जावट ग्राम नन्दगाँव
जावट ग्राम नन्दगाँव
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विवरण | यह नन्दगाँव के पूर्व में लगभग दो मील की दूरी पर स्थित है। कभी विलास के समय श्रीराधिका जी के चरण कमलों का महावर रसिक श्रीकृष्ण ने अपने वक्ष स्थल पर जहाँ धारण किया था, उस वटवृक्ष से सुशोभित स्थान का नाम याव गाँव या जावट गाँव प्रसिद्ध है। |
राज्य | उत्तर प्रदेश |
ज़िला | मथुरा |
प्रसिद्धि | हिन्दू धार्मिक स्थल |
कब जाएँ | कभी भी |
बस, कार, ऑटो आदि | |
क्या देखें | नन्दगाँव, नन्द जी मंदिर, जटिला की हवेली, बरसाना, लट्ठमार होली, नंदकुण्ड, पानीहारी कुण्ड, नन्द बैठक आदि। |
एस.टी.डी. कोड | 05622 |
संबंधित लेख | नंदगाँव, कृष्ण, राधा, वृषभानु, जटिला, ललिता सखी, विशाखा सखी, वृन्दावन, मथुरा, गोवर्धन, आदि।
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अन्य जानकारी | जावट गाँव के पश्चिम भाग में ऊँचे टीले पर जटिला की हवेली है इसमें जटिला, कुटिला और अभिमन्यु की मूर्तियाँ हैं। अब यहाँ पर वर्तमान समय में श्रीराधाकान्तजी का मन्दिर है, जिसमें राधा एवं कृष्ण के दर्शन हैं। |
अद्यतन | 15:14, 6 अगस्त 2016 (IST)
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जावट ग्राम / याव ग्राम
नन्दगाँव के पूर्व में लगभग दो मील की दूरी पर जावट या याव ग्राम' स्थित है। यह राधा-कृष्ण युगल के अत्यन्त रहस्यपूर्ण विलास का स्थान है। उन सबका वर्णन करना सम्भव नहीं है। कभी विलास के समय श्रीराधिका जी के चरण कमलों का जावक[1] रसिक श्रीकृष्ण ने अपने वक्ष स्थल पर जहाँ धारण किया था, उस वटवृक्ष से सुशोभित स्थान का नाम याव गाँव या जावट गाँव प्रसिद्ध है।
इसी गाँव में जटिला गोपी अपने पुत्र अभिमन्यु एवं कन्या कुटिला के साथ निवास करती थी। महाराज वृषभानु गोप ने योगमाया पूर्णमासी की आज्ञानुसार अपनी लाड़ली बेटी श्रीराधिका का विवाह जटिला के पुत्र अभिमन्यु के साथ किया था। अभिमन्यु अपने को श्रीराधिका का पति होने का अभिमान तो रखता था, किन्तु भगवती योगमाया के प्रभाव से वह राधिका जी की छाया को भी स्पर्श करने में समर्थ नहीं था। वह सदैव किसी विशेष संकोचवश गोशाला में अपनी गऊओं को संभालने अथवा अपने समवयस्क गोपों के संग में मग्न रहता था।
महाराज वृषभानु ने अपनी प्यारी बेटी के लिए जावट में एक सुन्दर राजभवन का निर्माण करवा दिया था। इसमें राधिका जी अपनी सहेलियों के साथ आनन्दपूर्वक निवास करती थीं। मुखरा जी प्रतिदिन प्रात:काल अपनी प्यारी पौत्री को देखने के लिए आती थीं। भक्तिरत्नाकर में इन सब लीलाओं का बड़ा ही मर्मस्पर्शी मधुर वर्णन है।
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जटिला और कुटिला गृहकार्यों में संलग्न रहती थी। इधर विदग्ध सखियाँ नाना प्रकार के छल-बहानों का आश्रय लेकर राधिका से श्रीकृष्ण का मिलन कराती थीं। वास्तव में यह परकीया भाव रसपोषण के लिए योगमाया द्वारा सिद्ध हैं क्योंकि राधिका श्रीकृष्ण की आह्लादिनी शक्ति की मूर्त्त विग्रह तथा नित्य कृष्णकान्ता-शिरोमणि हैं। जिस प्रकार आग और उसकी दाहिका शक्ति अथवा सूर्य और उसका प्रकाश नित्य अभिन्न हैं, उन्हें कभी भी अलग-अलग नहीं किया जा सकता, उसी प्रकार श्रीकृष्ण और उनकी पराशक्ति श्रीराधा जी अभिन्न और अविछिन्न हैं। केवल रस विलास के आस्वादन के लिए ही एक ही आत्मा दो स्वरूपों में प्रकाशित है। जिस प्रकार रावण छाया सीता का ही अपहरण कर सका था, मूल सीता का स्पर्श भी नहीं कर पाया था, उसी प्रकार यहाँ अभिमन्यु के साथ राधिका के सम्बन्ध में विचार किया जाता है। [2] महाराज वृषभानु ने अपनी प्यारी बेटी के लिए जावट में एक सुन्दर राजभवन का निर्माण करवा दिया था । इसमें राधिका जी अपनी सहेलियों के साथ आनन्दपूर्वक निवास करती थीं। मुखरा जी प्रतिदिन प्रात:काल अपनी प्यारी पौत्री को देखने के लिए आती थीं। भक्तिरत्नाकर में इन सब लीलाओं का बड़ा ही मर्मस्पर्शी मधुर वर्णन है।[3]
- प्रसंग
किसी समय राधिका के मान के कारण श्रीकृष्ण राधिका से मिल नहीं सके। वे अत्यन्त विरह से कातर हो गये। एक दिन कृष्ण विशाखा से परामर्श कर एक विप्र बटुक का (छात्र) वेश धारण करके-बगल में पोथी, कन्धे पर यज्ञोपवीत, पैरों में खड़ाऊँ, हाथों में दण्ड और भिक्षा पात्र धारणकर जावट गाँव में कुटिला के द्वार पर उपस्थित होकर अलख जगाने लगे। प्रात:काल का समय था। जटिला, कुटिला दोनों गोबर के कण्डे बना रही थीं। स्नान इत्यादि नहीं किया था। अपवित्र अवस्था में भिक्षा न दे सकने के कारण जटिला ने पुकारकर बहू राधिका को भिक्षा देने के लिए आदेश दिया। किन्तु उन्होंने परपुरुष के सामने आने से निषेध कर दिया। किन्तु वह भिक्षु वटु भी निराले ढंग का था, बोला- मैया ! मैं अधिक देर नहीं ठहर सकता। केवल एक गोदोहन काल तक ही मैं प्रतीक्षा कर सकता हूँ। अब मैं लौट रहा हूँ। जटिला जी ने सोचा यदि यह विप्र बटु ख़ाली हाथ लौट गया तो मेरे कुल के लिए बहुत ही अशुभ होगा। गऊएँ मर जाएँगी अथवा किसी की मृत्यु भी हो सकती है। इसलिए गृह में प्रवेश कर बहू को बहुत प्यार से समझाकर कुछ भिक्षा देने के लिए बारम्बार अनुरोध किया और स्वयं पुन: कण्डे थापने चली गई। इधर ललिता, विशाखा आदि सखियों के साथ रधिका घूँघट निकालकर हाथों में आटा, दाल, सब्जी से भरे एक पात्र को लेकर भिक्षा देने के लिए द्वार पर उपस्थित हुई। उन्होंने घूँघट काढ़े हुए अवस्था में ही भिक्षुक को भिक्षा देनी चाही, किन्तु भिक्षुक ने अनुनय विनय के स्वर में कहा- मुझे अपने दुर्लभ मान को प्रदान करें। ऐसा सुनते ही प्रिया जी समझ गईं, उन्होंने मुस्कुराते हुए घूँघटे को कुछ ऊपर उठाकर बटुक के सिर पर भिक्षा के द्रव्य उड़ेल दिये। बटु निहाल होकर राधिका की इस भिक्षा का स्मरण करता हुआ आनन्द से लौट गया।
- दूसरा प्रसंग
एक समय माँ यशोदा अपने भण्डारघर में एक बड़े से सन्दूक में मूल्यवान वस्त्र-लहँगे, चोलियाँ, ओढ़नी तथा विविध प्रकार के अलंकार सजाकर रख रही थीं। इतने में नटखट कृष्ण वहाँ आ धमके। वे पीछे से मैया के गले में हाथ डालकर बड़े आग्रह से पूछने लगे- मैया ! क्या आज मेरा जन्मदिवस है जो आप मेरे लिए इन वस्त्रों एवं अलंकारों को सज़ा रही हो। मैया ने जरा खीजकर कहा- जाओ अभी खेलो, मुझे तंग मत करो। यह सुनकर कृष्ण कुछ अनमने होकर वहाँ से चले तो गये किन्तु छिपकर देखने लगे। मैया जावट में राधिका को भेजने के लिए इस सन्दूक को प्रस्तुत कर रही थीं। कठोर हृदय जटिला को प्रसन्न रखने लिए बीच-बीच में ऐसे ही उपहार वहाँ भेजा करती थीं, जिससे वह अपनी बहू को यहाँ आने से निषेध न करें।
श्रीकृष्ण बहुत चतुर थे, वे इस विषय को समझ गये। जब मैया इससे निपटकर किसी दूसरे काम में संलग्न हो गई, तो कृष्ण सुबल सखा को साथ लेकर वहाँ पहुँचे। सन्दूक से सारा सामान निकालकर स्वयं उस में बैठ गये। सुबल ने सन्दूक को बन्द कर पूर्ववत ताले जड़ दिये। इधर यशोदा जी के अनुरोध से अभिमन्यु उस सन्दूक को लेने आया, क्योंकि बहुमूल्य द्रव्यों से भरे सन्दूक को किसी दूसरे को नहीं दिया जा सकता था। अभिमन्यु सन्दूक को सिर पर रखकर बड़े कष्ट से जावट ग्राम में अपनी मैया के पास ले गया। मैया ने कहा- बेटा, इस सन्दूक में बहू के लिए अत्यन्त मूल्यवान वस्त्र एवं अलंकार भरे हुए हैं। तुम उसी के पास रख आओ। वह प्रसन्नता से राधिका के पास इस सन्दूक को रख आया। उसके वहाँ से चले जाने के बाद सखियों ने बड़ी उत्सुकता से सन्दूक को खोला और कौतुकी श्यामसुन्दर को उसमें बैठे हुए देखकर खिलखिलाकर हँस पड़ी। फिर तो आनन्द की सीमा नहीं रही। राधा और कृष्ण दोनों बड़े प्रेम से मिले, सखियाँ भी निहाल हो गईं।
तीसरा प्रसंग
किसी समय राधिका मान करके बैठ गई और कुछ दिनों तक कृष्ण से नहीं मिलीं। सखियाँ उनको विविध प्रकार से मान परित्याग करने के लिए समझा रही थीं। किन्तु इस बार उनका मान बड़ा ही दुर्जेय था। इधर श्रीकृष्ण, राधा के विरह में अत्यन्त कातर हो रहे थे। उनको अत्यन्त विरहातुर देखकर सुबल सखा उनका राधा जी से मिलन कराने का उपाय सोचने लगा। वह वयस तथा रूप, बोली आदि में ठीक राधिका के समान था तथा अनेक कलाओं में पारदर्शी था। उसने कृष्ण को सांत्वना देते हुए कहा- तुम इतने व्याकुल क्यों हो रहे हो? तुम इसी कुञ्ज में थोड़ी देर प्रतीक्षा करो, मैं प्रिया जी के साथ तुम्हारा मिलन कराता हूँ। ऐसा कहकर वह याव ग्राम चला गया। वहाँ जटिला ने उसे देखकर कहा- अरे सुबल ! तू तो लम्पट कृष्ण का सखा है। इधर हमारी हवेली के पास क्यों मँडरा रहा है? जल्दी यहाँ से भाग जा। सुबल ने कहा- मैया ! मेरा एक बछड़ा खो गया है, वह कहीं मिल नहीं रहा है मैं उसको खोजने के लिए आया हूँ। जटिला ने कहा- यहाँ तेरा कोई बछड़ा–बछड़ा नहीं आया तू शीघ्र भाग जा, किन्तु सुबल के बारम्बार अनुरोध करने पर उसने कहा- मैं अभी कण्डे बना रही हूँ। तुम खिड़क में जाकर देख लो। यदि तुम्हारा बछड़ा हो तो ले जाओ। सुबल जी प्रसन्न होकर खिड़क से होते हुए राधिका जी की अटारी में पहुँचे। उन्होंने कृष्ण के विरह का ऐसा वर्णन किया कि राधिका जी का हृदय पिघल गया तथा वे तुरन्त कृष्ण को सांत्वना देने के लिए[4] प्रस्तुत हो गईं। किन्तु जाएँ तो कैसे? सुबल ने अपने वस्त्र देकर राधिका जी का ठीक अपने जैसा वेश बना दिया। सिर पर टेढ़ी पाग, कमर में धोती, हाथ में लठिया, गले में गुञ्जा माला और गोदी में एक छोटा सा बछड़ा मानो सुबल ही अपने खोये हुए बछड़े को अपनी गोदी में लेकर मुस्कराता हुआ जा रहा है। गोदी में बछड़ा इसलिए कि कोई भी उनका वक्षस्थल देखकर शक न कर सके। इधर सुबल राधिका का वेश धारण कर सखियों के साथ बातें करने लगा। जब राधिका जी सुबल के वेश में खिड़क से निकल रही थीं, उस समय जटिला ने उन्हें देखकर कहा- क्या बछड़ा मिल गया? राधिका जी ने सुबल के स्वर में कहा- मैया! बछड़ा मिल गया, देखो- यही मेरा बछड़ा है, जटिला को तनिक भी सन्देह नहीं हुआ। राधिका सुबल के बतलाये हुए संकेतों से कृष्ण के निकट पहुँचीं तो कृष्ण ने विरह में दु:खी होकर पूछा– सखे! मेरी प्रिया जी को नहीं ला सके, मेरे प्राण निकल रहे हैं मैं क्या करूँ, कहाँ जाऊँ? कृष्ण की ऐसी दशा देखकर राधिका जी से रहा नहीं गया। उन्होंने बछड़े को रख दिया और कृष्ण से लिपट गई। राधा जी का कोमल स्पर्श और अंगों का सौरभ पाकर कृष्ण सब कुछ समझ गये। उनका सारा खेद दूर हो गया। वे सुबल की बुद्धि की पुन:-पुन: प्रशंसा करते हुए प्रिया जी के साथ क्रीड़ा-विनोद करने लगे। कुछ देर बाद सुबल भी यहाँ उपस्थित हो गया और दोनों का मिलन देख बड़ा ही प्रसन्न हुआ।
चतुर्थ प्रसंग
एक समय श्रीकृष्ण राधिका से मिलने के लिए अत्यन्त उत्कण्ठित हो विह्वल हो गये। वे रात के समय जावट पहुँचकर जटिला की हवेली के पास ही एक बेर के पेड़ के नीचे खड़े होकर राधिका जी से मिलने की प्रतीक्षा करने लगे तथा इसी पेड़ की डाल पर बैठकर ठीक कोयल की भाँति कुहकने लगे। राधिका और उनकी सहेलियाँ समझ गई कि यह कोकिल और कोई नहीं श्रीकृष्ण ही मिलने की उत्कण्ठा में बेर के पेड़ के नीचे प्रतीक्षा कर रहे हैं। कृष्ण जैसे ही भवन में प्रवेश के लिए चेष्टा करते सतर्क जटिला थोड़ी-सी आहट पाकर ही चिल्ला उठती 'को ऐ रे', ऐसा सुनकर कृष्ण पुन: झाड़ियों के बीच में छिप जाते। इस प्रकार कृष्ण सारी रात राधिका से मिलने की प्रतीक्षा करते रहे। किन्तु मिल नहीं सके। ज्यों ही वे हवेली के भीतर प्रवेश करना चाहते, जटिला के शब्द सुनकर पुन: छिप जाते। अन्त में हताश होकर लौट आये। श्रीरूप गोस्वामी ने 'उज्ज्वलनीलमणि' नामक ग्रन्थ के एक प्रसंग में ऐसा लिखा है-
संकेतीकृतकोकिलादिनिनदं कंसद्विष: कुर्वतो
द्वारोन्मोचनलोलङ्खवलयक्वाणं मुहु: श्रृण्वत:।
केयं केयमिति प्रगल्भजरतीवाक्येन दूनात्मनो।
राधाप्राग्ङणकोणकोलिविटपिक्रोड़े गता शर्वरी।। (उज्ज्वलनीलमणि)
एक सखी अपनी प्रिय सखी को बीती रात श्रीराधा-कृष्ण की पराधीनतापूर्ण चरित्र का वर्णन कर रही है। पिछली रात को श्रीकृष्ण राधिका के आँगन में बेर के नीचे खड़े होकर बार-बार कोयल पक्षी की भाँति निनाद[5] करने लगे। इस संकेत को समझकर राधिका जी जब-जब कपाट खोलने के लिए प्रस्तुत होतीं, तब-तब उनकी चूड़ियों एवं नुपूरों की ध्वनि होती और श्रीकृष्ण भी उसे सुनते थे किन्तु गृह के भीतर से प्रगल्भा वृद्धा जटिला के पुन:-पुन: 'को ए रे' चिल्लाहट को सुनकर श्रीकृष्ण ने रात भर व्यथित चित्त से उस बेर-वृक्ष के नीचे ही व्यतीत कर दी।
दर्शनीय स्थान
- जटिला की हवेली- गाँव के पश्चिम भाग में ऊँचे टीले पर जटिला की हवेली है इसमें जटिला, कुटिला और अभिमन्यु की मूर्तियाँ हैं। अब यहाँ पर वर्तमान समय में श्रीराधाकान्त जी का मन्दिर है, जिसमें राधा एवं कृष्ण के दर्शन हैं। सखियाँ यहीं पर जटिला, कुटिला और अभिमन्यु को वंचित कर राधिका जी से कृष्ण का मिलन कराती थीं।
- खिड़क या वत्सखोर- सुबल सखा ने अपने बछड़े के खो जाने के बहाने जटिला जी को वंचित कर राधिका को अपने वेश में कृष्ण से मिलने के लिए भेजा था। आज भी अभिमन्यु का यह खिड़क वत्सखोर के नाम से प्रसिद्ध है।
- बेरिया- खिड़क के पास ही बेरिया स्थित है। यहीं पर सघन कुञ्जों के बीच में एक बेर का पेड़ था। जहाँ किसी समय कृष्ण रात भर राधिका से मिलने की प्रतीक्षा करते रहे।
- पानिहारी कुण्ड- बेरिया के उत्तर में पास ही पानिहारी कुण्ड स्थित है। जहाँ गोपियाँ पानी भरने के लिए जाती थीं। कभी-कभी कृष्ण इस पानिहारी कुण्ड पर गोपियों से मिलते थे।
- मुखरा मार्ग- इसी मार्ग से मुखरा जी अपनी पौत्री राधिका से मिलकर उन्हें आर्शीवाद देने के लिए प्रतिदिन प्रात:काल उल्लासपूर्वक आती थीं तथा उन्हें आशीर्वाद देकर इसी मार्ग से लौट जाती थीं।
- कुटिला दूषण स्थान- यहाँ जटिला की कन्या कुटिला अपने कुटिल स्वभाव के कारण सदैव राधिका पर नाना प्रकार से आक्षेप करती थी। झूठ-मूठ राधिका पर दोषों का आरोप लगाती थी। उसने किसी समय यहीं पर कृष्ण को राधिका से मिलते हुए देखा तो उसने उस कमरे का दरवाज़ा बन्द कर दिया तथा हो–हल्ला मचाकर अपनी मैया जटिला, भैया अभिमन्यु छोटा भैया दुर्मद और पूर्णिमा सबको एकत्र कर लिया तथा उनसे कहने लगी- इसी कोठरी में मैंने कलंकिनी बहू को कृष्ण के साथ बन्द कर रखा है। परन्तु सबके सामने जब कपाट खोला गया तो वहाँ सबने राधा जी को काली मूर्ति की पूजा करते हुए देखा फिर क्या था? सभी लोग कुटिला को व्यर्थ ही किसी पर कलंक लगाने के लिए डाँटने लगे। वह बेचारी मुँह लटकाये हुए वहाँ से चली गई।
- राधिकागमन पथ-सखियों के साथ राधिका जी इसी मार्ग से होकर सूर्य पूजा करने के लिए जाती आती थीं। मार्ग में पास ही कदम्ब कानन है, जहाँ श्रीकृष्ण बड़ी उत्सुकता से आती-जाती हुई राधिका का दर्शन करते तथा उनके वस्त्रांचल को खींचते थे|[6]
- पीवन कुण्ड- कदम्ब कानन के बीच में पीवन कुण्ड है, जहाँ कौतुकी कृष्ण ने सखियों के इंगित से राधिका के अधरसुधा का पान किया था इसलिए इस कुण्ड का नाम पीवनकुण्ड हुआ है। यह कुण्ड दोनों के प्रीतिमय विलास का स्थान है [7]
- कृष्ण कुण्ड- सघन वटवृक्षों से परिवेष्टित यह स्थान राधा-कृष्ण युगल के नाना प्रकार की क्रीड़ा-विलास को अपने अंक में छिपाकर अवस्थित है। यह कुण्ड गाँव के दक्षिण में है।[8]
- लाड़ली कुण्ड- यहाँ ललिताजी गुप्तरूप से राधाकृष्ण युगल का मिलन कराती थीं।
- नारद कुण्ड या वरप्राप्ति स्थल- यहाँ पर दुर्वासा ऋषि ने राधिका जी को अमृत हस्त होने का वर दिया था अर्थात् तुम अपने हाथों से जो कुछ पाक करोगी वह सब द्रव्य अमृत-स्वरूप हो जायेगा। जो कोई तुम्हारे हाथ से पके अन्न-व्यञ्जन आदि को ग्रहण करेगा, वह चिरंजीवी; सुर-असुर सबको पराजित करने वाला, महापराक्रमी और अजेय होगा। पद्मपुराण में इस आख्यान का वर्णन है।
- गोचारण पथ- सखाओं के साथ श्रीकृष्ण इसी मार्ग से गोचारण के लिए जाते और गोचारण से लौटते थे। उस समय अलक्षित रूप में यहीं पर राधा-कृष्ण युगल एक दूसरे का दर्शन करते थे। [9]
- किशोरी कुण्ड या राधाकुण्ड- गाँव के पूर्व में किशोरी जी का मन्दिर और किशोरी कुण्ड है। कभी-कभी श्रीकृष्ण यहाँ सखियां एवं श्रीराधिका जी के साथ इस कुण्ड में जल-क्रीड़ा करते थे। सखियों के अंगों में लगी हुई कुमकुम, केसर तथा अन्यान्य अंगराग से सिंञ्चित होकर यह कुण्ड अभी भी उन माधुर्मय लीलाओं को अपने में संजोये हुए है।
- रासमण्डल- यहाँ सखियों के साथ राधिका जी ने सप्तवर्षीय कृष्ण के साथ अत्यन्त विह्वल होकर रासादि लीलाएँ की हैं।
- पद्मावती विवाह स्थल- यहाँ पर रंगीली ब्रजबालाओं ने चन्द्रा की सखी पद्मावती जी के साथ नन्दनन्दन का विवाह रचाया था। किशोरी राधिका जी बड़ी उदार हृदय की हैं। उन्हीं के इशारे पर ललिता आदि सखियों ने पद्मावती को वधू के रूप में सजाकर पहले से ही आसन पर बैठे हुए कृष्ण के बायीं ओर बैठा दिया तथा कृष्ण के पीताम्बर के छोर से उसके वस्त्राञ्जल को बाँधकर विवाह के गीत गाने लगीं। पद्मावती अत्यन्त संकोच में पड़ी हुई कृष्ण की ओर निहारने लग गई।
- चीर कुण्ड और हिण्डोला स्थान- ये किशोरी कुण्ड के पास ही अत्यन्त रमणीय स्थान है।
- पारल गंगा- यह जावट के उत्तर-पश्चिम कोण में स्थित है। इस कुण्ड के पश्चिम तट पर एक प्राचीन पारिजात नामक वृक्ष है। वैशाख माह में इस पर फूल लगते हैं। ऐसी मान्यता है कि इसे राधा जी ने स्वयं अपने हाथों से आरोपित किया था। तभी से यह वृक्ष शाखा-प्रशाखाओं के माध्यम से अभी तक विराजमान है। कहते हैं यह पारल-गंगा एक सिद्ध सरोवर है। राधिका जी ने यहाँ भगवती गंगा की एक धारा को प्रकटित किया था।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ महावर
- ↑ राधापादतलाद्यत्र जावक: स्वलतोऽभवत्। य्रसताज्जाव वटं विख्यांत पृथ्वी तले॥ (वृहद्गौतमीय
- ↑ अभिमन्यु रहे निज गो-गोप-समाजे। जटिला कुटिला सदा रहे गृहकायें।। सखी सुचतुरा कृष्णे आनिया एथाए। दोंहार विलासे देखे उल्लास हियाय।। जटिला, कुटिला, अभिमन्यु भाड़ाईया। विलासे कौतुके कृष्ण एथाई आसिया। मुखरा नातिनी एथा देखिया उल्लासे। जटिलार प्रति कत कहे मृदुभाषे॥ एई खाने कुटिला हईया महाहर्ष। राधिकाय दूषिते करये परामर्श॥ एई पथे राधिका चलेन सूर्यालये। कदम्ब कानने रहि कृष्ण निरिखये।। पथे आसि राधिकार वस्त्र आकर्षय। राईकानु दोहार कौतुक अतिशय॥ (भक्तिरत्नाकर)
- ↑ जाने के लिए
- ↑ कुहू-कुहू
- ↑ कदम्ब कानने रहि कृष्ण निरिखये॥ पथे आसि राधिकारवस्त्र आकर्षय। राइ कानु दोहार कौतुक अतिशय॥ (भक्तिरत्नाकर)
- ↑ ए पीवन कुण्ड नदी कदम्ब कानने। सुखे राधाकृष्ण विलासये सखीसने॥ परम कौतुकी कृष्ण सखीग्ङित पाईया। राधिकार अधरसुधा पिये मत्त हईया।। भक्तिरत्नाकर
- ↑ एक समय इस सघन वट वृक्षों के नीचे श्रीकृष्ण, सहेलियों के साथ राधिका के संग में झूला-झूलने के लिए पधारे। सखियाँ कुछ विलम्ब से पहुँची। रसिक कृष्ण को कुछ कौतुक सूझा। सखियों की प्रतीक्षा किये बिना आज स्वयं ही एक वृक्ष की डाल में झूला डाल दिया और राधिका जी को झूले पर पधारने के लिए निवेदन किया किन्तु झूला कुछ ऊँचा होने के कारण वे उस पर चढ़ नहीं सकीं। कृष्ण ने अपनी दोनों भुजाओं से राधिका को उठाकर झूले पर पधाराने के बहाने अपने अंक में भर लिया। इस प्रकार हिंडोलोत्सव से पूर्व ही युवयुगल रस हिलोरों में लहराने लगे। इसी समय पीछे से हँसती-खिलखिलाती सखियाँ भी इस हिडोलोत्सव में सम्मिलित होकर रस में सराबोर हो गयीं।
- ↑ फुल्लेन्दिवर-कान्तिमिन्दु-वदनं बर्हावतंसप्रियं। श्रीवत्साक्ङमुदार कौस्तुभधरं पीताम्बरं सुन्दरम्। गोपीनां नयनोत्पलार्चित तनुं गोगोपं –संघावृतं। गोविन्दं कलवेणु-वादनपरं दिवयाग्ङभूषं भजे