गौर किशोर घोष
गौर किशोर घोष
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पूरा नाम | गौर किशोर घोष |
जन्म | 20 जून, 1923 |
जन्म भूमि | हाट गोपाल पुर, जैसोर (पूर्वी बंगाल) |
मृत्यु | 15 दिसम्बर, 2000 |
कर्म भूमि | भारत |
मुख्य रचनाएँ | रूपदर्शीरनक्श, सर्कस, एई कोलकताई, गोडानन्द कवि माने |
भाषा | बांग्ला |
शिक्षा | स्नातक |
विद्यालय | बकुलतला हाई स्कूल इंग्लिश स्कूल |
पुरस्कार-उपाधि | मैग्सेसे पुरस्कार |
प्रसिद्धि | पत्रकार तथा लेखक |
विशेष योगदान | आनंद बाज़ार पत्रिका में किशोर तरक्की करते हुए वरिष्ट सम्पादक के पद तक पहुँचे। इस प्रगति के दौरान उन्हें बहुत से ऐसे अनुभव हुए, जिन्हें भुला पाना उनके लिए कठिन था, उससे किशोर की छवि एक साहसी तथा निर्भीक पत्रकार की बनती चली गई। |
नागरिकता | भारतीय |
संबंधित लेख | डी. एन. खुरोदे, अमिताभ चौधरी, बेज़वाडा विल्सन, विनोबा भावे |
अद्यतन | 12:05, 13 अगस्त 2016 (IST)
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गौर किशोर घोष (अंग्रेज़ी: Gour Kishore Ghosh, जन्म: 20 जून, 1923; मृत्यु: 15 दिसम्बर, 2000) एक कुशल पत्रकार तथा लेखक के रूप में जाने जाते हैं। विकासशील देशों में ईमानदारी से प्रगतिवादी तथा प्रभावी लेखन कर पाना न केवल मुश्किल है बल्कि खतरनाक भी है। सरकारों के अलावा, दूसरी बहुत-सी ऐसी व्यवस्थाएँ हैं, जो अपनी स्थानीय तथा अंतराष्ट्रीय छवि बनाए रखने के लिए प्रकाशन और प्रसारण पर अपना अंकुश बनाए रखना चाहती हैं। ऐसे में गौर किशोर घोष ने अपने लम्बे संघर्षपूर्ण रचनात्मक लेखन तथा पत्रकारिता के जरिए अपनी बात को निर्भीकतापूर्वक आगे रखा और साथ ही नागरिकों तथा प्रेस की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए जुझारू तेवर दिखाए। गौर किशोर घोष की मानवीय दृष्टि, उनकी निर्भीकता तथा दबावों के खिलाफ अडिग पत्रकारिता के लिए उन्हें वर्ष 1981 का मैग्सेसे पुरस्कार प्रदान किया गया।[1]
जन्म तथा शिक्षा
गौर किशोर घोष का जन्म 20 जून 1923 को तत्कालीन पूर्वी बंगाल के जैसोर ज़िले के हाट गोपालपुर गाँव में हुआ था। उनके पिता एक डॉक्टर थे और गौर किशोर उनकी सन्तानों में सबसे बड़े और एकमात्र पुत्र थे। किशोर की शिक्षा सिलेहर गाँव में शुरू हुई, जहाँ उनके पिता एक बागान में डॉक्टर नियुक्त होकर गए थे। यह एक बीहड़ तथा घोर अविकसित गाँव था, जहाँ एक कमरे और एक मास्टर वाले स्कूल में किशोर की पढ़ाई शुरू हुई। यहाँ बांग्ला पढ़ाए जाने की व्यवस्था की। सिलहेर के बाद किशोर के पिता का तबादला नवाब दीप हो गया। नवाब दीप कलकत्ते से चालीस मील उत्तर में एक स्थान था, जहाँ किशोर ने हाई स्कूल से लेकर स्नातक तक पढ़ाई की। नवाब द्वीप में किशोर के पिता ने उनका नाम 'बकुलतला हाई स्कूल इंग्लिश स्कूल' में लिखवा दिया, जहाँ उन्हें अंग्रेज़ी पढ़ने का मौका मिला। इसी नवाब दीप में किशोर को लाइब्रेरी में जाकर पढ़ने का चस्का लगा। उस समय इनका किसी विशेष विषय की पुस्तकों का चुनाव नहीं होता था, बस, जैसा कि इन्हें एक मित्र ने सुझाया था। वह इस विश्वास से सब पढ़ते जाते थे कि इन्हें, सब कुछ पढ़ने भर से समझ में आने लगेगा।
प्रारंभिक जीवन
पंद्रह वर्ष की आयु में किशोर 'कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया' की छात्र शाखा के सदस्य बन गए। उस समय भारत में ब्रिटिश सरकार की ओर से यह एक प्रतिबंधित राजनैतिक दल था और इस तरह वर्ष 1938 में यह किशोर की ओर से सत्ता की पहली अवहेलना की घटना थी। किशोर का शुरुआती जीवन बहुत संघर्षपूर्ण रहा। इन्होंने जीवन यापन के लिए वहुत से काम किए। वह एक बिजली के मिस्त्री रहे, एक जगह फिटर का काम किया, परिस्थितिवश उनके जिम्मे परिवार के पालन पोषण का भार भी आ गया था। जिसने उनसे रेस्तरां में बर्तन तक धुलवाए। उसी दौरान उनका लेखन भी शुरू हुआ। उनकी पहली कविता 1943 में कलकत्ते की पत्रिका 'पूर्वाशा' में छपी।[1]
पत्रकारिता की शुरुआत
किशोर के पत्रकारिता जीवन की शुरुआत 1947 में तब हुई, जब उन्हें एक नई साहित्यिक साप्ताहिक पत्रिका में प्रूफ़ रीडर का काम मिला। लेकिन यह पत्रिका साल भर में ही बन्द हो गई। किशोर को फिर उसी संघर्ष में उतरना पड़ा। तभी एक नए शुरू होने वाले अखबार 'सत्ययुग' ने किशोर को फिर प्रूफ रीडर बनाकर रख लिया। यह देश के बड़े प्रकाशन टाइम्स ऑफ इण्डिया का सहयोगी प्रकाशन था।
गौर किशोर घोष की प्रतिभा तब सामने आयी, जब वह कलकत्ता की सबसे बड़ी पत्रिका 'देश' के लिए एक नियमित स्तम्भ 'रूपदर्शीरनक्श' लिखने लगे। यह स्तम्भ 1950 से शुरू होकर 1953 तक चला। इस स्तम्भ में किशोर ने प्रतिदिन देखे जाने वाले ऐसे जनमानस की तस्वीर उजागर की, जो प्राय: अनदेखी कर दी जाती है। इस काम के जरिए किशोर का मकसद यह दिखाने का था कि साधारण प्रसंग में एक सौन्दर्य छिपा होता है और वह तभी नजर आता है, जब उसे मानवीय दृष्टि से देखा जाता है।
इसी क्रम में किशोर की दूसरी रचनाएँ 'सर्कस' नाम से सामने आईं। इनकी भी भाषा बांग्ला थी और यह 1952 में पुस्तक रूप में प्रकाशित हुई। 1952 में किशोर आनंद बाज़ार पत्रिका के रिपोर्टक के रूप में नियुक्त किए गए। आनंद बाज़ार पत्रिका कलकत्ते में बांग्ला का सबसे बड़ा दैनिक अखबार है। किशोर की रचना 'एई कोलकताई' उन्हीं दिनों प्रकाशित हुई थी और उसने आनंद बाज़ार पत्रिका के प्रकाशकों का ध्यान इस ओर खींचा था। आनंद बाज़ार पत्रिका में आने के बाद भी इनका 'देश' के लिए लिखना जारी रहा था।
पत्रकार तथा लेखक के रूप में
1958 में किशोर तथा इसके महत्त्वपूर्ण पत्रकार अमिताभ चौधरी ने एक स्वतंत्र साप्ताहिक निकालने का विचारा बनाया। किशोर कहते हैं कि विचार तो अच्छा था लेकिन उन्हें इसके लिए संसाधन कैसे जुटेंगे, यह समझ में नहीं आ रहा था। इस समस्या को अमिताभ चौधरी ने कैसे चुटकी बजाते हल किया यह किशोर के लिए हैरत की बात रही। 'दर्पण' नाम से यह साप्ताहिक निकाला गया,जिसमें चौधरी ने किशोर से नियमित लिखने का आग्रह किया। 1956 में किशोर ने 'सगीना महतो' तथा पाँच दूसरी राजनैतिक परिवेश की कहानियाँ पुस्तक रूप में देकर अपना नाम जमा लिया था। इस नाते किशोर एक कुशल पत्रकार तथा लेखक के रूप में उभरा रहे थे। 'दर्पण' के लिए किशोर डेढ़ साल तक लिखते रहे। 'दर्पण' में किशोर ने अपना लोकप्रिय स्तम्भ 'गोडानन्द कवि माने' शीर्षक से शुरू किया जो आनन्द बाज़ार पत्रिका में छपने लगा। शुरू में यह स्तम्भ नियमित नहीं था लेकिन लोकप्रियता ने इसे 1970 से नियमित हो जाने दिया। 1974 में इस स्तम्भ की सामग्री पुस्तक रूप में प्रकाशित सामने आई।
वरिष्ठ सम्पादक के रूप में
'आनंद बाज़ार' पत्रिका में किशोर तरक्की करते हुए वरिष्ठ सम्पादक के पद तक पहुँचे। किशोर की इस प्रगति के दौरान उन्हें बहुत से ऐसे अनुभव हुए जिन्हें भुला पाना उनके लिए कठिन था, लेकिन उन्होंने जिस तरह से उनका सामना किया, उससे किशोर की छवि एक अदस्य साहसी तथा निर्भीक पत्रकार की बनती चली गई। किशोर मार्क्सवादी विचारों से प्रभावित ज़रूर थे, लेकिन जहाँ कुछ ग़लत देखते थे, उसका विरोध करने से भी नहीं चूकते थे। दृष्टि से कोई भी प्रतिबद्धता उनके सच के रास्ते में बाधा नहीं बनी। इस सन्दर्भ में कुछ महत्त्वपूर्ण घटनाएँ बताई जा सकती हैं। 1969 में कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इण्डिया (एम.एल.) के प्रमुख चारु मजूमदार ने भूमिहीनों के हिमायती होने का दावा करते हुए, भूमि अधिकरण से बहुत अनाचार किया। इस बात के ख़िलाफ गौर किशोर घोष ने व्यंग्यात्मक आलेख लिखा जिसमें चारू मजूमदार की भर्त्सना की गई थी। इस आलेख ने किशोर के लिए मुसीबत खड़ी कर दी। इसके पहले भी किशोर कम्युनिस्टों की दोहरी नीति के खिलाफ बहुत कुछ लिख चुके थे।
रचनाएँ
गौर किशोर की रचनाएँ निम्न हैं-
- रूपदर्शीरनक्श
- सर्कस
- एई कोलकताई
कम्युनिस्ट पार्टी का पत्र
4 जुलाई 1970 को उन्हें कम्युनिस्ट पार्टी इण्डिया (एम.एल) की ज़िला कमेटी की ओर से एक पत्र मिला जिसमें उन्हें चेतावनी दी गई कि वह एक महीने के भीतर माफ़ी माँग लें अन्यथा उनकी हत्या कर दी जाएगी। किशोर के पास एक ऐसा ही और पत्र आया, जिसमें उन पर बहुत से आरोप लगाए गए थे। किशोर ने ये दोनों पत्र अपने उत्तर के साथ प्रकाशित कर दिए। और उत्तर में किशोर ने लिखा।
'मौत मनुष्य का एक स्वाभाविक अंत है' उन्होंने अपने पत्र के अंत में महाभारत का उद्धरण दिया और लिखा-
मनुष्य कौन है....?
प्राणी के अच्छे कर्मों की तरंग आकाश से धरती तक जाती है। और प्राणी अपने अच्छे कर्मों से ही मनुष्य कहलाता है...
किशोर ने मनुष्य होने के हवाले से अपनी चेतना का संदर्भ सामने रखा कि अपनी चेतना को झुठला कर मौत से बचने की कोशिश करने वाले वह नहीं है। इस प्रसंग के बाद भी किशोर की निर्भीक अभिव्यक्ति जारी रही। इसी तरह दूसरा प्रसंग 1975 का है जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने देश में आपातकाल लगा दिया था। तब किशोर ने इसका विरोध अपने ढंग से व्यक्त किया था, जिसकी गूँज दूर तक गई थी। घोष ने आपातकाल के प्रतिवाद में अपना सिर मुड़वाकर अपने तेरह वर्षीय बेटे को इस आशय का एक प्रतीकात्मक पत्र लिखा कि उसकी अभिव्यक्ति की, स्वतंत्रता की मृत्यु हो गई है इसलिए पारम्परिक रूप से वह मुंडन करवा रहे हैं।[1]
आपातकाल में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर बंदिश लगी थी, इसके बावजूद किशोर का यह पत्र कलकत्ता के बांग्ला मासिक में छपा। किशोर को जेल हो गई। वहीं से गुपचुप यह पत्र आगे अनुवाद के बाद मराठी में 'साधना' तथा गुजराती में 'भूमिपुत्र' में प्रकाशित हुआ। इस पर ये अंक सरकार ने कब्ज़े में ले लिए लेकिन बाद में बम्बई तथा गुजरात के हाईकोर्ट ने इन अखबारों के पक्ष में फैसला दिया।
आपातकाल के बाद किशोर फिर आनंद बाज़ार पत्रिका के वरिष्ठ सम्पादक के रूप में बहाल हुए। उन्होंने साथ के समान सोच वाले लोगों के साथ मिलकर 'आजकल' नाम की एक बांग्ला दैनिक का सम्पादन शुरू किया। उनके इस काम में उनकी पत्नी, दो बेटियों तथा एक बेटे ने हाथ बंटाना शुरू किया।
मृत्यु
15 दिसम्बर, 2000 को गौर किशोर घोष ने इस संसार से विदा ली।
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