ख़राज
ख़राज एक विशेष इस्लामी वित्तीय कर था, जो 7वीं व 8वीं शताब्दियों में इस्लाम कुबूल करने वाले नये लोगों से लिया जाता था। ख़राज शब्द का प्रयोग भारत के इतिहास में सल्तनत काल के दौरान अधिक होता था। ख़राज का अर्थ होता था:
ग़ैर मुसलमानों पर लगाया जाने वाला भू-राजस्व
ख़राज की अवधारणा
ख़राज की अवधारणा का उदय नवविजित इस्लामी क्षेत्रों में ग़ैर मुसलमानों और इस्लाम में नवधर्मातरित लोगों के दर्जे में परिवर्तन से जुड़ा है। इन क्षेत्रों के मूल यहूदी, ईसाई अथवा पारसी जनसमुदायों को इस्लाम में धर्मातरित होने अथवा अपनी पुरानी धार्मिक मान्यताओं पर क़ायम रहने की छूट थी। उन लोगों के लिए, जो धर्मातरण पसंद नहीं करते थे, एक विशेष शुल्क देना आवश्यक था, बहुधा प्रति व्यक्ति कर के रूप में, जिसे जज़िया कहा जाता था, किंतु जो धर्म परिवर्तन करना चुनते थे, उन्हें सैद्धांतिक रूप से वित्तीय मामलें में अन्य मुसलमानों की बराबरी पर रखा जा सकता था। इस्लामी क़ानून के अंतगर्त, केवल मूलत: मुसलमान अथवा धर्मातरण द्वारा मुसलमान बने लोग ही ज़मींदार हो सकते थे, इसलिए अपनी कृष्य भूमि रख पाना ग़ैर मुस्लिम कृषकों के लिए धर्म परिवर्तन का पुरस्कार था। धर्म परिवर्तन करने पर कृषकों को अपनी उपज के दसवें भाग के बराबर उश्र (दशमांश धर्मशुल्क) देना पड़ता था। सैद्धांतिक रूप से ये धर्मातरित लोग भूमि के अन्य करों से मुक्त रहते थे, लेकिन उमय्या ख़लीफ़ाओं (शासनकाल, 661-750) ने बढ़ती वित्तीय समस्याओं का सामना करने के लिए, नव धर्मातरितों की भूमि पर उनके उश्र के भुगतान के अतिरिक्त एक प्रकार का ख़राज लगाया गया। ख़राज का यह अतिरिक्त आरोपण अलोकप्रिय था। कई धर्मातरित लोग मानते थे कि यह इस्लाम के समतावादी सिद्धातों का उल्लंघन था। ईरान के पूर्वोत्तर प्रांत खुरासान में, ख़राज इकठ्ठा करना अबू की 747 ई. की बगावत के कारणों में से एक था, जो उमय्या ख़िलाफ़त के पतन का कारण बनी। इसके बाद के ख़लीफ़ा अब्बासी के शासन के प्रारंभिक वर्षों में ख़राज की वसूली बंद हो गई ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- भारत ज्ञानकोश खण्ड-2