861-62, पृ. 77-38; तुल., ऐंश्येंट ज्योग्राफी आफ इंडिया पृ. 364
  20. लगभग ¾ योजन, आधुनिक 6 मील थी।, सुमंगल विलासिनी, भाग दो, पृ. 573 (पावानगरतो तोणि गावुतानि कुसीनारा नगर)
  21. भरत सिंह उपाध्याय, बुद्धकालीन भारतीय भूगोल, (प्रथम संस्करण), पृ. 318
  22. ‘कुसीनारातों याव राजगहं पंचसीवति योजनानि’ -सुमंगल विलासिनी, भाग दो, पृ. 609
  23. ‘एकाहेनेव योजनासतिकं मग्गं खेपेत्व...सावलनगरं पाविसि’ जातक, खंड 5, पृ. 290 (फाउसबाल संस्करण)
  24. थामस् वाटर्स, आन् युवान् च्वांग्स ट्रेवेल्स् इन इंडिया, भाग दो, पृ. 46
  25. सुमंगलविलासिनी, भाग दो, पृ. 573
  26. भगवान बुद्ध का पूर्व जन्म में यह एक नाम था।
  27. ‘चतुरासोति नगरसहसानि पमुखानि’, दीघनिकाय का यह वर्णन अतिरंजित है। दीघनिकाय, (हिंदी अनुवाद- राहुल सांकृत्यायन एवं जगदीश काश्यप, महाबोधि सभा, सारनाथ, 1935 ई.) भाग दो, पृ. 159 । जबकि 'संयुक्तनिकाय' में इसे 84 नगरों में एक बतलाया गया है। द्रष्टव्य-संयुक्तनिकाय, भाग 3, पु. 144; तुलनीय-डिक्शनरी आफ पालि प्रापर नेम्स, भाग 1 पृ. 663
  28. ये शब्द नगर की समृद्धि एवं वैभव के सूचक थे जो थे- ‘हत्थिसद्द, अस्ससद्द, भेरिसद्द, मुतिंगसद्द, गीत (संख), सद्द, सम्मसद्द, तात्वसद्द, तथा अस्नाथपिवस्थस्वाद थातसभनेन सद्द’, द्रष्टव्य- दीघनिकाय, भाग दो, पृ. 147
  29. उल्लेखनीय है इसी कारण आनंद ने बुद्ध को चंपा, राजगृह, श्रावस्ती, साकेत, कोशांबी, और वाराणसी आदि नगरों को परिनिर्वाण योग्य बताया था। द्रष्टव्य-दीघनिकाय, भाग 2, पृ. 152
  30. दीघनिकाय, भाग दो, पृ. 198 (पालि ग्रंथों में केवल दो पूर्व जन्मों का वृत्तांत मिलता है। एक जन्म में वे महाराजा 'कुश' थे और दूसरे जन्म में चक्रवर्ती सम्राट 'महासुदर्शन'। इनकी कथा अन्य ग्रंथों के अतिरिक्त कुश और महासुदस्सन जातकों में भी वर्णित है)
  31. यह चैत्य 'मुकुट बंधन' इसलिए कहलाता था कि यहाँ मल्ल राजाओं का अभिषेक किया जाता था और उनके सिर पर मुकुट बाँधा जाता था।
  32. ह्वेनसांग ने भ्रमवश दाह-चैत्य को नगर से उत्तर की ओर बताया है। दाह-संस्कार की विधि स्वयं बुद्ध ने आनंद को बताई थी। वही विधान आनंद ने मल्लों को बताया। देखें, दीघनिकाय, भाग दो।
  33. भरत सिंह उपाध्याय, बुद्धकालीन भारतीय भूगोल (प्रथम संस्करण), पृ. 321
  34. उल्लेखनीय है उत्खनन से वेठ द्वीप विहार की एक मुहर मिली है जिस पर लेख ‘श्री विष्णु द्वीप विहार भिक्षु-संघस्य’ अंकित है। द्रष्टव्य- आर्कियोलाजिकल सर्वे आफ इंडिया, वार्षिक रिपोर्ट, 1906-7, पृ. 61
  35. जी.पी. मललसेकर, डिक्शनरी आफ पालि प्रापर नेम्स (पालि टेक्ट्स सोसायटी 1974, पुनर्मुद्रित), भाग 1, पृ. 654; दीघनिकाय, भाग 2, पृ. 150
  36. मार्शल, ए गाइड टू साँची, पृ. 53-54 और प्लेट संख्या 4
  37. उदयनारायण राय, प्राचीन भारत में नगर तथा नगर जीवन, पृ. 362
  38. टी.डब्ल्यू. रीज डेविड्स, बुद्धिस्ट इंडिया (इंडोलाजिकल बुक हाउस, वाराणसी, पुनर्मुद्रित, 1979), पृ. 21
  39. गाइल्स, ट्रेवेल्स आफ फाह्यान, पृ. 41
  40. ह्वेनसांग द्वारा वर्णित यह हिरण्यवती नदी ही थी, जो नगर के दक्षिण में बहती थी। जेम्स लेग्गे, दि ट्रैवेल्स आफ फाह्यान (दिल्ली, 1972), पृ. 70, पाद-टिप्पणी।
  41. यह बनारस का एक ब्राह्मण था, जो बुद्ध से शिक्षा ग्रहण करने के लिए यहाँ आया हुआ था। देखें, दीघनिकाय, भाग 2, पृ. 144
  42. जेम्स लेग्गे, दि ट्रैवेल्स आफ फाह्यान (दिल्ली ओरियंटल पब्लिशर्स, 1972, पुनर्मुद्रित), पृ. 82
  43. वाटर्स, आन यान च्वाँग्स ट्रैवेल्स इन इंडिया, भाग दो पृ. 134
  44. इस चुंड को दीघनिकाय में पावा का निवासी बतलाया गया है। फाह्यान ने भी इस स्तूप का उल्लेख नहीं किया है। देखें, दीघनिकाय, भाग दो, पृ. 135-136
  45. ऐसी संभावना है कि ह्वेनसांग के समय हिरण्यवती नदी को अजितवती (जो कभी जीती न जा सके) नाम से जानते थे।
  46. तत्रैव, भाग दो, पृ. 28
  47. तत्रैव, पृ. 30
  48. वाटर्स, आन युवान च्वाँग्स ट्रैवेल्स इन इंडिया, भाग 2, पृ. 39; माया देवी के स्वर्ग से उतरकर अपने मृत पुत्र के लिए विलाप करने की कथा अनेक बौद्ध ग्रंथों में पाई जाती है, परंतु दीघनिकाय में इसका उल्लेख नहीं मिलता।
  49. सेमुअल बील, बुद्धिस्ट रिकार्डस् आफ दि वेस्टर्न वर्ल्ड, भाग 3 (कलकत्ता, 1958), पृ. 287। दीघनिकाय के अनुसार यह स्थान नगर से पूर्व में था। भाग, 2 पृ. 141
  50. पूर्वोल्लिखित, आन युवान च्वाँग्स ट्रैवेल्स इन इंडिया, भाग दो, पृ. 42
  51. जे. तकाकुसू, ए रेकार्ड आफ दि बुद्धिस्ट रिलिजन (लंदन, आक्सफोर्ड, 1896), पृ0 29-30, 38-39 और 145
  52. ईस्टर्न इंडिया, भाग दो, पृ. 357
  53. ज. ए. सी. बं., 1837, पृ. 417
  54. ज. रा.ए. सो., 1856, पृ. 246, यहाँ इसका नाम ‘कुसिया’ दिया गया है।
  55. आ.स.रि., अंक 1, पृ. 76-85
  56. नलिनाथ दत्त और कृष्णदत्त बाजपेयी, डेवलपमेंट आफ बुद्धिज्म इन उत्तर प्रदेश (पब्लिकेशन ब्यूरो, लखनऊ, 1956), प्रथम संस्करण, पृ. 357
  57. आर्कियोलाजिकल सर्वे आफ इंडिया (वार्षिक रिपोर्ट), अंक 18, कलकत्ता, 1883, पृ. 62 और आगे; अंक 22 (कलकत्ता, 1885), पृ. 16 और आगे।
  58. ज.रा.ए.सो, 1902, पृ. 139
  • ऐतिहासिक स्थानावली | विजयेन्द्र कुमार माथुर | वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग | मानव संसाधन विकास मंत्रालय, भारत सरकार

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