कालपी का गणेश मन्दिर उत्तर प्रदेश के जालौन ज़िले में यमुना तट पर बसे कालपी नगर में स्थित है। यह प्रसिद्ध मन्दिर धार्मिक मान्यताओं के साथ-साथ ऐतिहासिक कारणों से भी प्रसिद्ध है। मन्दिर में गणेश भगवान की तीन मूर्तियाँ हैं। ये तीनों मूर्तियाँ दक्षिणमुखी हैं, जबकि गणेश जी की सूंड़ उत्तर की ओर है। लगभग 600 साल पुराने इस मन्दिर की देखभाल महाराष्ट्र का एक ब्राह्मण परिवार करता है। मन्दिर की स्थापना छत्रपति शिवाजी के गुरु समर्थ रामदास ने 'हिन्दूपद पादशाही' की स्थापना के संकल्प के साथ करवाई थी।
स्थापना
महाराष्ट्र के ब्राह्मण पुजारी परिवार की आठवीं पीढ़ी के पंडित अनिल कानेरे के अनुसार क़रीब 600 साल पहले शिवाजी महाराज के गुरु समर्थ रामदास अपने गुरुरोपण की समाधि पर फूल चढ़ाने के लिए यहाँ आए थे। उस समय कालपी में रुककर उन्होंने बलुई मिट्टी से एक ऐसे दक्षिणमुखी गणेश मन्दिर की स्थापना करवाई, जिनकी सूंड उत्तर दिशा की ओर रहे। समर्थ गुरु रामदास ने इस मूर्ति की स्थापना कर इसकी देखभाल की ज़िम्मेदारी महाराष्ट्र के ब्राह्मण 'लाखोबा कानेरे' को दी थी। इसके बाद समर्थ रामदास गुरु का इटौरा पहुँचे, जहाँ उनके गुरुरोपण की समाधि है। समाधि पर पूजा-अर्चना के बाद समर्थ रामदास गुरु का इटौरा से लौटने के बाद इस मन्दिर में पुन: आए और शिवाजी महाराज के माध्यम से 'हिन्दूपद पादशाही' का संकल्प गणेश जी की मूर्ति के सामने लेकर महाराष्ट्र चले गए। समर्थ गुरु रामदास के संकल्प की ख्याति पूरे महाराष्ट्र और बुन्देलखण्ड में व्याप्त थी।[1]
ऐतिहासिक तथ्य
अनिल कानेरे के अनुसार, 17वीं शताब्दी में मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब के सेनापति वंगश ख़ाँ ने जब भारी सेना लेकर बुंदेला राजा छत्रसाल के राज्य पर आक्रमण किया, तब उसने पेशवा बाजीराव प्रथम से सहायता मांगी। पेशवा बाजीराव अपनी सेना लेकर कालपी आए। उन्हें समर्थ गुरु रामदास के बनाए गए सिद्ध गणेश मन्दिर की प्रसिद्धि के विषय में मालूम था। पेशवा बाजीराव प्रथम ने इसी सिद्ध गणेश मन्दिर में संगमरमर की उत्तर की ओर सूंड किए हुए दक्षिणमुखी गणेश की एक अन्य प्रतिमा की स्थापना करवाई। इसके बाद पेशवा बाजीराव प्रथम की मुग़ल सेनापति वंगश ख़ाँ से युद्ध में जीत हुई। इसके बाद बुंदेला राजा छत्रसाल ने पेशवा बाजीराव को अपना दत्तक पुत्र मानकर उन्हें बुंदेला राज्य की तमाम जागीरें, हीरे, पन्ना, माणिक सहित तमाम रत्न तथा सोने के तमाम जेवरात प्रदान किये।
19वीं शताब्दी में अंग्रेज़ों से लड़ने से पूर्व झांसी की रानी लक्ष्मीबाई ने यहाँ एक और दक्षिणमुखी गणेश जी की प्रतिमा की स्थापना करवाई थी। हालांकि अंग्रेज़ों से युद्ध में रानी लक्ष्मीबाई को पराजय का मुंह देखना पड़ा था। गणेश मन्दिर के वर्तमान पुजारी अतिन राव मन्हारे के अनुसार पूरे विश्व में यह एकमात्र मन्दिर है, जहाँ एक ही मन्दिर में गणेश जी की तीन तीन मूर्तियाँ स्थापित हैं और मूर्तियाँ दक्षिणमुखी तथा तीनों की सूंड उत्तर की ओर है।[1]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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