डूप्ले का पूरा नाम 'जोसेफ़ फ़्रैक्वाय डूप्ले' था। वह फ़्राँसीसी ईस्ट कम्पनी की व्यापारिक सेवा में भारत आया और बाद को 1731 ई. में चन्द्रनगर का गवर्नर बन गया। 1741 ई. में वह पाण्डिचेरी का गवर्नर-जनरल बनाया गया और 1754 ई. तक इस पद पर रहा, जहाँ से वह वापस बुला लिया गया। वह योद्धा न होते हुए भी एक कुशल राजनीतिज्ञ और राजनेता था। भारतीय इतिहास में हुए कर्नाटक युद्धों में डूप्ले ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। इन युद्धों के माध्यम से डूप्ले ने अपनी एक अमिट छाप भारतीय इतिहास में छोड़ी है।
दूरदर्शी व्यक्ति
डूप्ले ने अपनी दूरदृष्टि से ये देख लिया[1] कि 18वीं शताब्दी ई. के पंचम दशक में दक्षिण भारत के राजनीतिक संतुलन में परिवर्तन घटित हो रहा है। तत्कालीन दक्षिण भारत की राजनीतिक व्यवस्था की कमज़ोरियों को उसने समझा और इस बात को भी महसूस किया कि एक छोटी सी यूरोपियन सेना लम्बी दूरी की मार कर सकने वाली तोपों, जल्दी गोली दाग़ने वाली पैदल सिपाहियों की बन्दूकों और प्रशिक्षित सैनिकों की सहायता से दक्षिण भारत की राजनीति में निर्णायक भूमिका अदा कर सकती है। इस समय फ़्राँस और इंग्लैंण्ड के बीच युद्ध चल रहा था। डूप्ले का उद्देश्य मद्रास पर क़ब्ज़ा करके ब्रिटिश शक्ति को पंगु बना देना था। इसी उद्देश्य से उसने फ़्राँसीसी जलसेनापति ला बोर्दने को अपना जहाज़ी बेड़ा सशक्त करने के लिए धन दिया और सितम्बर, 1746 ई. में मद्रास अंग्रेज़ों से छीन लिया। ला बोर्दने, अंग्रेज़ों से घूस लेकर मद्रास वापस कर देना चाहता था। लेकिन डूप्ले ने बड़ी चतुराई से ऐसा नहीं होने दिया। बरसात आने पर ला बोर्दने के बेड़े ने जब मद्रास से हटकर आयल्स आफ़ फ़ाँस में अड्डा जमाया, तो डूप्ले ने स्वयं जाकर मद्रास पर अधिकार किया।
डूप्ले की सफलता
डूप्ले अंग्रेज़ों के निकटवर्ती सेट डेविड के क़िले को लेना चाहता था, लेकिन विफल हो गया। किन्तु अन्य स्थानों पर उसे उल्लेखनीय सफलताएँ मिली। कर्नाटक के नावब अनवरुद्दीन ने एक बड़ी सेना मद्रास पर क़ब्ज़ा करने के लिए भेजी, लेकिर उसे दो बार फ़्राँसीसी भारतीय सेना द्वारा परास्त किया गया। ये दोनों युद्ध कावेरी पाक और सेंट टोम में हुए। यूरोप में फ़्राँस और इंग्लैंण्ड के बीच युद्ध 1748 ई. में समाप्त हो गया। दोनों देशों के बीच एक्स-ला-चैपेल की संधि हुई, जिसके अनुसार मद्रास अंग्रेज़ों को वापस कर दिया गया। इस प्रकार डूप्ले ने जो श्रम किया, वह व्यर्थ गया। कुछ भी हो, डूप्ले ने यह सिद्ध कर दिया कि यूरोपीय ढंग से प्रशिक्षित और आधुनिक शास्त्रों से लैस छोटी सी फ़ाँसीसी भारतीय सेना इस देश की विशाल भारतीय सेनाओं की अपेक्षा कहीं अधिक श्रेष्ठ है।
हस्तक्षेप की नीति
डूप्ले ने अपने इस अनुभव का प्रयोग करके दक्षिण भारत की रियासतों के आन्तरिक मामलों में दख़ल देना शुरू कर दिया। ये रियासतें बाहर से देखने पर बड़ी सशक्त जान पड़ती थीं, किन्तु सैनिक दृष्टि से बहुत कमज़ोर तथा आन्तरिक विग्रह से पीड़ित थीं। 1748 ई. में हैदराबाद के निज़ाम के मरने पर जब उत्तराधिकार का झगड़ा चला तो डूप्ले ने हस्तक्षेप किया और निज़ाम के पुत्र नासिरजंग के विरुद्ध पोते मुजफ़्फ़रजंग का पक्ष लिया। इसी रीति से डूप्ले ने कर्नाटक में नवाब अनवरुद्दीन के विरुद्ध चंदा साहब का पक्ष समर्थन किया। आरम्भ में डूप्ले को कुछ सफलता भी मिली। 1749 ई. में आम्बूर की लड़ाई में अनवरुद्दीन मारा गया। उसका पुत्र मुहम्मद अली भागकर त्रिचनापल्ली पहुँच गया, जहाँ चन्दा साहब और फ़्राँसीसियों की सेना ने उसे घेर लिया।
फ़्राँसीसियों की असफलता
दूसरी ओर हैदराबाद में 1750 ई. में नासिरजंग मारा गया और फ़्राँसीसी जनरल बुसी के संरक्षण में मुजफ़्फ़रजंग निज़ाम की गद्दी पर बैठा दिया गया। नये निज़ाम ने डूप्ले को कृष्णा नदी के दक्षिण में समस्त मुग़ल प्रदेश का निज़ाम मान लिया। नये निज़ाम ने पांडिचेरी के आसपास के क्षेत्र तथा उड़ीसा के तटीय क्षेत्र और मसुलीपट्टम भी फ़्राँसीसियों को दे दिये। इस प्रकार डूप्ले ने भारत में फ़्राँसीसी साम्राज्य की स्थापना के स्वप्न को साकार होते देखा। लेकिन बाद में उसका पासा पलटने लगा। वह जिन फ़्राँसीसियों जनरलों पर निर्भर था, वे बड़े अयोग्य साबित हुए, फलत: उसकी योजनाएँ विफल होने लगीं। फ़्राँसीसी सेनापति त्रिचनापल्ली पर क़ब्ज़ा न कर सके। फ़्राँसीसियों के द्वारा त्रिचनापल्ली की घेराबंदी इतने लम्बे समय तक चली कि अंग्रेज़ी सेना कर्नाटक के शहजादे की मदद के लिए आ गई। दूसरी ओर राबर्ट क्लाइब के नेतृत्व में एक अंग्रेज़ी सेना ने कर्नाटक की राजधानी अर्काट के क़िले को घेर लिया। यह घेरा 50 दिन तक चला। कुछ और अंग्रेज़ी सेना आ जाने पर क्लाइब ने चंदा साहब का पराजित करके मार डाला।
फ़्राँसीसी सरकार का निर्णय
इसी बीच नया निज़ाम मुजफ़्फ़रजंग भी मारा गया। उसकी जगह सलाबजंग गद्दी पर बैठा। उसने भी फ़्राँसीसियों से मैत्री क़ायम रखी। डूप्ले त्रिचनापल्ली पर क़ब्ज़ा करने का बराबर प्रयत्न करता रहा। उसने तंजौर के राजा को तटस्थ रखने, मराठा सरदार मुरारीराव का समर्थन प्राप्त करने और 31 दिसम्बर 1752 ई. को त्रिचनापल्ली को घेराबंदी एक बार फिर से शुरू कर दी। यह घेराबंदी 1754 ई. के मध्य तक चली। जब यह सब कुछ हो रहा था, फ़्राँस की सरकार ने डूप्ले की नीतियों की महत्ता का नहीं समझा और भारत में होने वाली इन लड़ाइयों के भारी ख़र्चे से वह परेशान हो उठी। फ़्राँसीसी सरकार ने डूप्ले का कार्य पूरा होने के पहले ही उसे 1754 ई. में वापस स्वदेश बुला लिया और उसके स्थान पर 1 अगस्त 1754 ई. को जनरल गोदेहू को नया गवर्नर-जनरल बना दिया। गोदेहू ने आते ही 1755 ई. में अंग्रेज़ों से संधि कर ली। इस संधि के अनुसार तय पाया गया कि अंग्रेज़ और फ़्राँसीसी दोनों ही भारतीय रियासतों के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करेंगे और जितना-जितना क्षेत्र अंग्रेज़ों और फ़्राँसीसियों के पास है, वह उनके पास ही बना रहेगा।
डूप्ले की मृत्यु
इस प्रकार से फ़्राँसीसी सरकार ने ही डूप्ले की नीति को विफल कर दिया। यह अवश्य हुआ कि हैदराबाद के निज़ाम के दरबार में फ़्राँसीसियों का प्रभाव बना रहा और वहाँ जनरल बुसी के नेतृत्व में फ़्राँसीसी भारतीय फ़ौज तैनात रही। निराश डूप्ले की मृत्यु फ़्राँस में 1763 ई. में ग़रीबी की दशा में हुई।
डूप्ले भले ही विफल रहा, पर यह मानना पड़ेगा कि वह भारतीय इतिहास का एक प्रतिभाशाली और शक्तिमान व्यक्ति था। डूप्ले ने जिस राजनीतिक दूरदृष्टि का परिचय दिया, उससे अंग्रेज़ों ने बाद में स्वयं लाभ उठाया। यद्यपि फ़्राँसीसी-भारतीय साम्राज्य की स्थापना करने का डूप्ले का स्वप्न साकार नहीं हुआ, तथापि ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य की स्थापना मुख्यत: डूप्ले की दूरदृष्टि के ही आधार पर हुई।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
भट्टाचार्य, सच्चिदानन्द भारतीय इतिहास कोश, द्वितीय संस्करण-1989 (हिन्दी), भारत डिस्कवरी पुस्तकालय: उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, 183।
- ↑ जैसा कि कोई नहीं कर सका