छान्दोग्य उपनिषद अध्याय-6 खण्ड-1 से 2
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छान्दोग्य उपनिषद अध्याय-6 खण्ड-1 से 2
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विवरण | 'छान्दोग्य उपनिषद' प्राचीनतम दस उपनिषदों में नवम एवं सबसे बृहदाकार है। नाम के अनुसार इस उपनिषद का आधार छन्द है। |
अध्याय | छठा |
कुल खण्ड | 16 (सोलह) |
सम्बंधित वेद | सामवेद |
संबंधित लेख | उपनिषद, वेद, वेदांग, वैदिक काल, संस्कृत साहित्य |
अन्य जानकारी | सामवेद की तलवकार शाखा में छान्दोग्य उपनिषद को मान्यता प्राप्त है। इसमें दस अध्याय हैं। इसके अन्तिम आठ अध्याय ही छान्दोग्य उपनिषद में लिये गये हैं। |
- छान्दोग्य उपनिषद के अध्याय छठे का यह प्रथम से दूसरा खण्ड है। इस अध्याय के पहले दो खण्डों में 'जगत की उत्पत्ति' के विषय में बताया गया है।
- अपने पुत्र श्वेतकेतु को समझाते हुए ब्रह्मऋषि उद्दालक ने कहा कि "सृष्टि के प्रारम्भ में एक मात्र 'सत्' ही विद्यमान था। फिर किसी समय उसने अपने आपकों अनेक रूपों में विभक्त करने का संकल्प किया। उसके संकल्प करते ही उसमें से 'तेज' प्रकट हुआ। तेज में से 'जल' प्रकट हुआ। संकल्प द्वारा प्रकट होने वाले उस 'तेज' को वेद में 'हिरण्यगर्भ' कहा गया है। सृष्टि का मूल क्रियाशील प्रवाह यह 'जलतत्त्व' ही है, जो तेज से प्रकट होता है। उस जल के प्रवाह से अतिसूक्ष्म कण बने और कालान्तर में यही सूक्ष्म कण एकत्र होकर 'पृथ्वी' का कारण बने। प्रारम्भ से सृष्टि-सृजन की पहली आहुति द्युलोक में ही हुई थी। उसी में विद्यमान 'सत्' से 'तेज' और तेज से 'जल' की उत्पत्ति हुई थी तथा जल के सूक्ष्म पदार्थ कणों के सम्मिलन से पृथ्वी का निर्माण हुआ था। धरती से अन्न का उत्पादन हुआ तथा दूसरे चरण में सूर्य उत्पन्न हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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छान्दोग्य उपनिषद अध्याय-2 |
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