गुंजन -सुमित्रानन्दन पंत

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गुंजन -सुमित्रानन्दन पंत
'गुंजन' काव्य संग्रह का आवरण पृष्ठ
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कवि सुमित्रानन्दन पंत
मूल शीर्षक 'गुंजन'
प्रकाशन तिथि 1932 ई.
ISBN 0
देश भारत
भाषा हिन्दी
प्रकार काव्य संग्रह
विशेष 'गुंजन' की श्रेष्ठतम रचनाएँ कवि की अत्मिक तल्लीनता प्राकृतिक सौन्दर्य तथा रूपात्मक संकेतों के भीतर से नया रसबोध जाग्रत करने में सफल हुई हैं।

गुंजन कवि सुमित्रानन्दन पंत का काव्य-संग्रह है। इसका प्रकाशन सन् 1932 में हुआ था। इसे कवि पंत ने अपने प्राणों का 'उन्मन-गुंजन' कहा है। यह संकलन 'वीणा' 'पल्लव' काल के बाद कवि के नये भावोदय की सूचना देती है। इसमें हम उसे मानव के कल्याण और मंगलाशा के नये सूत्र काव्यबद्ध करते पाते हैं। कल्पना और भावना का वह उद्दाभ प्रवाह जो 'पल्लव' की रचनाओं के उन्मादक बनाता है, 'गुंजन' में नहीं है। एक आकर्षक कोमल आभिजात्य से संकलन की रचनाएँ ओतप्रोत हैं।

1922 और 1927 की रचनाएँ

दो-चार रचनाओं को छोड़कर जो 1922 और 1927 की रचनाएँ हैं या जिनका रचनाकाल कुछ पहले 1918 तक जाता है, शेष रचनाएँ 1932 की ही सृष्टि हैं। यह वर्ष पंत के कवि-जीवन का मोड़ कहा जा सकता है क्योंकि इससे उनकी संवेदना, अभिव्यंजना तथा चिंतन को नयी दिशा मिलती है। 'मदन-दहन'[1] के बाद नूतन अनंग का यह जन्म स्वयं कवि के स्वस्तिवाचन का विषय बना है।

प्रगीतात्मकता

ग्रंथ 45 गीतियाँ संकलित हैं। इनमें प्रगीतात्मकता के साथ संगीत की स्वर-लहरी भी मिलेगी। वस्तुत: इनमें अनेक रचनाएँ 'गान' की कोटि में आयेंगी। नये गीतकण्ठ ने भाषा-शैली, छन्द और मूर्त्त-विधान सभी दिशाओं में नया समारम्भ प्रस्तुत किया है। इन प्रगीतों में अंतस का माधुर्य, भावबोध, सौन्दर्य-सम्भार एवं गीत-विलास आशा और मंगल के स्वर-सन्धान के द्वारा सार्थक हुआ है। 'ज्योत्स्ना' में रूपक के रंग में ढ़ालकर जिस मानव-कल्याणकामना को योजनाबद्ध किया गया है, उसका प्रथम उन्मेष 'गुंजन' की गीतियों में ही मिलेगा। 'पल्लव' काल की कल्पना-प्रचुरता हमें केवल एक रचना 'अप्सरी' में मिलती है, जिसमें कवीन्द्र रवीन्द्र की 'उर्वशी' की छाया स्पष्ट है परंतु जिसमें एक भिन्न कोटि की मायाविनी मानसी को मूर्त्तिमान किया गया है, जो आदिमकाल से मनुष्य़ की सौन्दर्य-चेतना को उकसाती रही है। मानव ने अपने चारों ओर जो कल्पना, रहस्य और सौन्दर्य का छाया-जगत बिछया है, वह इसी छाया-मूर्ति की देन है। इसीलिए रचना के समापन पर कवि कहता है-

"जग के सुख-दुख, पाप-ताप, तृष्णा-ज्वाला से हीन।
जरा-जन्म-भय-मरण-शुन्य, यौवनमीय, नित्यनवीन।
अतल विश्व-शोभा-वारिधि में, मज्जित जीवन-मीन।
तुम अदृश्य अप्सरी, निज सुख में तल्लीन"।

परंतु यहाँ कवि इंद्रजाली कल्पना से नीचे उतर कर ऐसे संयत भाव-चित्रों को ही चुनता है, जो हमारे चिर परिचित आयामों से भिन्न नहीं हैं।

श्रेष्ठतम रचनाएँ

'गुंजन' की श्रेष्ठतम रचनाएँ हैं- 'नौकाविहार', 'एक तारा', 'अधुबन', 'भावी पत्नी के प्रति' और 'चाँदनी'। इन रचनाओं में कवि की अत्मिक तल्लीनता प्राकृतिक सौन्दर्य तथा रूपात्मक संकेतों के भीतर से नया रसबोध जाग्रत करने में सफल हुई है। विराट, विश्रृखलित और क्षिप्रगति से बदलते हुए उपमानों के स्थान पर संयत कल्पना चित्र और अमूर्त्तविधान हमें बराबर आश्वस्त रखते हैं, किंचिन्मात्र भी झकझोरते नहीं। इस रचना में पंत का काव्य अभिजात्य की एक सीढ़ी और चढ़ गया है। उसका आत्मनियंत्रण आश्चर्य जनक हैं। भावनाओं की बाढ़ जैसे उतर गयी हो और तरुण कवि नये शरदाकाश के उज्ज्वल वैभव को अर्ध्य-दान दे रहा हो। 'चाँदनी' पर दो रचनाएँ हैं और उसे हम कवि की साम्प्रतिक चेतना का बाह्य प्रतीक कह सकते हैं।

पंत का प्रकृति-काव्य

'गुंजन' में कवि का प्रकृति-काव्य अधिक प्राकृतिक हो गया है। उसमें वर्ण्य विषय खुलता है, उपमाओं की झड़ी में मुँद नहीं जाता। प्रकृति की सहज, प्रसन्न, शांत चित्रपटी 'गुंजन' में मिलेगी क्योंकि वही कवि के नये भावपरिवर्त्तन के अनुकूल है। मधुमास पर लिखी हुई कुछ रचनाओं में वर्ण की चटुलता भी है। परंतु वह क्रीड़मात्र न होकर यौवन की आंतरिक सम्पन्नता की ही द्योतक है। इस संकलन की दूसरी विशेषता मिलन-सुख और प्रेमोल्लास सम्बन्धी कुछ गीतियाँ है, जो सम्भोग-श्रृंगार के रीतिकालीन स्वरूप से भिन्न नयी भावमाधुरी से ओतप्रोत हैं। ये रचनाएँ कवि का मन:कल्प ही कही जा सकती हैं। इन आकांक्षामधुर रचनाओं में जिस नारी-मूर्ति का आह्वान है, वह 'भावी पत्नी के प्रति' और 'रूपतारा, तुम पूर्ण प्रकाम' रचनाओं में पुष्पित हुआ है। 'गुंजन' की ये कविताएँ कवि के 'उच्छ्वास', 'आँसू' प्रभूति विप्रलम्भ काव्य की पूरक हैं। सम्भवत: पिछली रचनाओं से अधिक सहज होने के कारण ये लोकप्रिय भी अधिक हैं। 'गुंजन' की तीसरी दिशा कवि का दार्शनिक चिंतन है जो वेदांती होकर भी स्वानुभूत सत्य के प्रकाश से ज्योतिर्मान है।

आत्मसाधना का प्रतीक ग्रंथ
  • कवि जब कहता है:

"मैं प्रेम उच्चादर्शों का,
संस्कृति के स्वर्गिक स्पर्शों का।
जीवन के हर्ष-विपर्शों का
लगता अपूर्ण मानव-जीवन"

तो हम इन पंक्तियों में उत्तर पंत का समस्त काव्य-विकास झांकता पाते हैं। 'साठ वर्ष' में कवि ने इस काल की अपनी निर्जनता की भावना का उल्लेख किया है और एकाकी जीवन को चिंतन, भावना और आत्मसंस्कार से भरने का प्रयत्न ही 'गुंजन' है। इसलिए अनेक गीतियों में कवि अपने मन से सम्बोधित होता है और उससे खिलने अथवा तपने का आग्रह करता है। वास्तव में 'गुंजन' पंत की आत्मसाधना का प्रतीक ग्रंथ है।

प्रकृति-सौन्दर्य से मानव-सौन्दर्य तक

आत्मसाधना साधना प्रकृति-सौन्दर्य से आगे बढ़कर मानव-सौन्दर्य तक पहुँचती है। इसमें जीवन के आनन्द, उल्लास, सहज संवेदन तथा माधुर्य का प्रकाश भरा गया है। सब कुछ जैसे जादू की छड़ी से सुन्दर और सार्थक बन गया है। इस सुन्दरता का केन्द्र मानव है, जो प्रकृति के आनन्द, उल्लास और सौन्दर्य का मूल उत्स है। इसी मानव को पंत ने अपनी मंगल-कामना समर्पित की है। यह ठीक है कि 'गुंजन' की मंगल-कामना अर्निर्दिष्ट है, उसमें किसी प्रकार का तंत्र या 'वाद' दर्शित नहीं होता, परंतु कवि के सहज, सौम्य, प्रसन्नचेता व्यक्तितव के माध्यम से प्रकृति और मानव के समस्त सुन्दर और शोभन आयामों का संकलन स्वत: हो जाता है।

बालसुलभ चापल्य

लगता है, कवि बालसुलभ चापल्य और वय:सन्धि के स्वप्नों को पीछे छोड़कर तथा कौसानी की चित्रशलभ-सी पंख खोलकर उड़ने वाली घाटी से नीचे उतर कर गंगा के उन्मुक्त कछार में आ गया है और उसकी कवि-चेतना से नीलाकाश में आबद्ध अनंत दिक प्रसाद को हृदयंगम किया है। उत्तर पंत की रचनाएँ यहीं से आरम्भ होती हैं और निरंतर नये आयाम ग्रहण करती जाती हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 'पल्लव' की समापन कविता

धीरेंद्र, वर्मा “भाग- 2 पर आधारित”, हिंदी साहित्य कोश (हिंदी), 134-135।

बाहरी कड़ियाँ

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