छान्दोग्य उपनिषद अध्याय-5 खण्ड-11 से 24
छान्दोग्य उपनिषद अध्याय-5 खण्ड-11 से 24
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विवरण | 'छान्दोग्य उपनिषद' प्राचीनतम दस उपनिषदों में नवम एवं सबसे बृहदाकार है। नाम के अनुसार इस उपनिषद का आधार छन्द है। |
अध्याय | पाँचवाँ |
कुल खण्ड | 24 (चौबीस) |
सम्बंधित वेद | सामवेद |
संबंधित लेख | उपनिषद, वेद, वेदांग, वैदिक काल, संस्कृत साहित्य |
अन्य जानकारी | सामवेद की तलवकार शाखा में छान्दोग्य उपनिषद को मान्यता प्राप्त है। इसमें दस अध्याय हैं। इसके अन्तिम आठ अध्याय ही छान्दोग्य उपनिषद में लिये गये हैं। |
छान्दोग्य उपनिषद के अध्याय पांचवाँ का यह ग्यारहवें से चौबीसवें खण्ड तक है।
- आत्मा और ब्रह्म का सत्य तथा शरीर से उसका सम्बन्ध
इन खण्डों में राजा अश्वपति और प्राचीनशाल उपमन्यु के पुत्र 'औपमन्यव', भाल्लवेय वैयाघ्रपय 'इन्द्रद्युम्न,'पौलुषि-पुत्र 'सत्ययज्ञ', शार्कराक्ष-पुत्र 'जन', अश्वतराश्व-पुत्र 'बुडिल' और अरुण-पुत्र 'उद्दालक' के मध्य हुए प्रश्नोत्तर में 'आत्मा' और 'ब्रह्म' के मर्म को समझाया गया है तथा ब्रह्माण्ड व मानव-शरीर के छ: अंगों की तुलनात्मक व्याख्या की गयी हैं।
- एक बार ये छह ऋषि राजा अश्वपति के पास जाकर अपनी शंका का समाधान करते हैं। तब राजा अश्वपति सभी से अलग-अलग प्रश्न करके पूछते हैं कि वे किस 'आत्मा' की उपासना करते हैं। 'औपमन्यव' ने कहा कि वे 'द्युलोक' की उपासना करते हैं, 'इन्द्रद्युम्न' ने कहा कि वे 'वायुदेव' की उपासना करते हैं, 'सत्ययज्ञ' ने कहा कि वे 'आदित्य' की उपासना करते हैं, 'जन' ने कहा कि वे 'आकाशतत्त्व' की उपासना करते हैं, 'बुडिल' ने कहा कि वे 'जलतत्त्व' की उपासना करते हैं और ऋषिकुमार 'उद्दालक' ने कहा कि वे 'पृथ्वीतत्त्व' की उपासना करते हैं।
- इस पर राजा अश्वपति ने 'औपमन्यव' ने कहा कि आप जिस द्युलोक की उपासना करते हैं, वह निश्चय ही 'सुतेजा' नाम से प्रसिद्ध वैश्वानर-रूप आत्मा ही है। आप अन्न का भक्षण करते हैं और अपने प्रिय पुत्र-पौत्रादि को देखते हैं और अपने कुल में ब्रह्मतेज से युक्त होते हैं।
- फिर राजा ने 'इन्द्रद्युम्न' से कहा कि आप जिस वायुदेव की उपासना करते हैं, वह निश्चय ही अलग-अलग मार्गों वाला वैश्वानर आत्मा है। यह आत्मा का प्राण है। इसी के प्रभाव से आपके पास भिन्न-भिन्न अन्न-वस्त्र आदि उपहार के रूप में आते हैं तथा आपके पीछे अलग-अलग रथ की श्रेणियां चलती हैं।
- राजा ने पुन: 'सत्ययज्ञ' से कहा कि आप जिस आदित्य की उपासना करते हैं, वह निश्चय ही विश्वरूप वैश्वानर आत्मा है। यही कारण है कि आपके वंश में पर्याप्त मात्रा में विश्व-रूप साधक दृष्टिगोचर होते हैं। यह आदित्य आत्मा का ही 'चक्षु' है।
- इसके अनन्तर राजा ने 'शार्कराक्ष-पुत्र जन' से कहा कि आप जिस आकाश-तत्त्व की उपासना करते हैं, वह निश्चय ही विभिन्न संज्ञाओं से युक्त वैश्वानर आत्मा ही है। यह आत्मा 'उदरय ही है। इसी से आप धन-धान्य और सन्तान पक्ष की ओर से समृद्ध हैं। आत्मा के इस रूप को पहचानकर, जो अन्न का भक्षण तथा प्रिय का दर्शन करता है, उसके कुल में ब्रह्मतेज का निवास होता है।
- इसके बाद राजा अश्वपति ने ऋषिकुमार' बुडिल' से कहा कि वह जिस जलतत्त्व की उपासना करता है, वह निश्चय ही श्रीसम्पन्न वैश्वानर आत्मा है, किन्तु यह आत्मा 'मूत्राशय' का आधार है। अन्त में राजा ने अरुण-पुत्र 'उद्दालक' से कहा कि वह जिस पृथ्वीतत्त्व की उपासना करता है, वह निश्चय ही पग-रूप (प्रतिष्ठासंज्ञक) वैश्वानर आत्मा है। इसकी कृपा से उसे प्रजा और पशुओं की प्राप्ति हुई है। ये पग-रूप आत्मा के 'चरण' ही है।
इस प्रकार राजा ने छह ऋषियों को सम्बोधित करते हुए कहा कि आप सभी लोग इस वैश्वानर-स्वरूप आत्मा को पृथक्-पृथक् जानते हुए भी अन्न का भक्षण करते हैं जो भी मनुष्य 'यही मैं हूं' जानकर अपने अहं का हेतु होने वाले इस प्रदेश, अर्थात् 'द्यु-मूर्धा' से लेकर 'पृथ्वी' पर्यन्त वैश्वानर आत्मा की उपासना करता है, वह सभी लोकों में, सभी प्राणियों में और सभी आत्माओं में, अन्न का भक्षण करता है।
राजा उपदेश देते हुए कहता है कि इस वैश्वानर आत्मा का 'मस्तक' ही 'द्युलोक' है, 'नेत्र' ही 'सूर्य' है, 'प्राण' ही 'वायु' हैं, शरीर के बीच का भाग 'आकाश' है, 'बस्ति' (मूत्राशय) ही 'जल' है, 'पृथिवीय दो 'पैर' है, 'वक्ष' 'वेदी' है, 'रोमकूप' ही 'कुश' है, 'हृदय' ही 'गार्हपत्याग्नि' है, 'मन' 'दक्षिणाग्नि' है और 'मुंह' 'आहवनीय अग्नि' के समान है; क्योंकि अन्न का हवन इसी में होता है।
राजा ने उन्हें समझाया कि आप सभी वैश्वानर आत्मा के एक-एक अंग की उपासना करते थे। किसी एक अंग में स्थित आत्मा की उपासना से 'आत्मतत्त्व' की अनुभूति तो की जा सकती है, किन्तु उसे वहीं तक सीमित नहीं रखा जा सकता। वह तो अनन्त ब्रह्माण्ड में व्याप्त है। यदि उस विराट चैतन्य शक्ति को किसी एक अंग तक सीमित रखा जायेगा, तो वह विराट के सतत प्रवाह को बनाये रखने में असफल हो जायेगा। उससे उस अंग-विशेष को हानि हो सकती है। वह अनेकानेक विकारों से ग्रसित हो सकता है।
- ब्रह्म' और 'मानव शरीर
'ब्रह्म' की रचना और 'मानव-शरीर' की रचना में गहरा साम्य है। यहाँ इसी तथ्य का उद्घाटन करने का प्रयत्न किया गया है। पंचतत्वों-
- पृथ्वी
- जल
- अग्नि
- वायु
- आकाश से 'मानव-शरीर' और 'ब्रह्म' की रचना का साम्य दर्शाया गया है। 'द्युलोक' (आकाश) ब्रह्म का मस्तक है। यहीं आत्मा निवास करती है। 'आदित्य' (अग्नि) को ब्रह्म के नेत्र कहा गया है। 'वायु' प्राण-रूप में शरीर में स्थित है। 'जल' का स्थान उदर या मूत्राशय में है। 'पृथ्वी' ब्रह्म के चरण है। इस प्रकार 'ब्रह्म' अपने सम्पूर्ण विराट स्वरूप में इस मानव-शरीर में भी विद्यमान है। इस मर्म को समझकर ही साधक को अन्तर्मुखी होकर 'ब्रह्म' की उपासना, अपने शरीर में ही करनी चाहिए। 'ब्रह्म' इस शरीर से अलग नहीं है। यह 'आत्मा' ही ब्रह्म का अंश है।
राजा अश्वपति ने इस रहस्य को समझाते हुए सभी ऋषिकुमारों को यज्ञकर्म करने की प्रेरणा दी और समस्त लोकों तथा प्राणी समुदाय की समस्त आत्माओं के कल्याण के लिए यज्ञकर्म के महत्त्व का प्रतिपादन किया।
- यज्ञकर्म कैसे करें?
राजा अश्वपति ने कहा कि 'पंच प्राण' व शरीर की विभिन्न कर्मेन्द्रियों का अटूट सम्बन्ध है। यदि वैश्वानर विद्या को अच्छी प्रकार से जानकर यज्ञकर्म किया जाये, तो सभी कर्मेंन्द्रियों में 'ब्रह्मतेज' का उदय होना अनिवार्य है।
सर्वप्रथम पकाये हुए भोजन से 'प्राणाय स्वाहा' मन्त्र पढ़कर यज्ञ में आहुति दें। इससे 'प्राण' तृप्त होते हैं, चक्षुओं के तृप्त होने से सूर्य तृप्त होता है, सूर्य के तृप्त होने से 'द्युलोक' (आकाश) तृप्त होता है, द्युलोक के तृप्त होने से स्वयं भोग लगाने वाला साधक, ब्रह्मतेज से तृप्त हो जाता है।
इसी प्रकार दूसरी आहुति, 'व्यानाय स्वाहा' मन्त्र पढ़कर 'व्यान' को तृप्त करें। व्यान की तृप्ति से कर्मेन्द्रियां तृप्त हो जाती है।
तीसरी आहुति 'अपानाय स्वाहा' मन्त्र से दें। इससे 'अपान' तृप्त होता है और अपान की तृप्ति से वागिन्द्रिय (वाणी) की तृप्ति होती है।
चौथी आहुति 'समानाय स्वाहा' से दें। इससे 'समान' तृप्त होता है। और समान की तृप्ति से 'मन' तृप्त होता है।
पांचवीं आहुति 'उदानाय स्वाहा' से दें। इससे उदान तृप्त होता है और उदान की तृप्ति से 'त्वचा' की तृप्ति होती है।
इस प्रकार किये गये यज्ञकर्म से 'ब्रह्मतेज' तृप्त होता है और उसके तृप्त होने से सम्पूर्ण पाप जलकर नष्ट हो जाते हैं तथा समस्त आत्माओं और लोकों में ब्रह्मतेज का प्रादुर्भाव हो जाता है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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