वी. शांता
वी. शांता
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पूरा नाम | डॉ. विश्वनाथन शांता |
जन्म | 11 मार्च, 1927 |
जन्म भूमि | माइलापुर, मद्रास (वर्तमान चेन्नई) |
मृत्यु | 19 जनवरी, 2021 |
मृत्यु स्थान | चेन्नई |
कर्म भूमि | भारत |
कर्म-क्षेत्र | चिकित्सक |
शिक्षा | एमबीबीएस, एमडी |
विद्यालय | नेशनल गर्ल्स हाईस्कूल (चेन्नई), मद्रास मेडिकल कॉलेज। |
पुरस्कार-उपाधि | पद्म विभूषण (2016) पद्म भूषण (2006) |
विशेष योगदान | वी. शांता ने देश के पहले शिशु कैंसर क्लीनिक की नींव रखी थी। |
नागरिकता | भारतीय |
अन्य जानकारी | वी. शांता का परिवार प्रबुद्ध और ख्याति प्राप्त लोगों से उजागर था। 'नोबेल पुरस्कार' प्राप्त वैज्ञानिक एस. चन्द्रशेखर उनके मामा और प्रसिद्ध वैज्ञानिक तथा नोबेल पुरस्कार विजेता सी. वी. रमन उनके नाना के भाई थे। |
अद्यतन | 13:23, 3 मार्च 2022 (IST)
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विश्वनाथन शांता (अंग्रेज़ी: Viswanathan Shanta, जन्म- 11 मार्च, 1927; मृत्यु- 19 जनवरी, 2021) भारत की ऐसी महिला थीं, जिन्हें उनके जनकल्याणकारी कार्यों के लिए वर्ष 2005 में रेमन मैग्सेसे पुरस्कार दिया गया था। उनका पूरा नाम डॉ. विश्वनाथन शांता था। भारत में कैंसर के रोगियों की संख्या बढ़ती जा रही है। विशेष रूप से पुरुषों में गले, फेफड़ों तथा पेट का कैंसर, प्रमुखता से देखा जाता है जो तम्बाकू के कारण होता है। स्त्रियों में गर्दन तथा स्तन का कैंसर सबसे ज्यादा देखा जाता है। इसके बावजूद लम्बे समय से इस दिशा में कोई खोजपरक काम तथा इसके इलाज के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया है। डॉ. वी. शांता ने 'चेन्नई कैंसर इन्टीट्यूट' में इस ओर बहुत काम किया और इस उपेक्षित क्षेत्र में इलाज तथा अनुसंधान दोनों को अपने निर्देशन में सम्पन्न किया। उनको उनके द्वारा जनकल्याणकारी कार्य के लिए मैग्सेसे पुरस्कार प्रदान किया गया था।
परिचय
डॉ. वी. शांता का जन्म 11 मार्च, 1927 को मद्रास (वर्तमान चेन्नई) के माइलापुर में हुआ था। उनका परिवार प्रबुद्ध और ख्याति प्राप्त लोगों से उजागर था। 'नोबेल पुरस्कार' प्राप्त वैज्ञानिक एस. चन्द्रशेखर उनके मामा थे और प्रसिद्ध वैज्ञानिक तथा नोबेल पुरस्कार विजेता सी. वी. रमन उनके नाना के भाई। इस नाते उनके सामने उच्च आदर्श के उदाहरण बचपन से ही थे। वी. शांता की स्कूली शिक्षा चेन्नई में नेशनल गर्ल्स हाईस्कूल से हुई, जो अब सिवास्वामी हायर सेकेन्डरी स्कूल बन गया है। शांता की बचपन से डॉक्टर बनने की इच्छा थी। उन्होंने 1949 में मद्रास मेडिकल कॉलेज से ग्रेजुएशन किया तथा 1955 में उनका पोस्ट ग्रेजुएशन एम.डी. पूरा हुआ।[1]
कैंसर इंस्टीट्यूट के लिए कार्य
इसी दौरान 1954 में डी. मुत्तुलक्ष्मी रेड्डी ने कैंसर इन्टीट्यूट की स्थापना की थी। वी. शांता ने पब्लिक सर्विस कमीशन की परीक्षा में सफल होकर वुमन एण्ड चिल्ड्रेन हॉस्पिटल में सेवारत होने का आदेश पा लिया था, जो कि एक बेहद सम्मानित उपलब्धि थी। लेकिन जब कैंसर इन्टीट्यूट का विकल्प सामने आया तो उन्होंने बहुतों को नाराज करते हुए वुमन एण्ड चिल्ड्रेन हॉस्पिटल का प्रस्ताव छोड़कर कैंसर इन्टीट्यूट का काम ही स्वीकार कर लिया। 13 अप्रैल, 1955 को वी. शांता कैंसर इन्टीट्यूट के परिसर में पहुँची और वहीं जम गईं। यह शांता की मानवीय संवेदना का एक प्रमाण बना। इन्स्टीट्यूट जब शुरू हुआ था, तब उसके पास एक छोटी-सी बिल्डिंग थी, बहुत थोड़े चिकित्सा प्रबन्ध थे तथा उनके साथ केवल एक और डॉक्टर थीं, जिनका नाम कृष्णमूर्ति था। पहले तीन वर्ष वी. शांता ने वहाँ अवैतनिक स्टॉफ की तरह काम किया उसके बाद उन्हें दो सौ रुपये प्रतिमाह तथा अस्पताल के परिसर में ही आवास दिया गया।
इस संस्थान में वी. शांता ने देश के पहले शिशु कैंसर क्लीनिक की नींव रखी। शांता ने देश में किया जाने वाला पहला अध्ययन सर्वेक्षण किया और उसके आधार पर देश में पहला ऐसा कार्यक्रम बनाया गया, जिसका उद्देश्य था कि गाँवों में, कैंसर की एकदम शुरुआती स्टेज पर ही पहचान की जा सके। वी. शांता ने उस कैंसर इंस्टिट्यूट में रहते हुए अपने भीतर के गहरे जुनून का परिचय दिया। उन्होंने जब तम्बाकू को पुरुषों में कैंसर पैदा करने वाले तत्व की तरह जाना तो कैंसर पर रोक-थाम की जिद में उन्होंने पुरुषों के लिए तम्बाकू छुड़ाने वाला क्लीनिक खोल दिया।[1]
शोध कार्य
वी. शांता का रुझान अनुसंधान तथा प्रयोग की ओर भी बराबर रहा। बहुत श्रमसाध्य अध्ययन के बाद उन्होंने ‘कांबिनेशन थेरेपी’ को आजमाने का कदम उठाया। भारत में तब तक ऐसा प्रयोग कभी नहीं हुआ था, लेकिन अच्छे परिणाम के हौसले ने वी. शांता को उत्साहित किया और उन्होंने इसका सहारा लिया। यह एक सूझबूझ के साथ उठाया गया कदम था, लेकिन इसके परिणाम का पता पहले से नहीं था। वी. शांता का कदम सफल रहा और कांबिनेशन थैरेपी ने चमत्कारी नतीजे दिखाए। इस सफलता के जरिये मुँह के कैंसर पर नियन्त्रण और उसके इलाज की राह बननी शुरू हुई। इस सफलता से वी. शांता की खोज वृत्ति थमी नहीं बल्कि तेज हो गई। उन्होंने गले, गर्दन तथा स्तन के कैंसर पर गहराई से शोध किया तथा उन्होंने शिशुओं में रक्त रोग ल्यूकेमिया को अपना लक्ष्य बनाया। उन्होंने अपने प्रयोगों के परिणाम अन्तरराष्ट्रीय मेडिकल जरनल्स में प्रकाशित कराए और दुनिया-भर से संवाद शुरू किया और 1975 में उन्होंने इस संस्थान को भारत का पहला ‘रीजनल कैंसर रिसर्च सेन्टर एण्ड ट्रीटमेंट सेन्टर’ बना दिया।
आनुवांशिक कैंसर क्लीनिक
वी. शांता का हौसला अभी भी थमा नहीं था। 1984 में उन्होंने संस्थान का विस्तार एक पोस्ट ग्रेजुएट कॉलेज बना कर किया। इसमें शांता ने कैंसर विशेषज्ञों को प्रशिक्षण देना शुरू किया। इस कॉलेज से प्रशिक्षित होकर सैकड़ों डॉक्टर विश्वभर में कैंसर के खिलाफ अपना काम कर रहे हैं। वर्ष 1980 में शांता ने यह प्रयास भी शुरू किया कि इस कैंसर संस्थान को यूरोप, उत्तरी अमेरिका, जापान आदि देशों की साझेदारी में विश्वस्तरीय केन्द्र बना दिया जाए। इन्होंने इस बात की भी कल्पना की कि वहां एक अत्याधुनिक तकनीक तथा यन्त्रों से युक्त प्रयोगशाला भी बने, जो शरीर के भीतर किसी भी जगह की तस्वीर लेकर विशेषज्ञों के सामने स्थिति की सही जानकारी रखे। इस आकांक्षा के साथ वी. शांता अथक रूप से अनुदान, स्वीकृतियों तथा ऋण छूट आदि जुटाने में लग गई। उन्होंने गाँवों में नर्सों को भी इस सीमा तक प्रशिक्षित करने का काम किया कि वे भी गर्दन की स्थिति के हिसाब से रोग के लक्षणों को पकड़ सकें। इस तरह प्रयासपूर्वक उन्होंने वर्ष 2000 में देश की पहली आनुवांशिक कैंसर क्लीनिक खोली, जो विरासत में आए कैंसर रोग को समझे और काबू कर सके।
बारह बिस्तरों वाले अस्पताल से शुरू होकर वी. शांता का कैंसर इंस्टिट्यूट चार सौ से ज्यादा बिस्तरों वाला बना। उसमें डी. मुतुलक्ष्मी कॉलेज ऑफ ऑन कोलोजिक साइंसेज स्थापित हुआ, जिसमें सूक्ष्म जाँच-परख की सभी सुविधाएँ उपलब्ध हो सकीं। जहाँ स्वास्थ्य सेवाएँ भारत में बेहद व्यावसायिक रास्ते पर चल पड़ी हों, वहीं शांता का यह संस्थान साठ प्रतिशत ग़रीब रोगियों को न केवल रियायती कीमत पर इलाज दे रहा है, बल्कि उनके आने-जाने के खर्च का भी ध्यान उन्हें यात्रा भत्ता आदि देकर किया जा रहा है। इस संस्थान में एक स्वैच्छिक इकाई भी काम करती है, जो कैंसर के रोगियों को भावात्मक सहारा देने का काम करती है। बातचीत से उनका आत्मबल व आत्मविश्वास बढ़ाती है। क्योंकि कैंसर के बारे में यह आम धारणा है कि इसका मरीज निश्चित रूप से मौत के कगार पर होता है। ऐसे में इलाज के साथ ऐसे मनोवैज्ञानिक सहारे का बहुत महत्त्व होता है। उस इस्टीट्यूट के परिसर में ऐसे बहुत से लोग मिल जाएँगे जो अपने जीवन को डी. शांता की भेंट मानते हैं।[1]
पुरस्कार व सम्मान
वी. शांता 'विश्व स्वास्थ्य संगठन' की सलाहकार समिति की सदस्य हैं। दूसरी बहुत-सी राष्ट्रीय अन्तरराष्ट्रीय संस्थाएं इन्हें सम्मानित कर चुकी हैं।
जीवन-दर्शन
डॉ. वी. शांता का अपना जीवन-दर्शन है। वह चौबीस घण्टे काम करने का हौसला रखती हैं। उनका मन तब दुखता है, जब मन्दिरों और तीर्थयात्राओं पर बेहरमी से पैसे खर्च कर देने वाले लोग चिकित्सा संस्थान के लिए कुछ देने से कतराते हैं। जबकि शांता की निगाह में यह सबसे बड़ी ईश्वर भक्ति है। शांता के लिए उनका जीवन-दर्शन उनका अभीष्ट है, वह कहती हैं कि- "संस्थान के दरवाजे पर कोई कमज़ोर, हारा हुआ तथा भयभीत मरीज दिखे, तो उसके लिए उनका पहला कदम यही होगा कि आप उसके दर्द में हिस्सेदार हो जाएँ।"[1]
मृत्यु
डॉ. वी. शांता की मृत्यु 19 जनवरी, 2021 को हुई। सीनियर ऑन्कोलॉजिस्ट डॉक्टर वी. शांता 93 बरस की थीं। एक रिपोर्ट के मुताबिक, 18 जनवरी की रात डॉक्टर शांता को सीने में दर्द की शिकायत हुई। तबीयत बिगड़ने पर उन्हें रात में ही चेन्नई के एक प्राइवेट अस्पताल ले जाया गया। डॉक्टर्स ने उनके ब्लड वेसल में एक ब्लॉकेज पाया, उसे रिमूव करने की कोशिश की ही जा रही थी कि वी. शांता ने सुबह करीब साढ़े 3 बजे दम तोड़ दिया। उनके शव को अंतिम दर्शन के लिए उनके कैंसर इंस्टीट्यूट के पुराने परिसर में रखा गया था।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 1.2 1.3 डॉ. विश्वनाथन शांता का परिचय (हिन्दी) कैसे और क्या। अभिगमन तिथि: 06 अक्टूबर, 2016।