स्वामी चिन्मयानंद
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पूरा नाम | स्वामी चिन्मयानंद सरस्वती |
अन्य नाम | बालकृष्ण मेनन |
जन्म | 8 मई, 1916 |
जन्म भूमि | एर्नाकुलम, केरल |
मृत्यु | 3 अगस्त, 1993 |
मृत्यु स्थान | कैलिफ़ोर्निया, अमरीका |
कर्म भूमि | भारत |
शिक्षा | विधि, अंग्रेज़ी साहित्य व दर्शनशास्त्र का गहन अध्ययन |
विद्यालय | लखनऊ विश्वविद्यालय |
प्रसिद्धि | आध्यात्मिक चिंतक तथा वेदांत के विद्वान |
विशेष योगदान | देश में शुद्ध धर्म की स्थापना करने के लिए स्वामी चिन्मयानंद जी ने 'गीता ज्ञान-यज्ञ' प्रारम्भ किया और 1953 में 'चिन्मय मिशन' की स्थापना की। |
नागरिकता | भारतीय |
गुरु | स्वामी शिवानंद तथा तपोवन महाराज |
अन्य जानकारी | 1993 में शिकागों में विश्व धर्म संसद में चिन्मयानंद सरस्वती ने हिन्दू धर्म का प्रतिनिधित्व किया। एक शताब्दी पहले स्वामी विवेकानंद को यह सम्मान मिला था। |
स्वामी चिन्मयानंद सरस्वती (अंग्रेज़ी: Chinmayananda Saraswati ; जन्म- 8 मई, 1916, एर्नाकुलम, केरल; मृत्यु- 3 अगस्त, 1993, कैलिफ़ोर्निया, अमरीका) भारत के प्रसिद्ध आध्यात्मिक चिंतक तथा वेदान्त दर्शन के विश्व प्रसिद्ध विद्वान थे। इनका मूल नाम 'बालकृष्ण मेनन' था। इन्होंने सारे भारत में भ्रमण करते हुए देखा कि देश में धर्म संबंधी अनेक भ्रांतियां फैली हैं। उनका निवारण कर शुद्ध धर्म की स्थापना करने के लिए स्वामी चिन्मयानंद जी ने 'गीता ज्ञान-यज्ञ' प्रारम्भ किया और 1953 में 'चिन्मय मिशन' की स्थापना की। स्वामी चिन्मयानंद के प्रवचन बड़े ही तर्कसंगत और प्रेरणादायी होते थे। उनको सुनने के लिए काफ़ी भीड़ एकत्र हो जाती थी। स्वामी जी ने सैकड़ों संन्यासी और ब्रह्मचारी प्रशिक्षित किये, हज़ारों स्वाध्याय मंडल स्थापित किये, बहुत-से सामाजिक सेवा के कार्य भी उन्होंने प्रारम्भ करवाये थे। उपनिषद, गीता और आदि शंकराचार्य के 35 से अधिक ग्रंथों पर इन्होंने व्याख्यायें लिखीं। 'गीता' पर लिखा गया उनका भाष्य सर्वोत्तम माना जाता है।[1]
जन्म तथा शिक्षा
स्वामी चिन्मयानंद सरस्वती का जन्म 8 मई, 1916 को एर्नाकुलम, केरल में हुआ था। उनके बचपन का नाम 'बालकृष्ण मेनन' था। पिता न्याय विभाग में एक न्यायाधीश थे। बालकृष्ण की प्रारम्भिक शिक्षा पाँच वर्ष की आयु में स्थानीय विद्यालय 'श्रीराम वर्मा ब्यास स्कूल' में हुई। उनकी मुख्य भाषा अंग्रेज़ी थी। बालकृष्ण की बुद्धि तीव्र थी और पढ़ने में वे होशियार थे। उनकी गिनती आदर्श छात्रों में की जाती थी। आगे की शिक्षा के लिए वालकृष्ण मेनन ने 'महाराजा कॉलेज' में प्रवेश लिया। वे कॉलेज में विज्ञान के छात्र थे। जीव विज्ञान, वनस्पति विज्ञान और रसायन शास्त्र उनके विषय थे। यहाँ से इण्टर पास कर लेने पर उनके पिता का स्थानान्तरण त्रिचूर के लिए हो गया। यहाँ उन्होंने विज्ञान विषय छोड़ कर कला के विषय ले लिये। बाद में उच्च शिक्षा के लिए उन्होंने 1940 में 'लखनऊ विश्वविद्यालय' में प्रवेश ले लिया। यहाँ उन्होंने विधि और अंग्रेज़ी साहित्य का अध्ययन किया। विविध रुचियों वाले बालकृष्ण मेनन विश्वविद्यालय स्तर पर अध्ययन के साथ-साथ अन्य गतिविधियों में भी संलग्न रहते थे।
व्यावसायिक शुरुआत
1942 में वे आज़ादी के राष्ट्रीय आंदोलन में शामिल हो गए और इन्हें कई महीने जेल में रहना पड़ा। स्नातक उपाधि प्राप्त करने के बाद उन्होंने नई दिल्ली के समाचार पत्र 'नेशनल हेरॉल्ड' में पत्रकार की नौकरी कर ली तथा विभिन्न विषयों पर लिखने लगे। व्यावसायिक रूप से अच्छे प्रदर्शन के बाबजूद मेनन अपने तात्कालिक जीवन से असंतुष्ट व बेचैन थे तथा जीवन एवं मृत्यु और आध्यात्मिकता के वास्तविक अर्थ के शाश्वत प्रश्नों से घिरे हुए थे।[1]
दर्शनशास्त्र का अध्ययन
अपने प्रश्नों के उत्तर ढूंढ़ने के लिए बालकृष्ण मेनन ने भारतीय तथा यूरोपीय, दोनों दर्शनशास्त्रों का गहन अध्ययन शुरू किया। स्वामी शिवानंद के लेखन से गहन रूप से प्रभावित होकर मेनन ने सांसारिकता का परित्याग कर दिया और 1949 में शिवानंद के आश्रम में शामिल हो गए। वहां उनका नामकरण "स्वामी चिन्मयानंद सरस्वती" किया गया, जिसका अर्थ था "पूर्ण चेतना के आनंद से परिपूर्ण व्यक्ति"। अगले आठ वर्षो का समय उन्होंने वेदांत गुरु स्वामी तपोवन के निर्देशक में प्राचीन दार्शनिक साहित्य और अभिलेखों के अध्ययन में बिताया। इस दौरान चिन्मयानंद को अनुभूति हुई कि उनके जीवन का उद्देश्य वेदांत के संदेश का प्रसार और भारत में आध्यात्मिक पुनर्जागरण लाना है।
ज्ञान-यज्ञ
पुणे से आरंभ करके चिन्मयानंद सरस्वती ने सभी मुख्य नगरों में ज्ञान-यज्ञ[2] करना शुरू किया। आरंभ में पुरोहित वर्ग ने उपनिषदों और भगवद्गीता के पवित्र ज्ञान के मुक्त प्रसार का विरोध किया, क्योंकि उस समय तक यह ज्ञान ब्राह्मणों के लिए सुरक्षित था। चिन्मयानंद तक हर व्यक्ति की पहुंच थी। वह सत्संगों (धार्मिक सभाओं) में पुरुषों और स्त्रियों से मिलते तथा उन्हें आध्यात्मिक मार्गदर्शन देते। उन्होंने इस बात पर ज़ोर दिया कि वेदांत का उद्देश्य मनुष्य के दैनंदिन जीवन में उसे क्रमश: अधिक सुखी और संतुष्ट बनाना है, जो व्यक्ति को भीतर से स्वत: आध्यात्मिक जागरण की ओर प्रवृत्त करता है। दैनिक जीवन के उदाहरणों की सहायता से वह गूढ़ दर्शन को सामान्य और तर्कपूर्ण ढंग से समझाते थे।[1]
'चिन्मय मिशन' की स्थापना
स्वामी चिन्मयानंद सरस्वती ने 'चिन्मय मिशन' की स्थापना की, जो दुनिया भर में वेदांत के ज्ञान के प्रसार में संलग्न है। साथ ही यह संस्था कई सांस्कृतिक, शैक्षिक और सामाजिक कार्यों की गतिविधियों की भी देखरेख करती है। 1993 में शिकागों में विश्व धर्म संसद में चिन्मयानंद सरस्वती ने हिन्दू धर्म का प्रतिनिधित्व किया। एक शताब्दी पहले स्वामी विवेकानंद को यह सम्मान मिला था।
निधन
कैलिफ़ोर्निया में सैन डियागो में दिल का घातक दौरा पड़ने से स्वामी चिन्मयानंद सरस्वती ने महासमाधि प्राप्त की और सांसारिक जीवन से मुक्त हो गए।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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