डच ईस्ट इण्डिया कम्पनी अथवा नीदरलैण्ड की 'यूनाइटेड ईस्ट इण्डिया कम्पनी' की स्थापना 1602 ई. में हुई थी। इस कम्पनी को बहुत अधिक वित्तीय साधन और सुविधाएँ प्राप्त थीं। कम्पनी को डच सरकार का भी पूरा समर्थन प्राप्त था। शुरू में अंग्रेज़ों की तरह डच लोगों का भी पुर्तग़ालियों ने विरोध किया, क्योंकि उन्होंने अंग्रेज़ों की ईस्ट इण्डिया कम्पनी के सहयोग से पूर्व में पुर्तग़ालियों के व्यापार पर एकाधिकार को चुनौती देकर व्यापार में हिस्सा बाँट लिया था।
अंग्रेज़ों से प्रतिस्पर्धा
डच ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने अपना ध्यान मुख्य रूप से मसाले वाले द्वीपों से व्यापार पर केन्द्रित किया और 1623 ई. के 'अम्बोला हत्याकाण्ड' के बाद वहाँ से अंग्रेज़ों को पूर्णरूप से निकाल बाहर करने में सफल हो गयी। किन्तु भारत में डच कम्पनी को उतनी सफलता नहीं मिली। पूलीकट और मसुलीपट्टम में उसकी व्यापारिक कोठियाँ मद्रास स्थित अंग्रेज़ी कम्पनी की बराबरी कभी नहीं कर सकीं और बंगाल में चिनसुरा स्थित उसकी कोठी शीघ्र ही कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) स्थित अंग्रेज़ी कोठी के सामने फीकी पड़ी गई।
पराजय
1759 ई. के बिदर्रा युद्ध में अंग्रेज़ों ने चिनसुरा के डचों को परास्त कर दिया। इसके बाद डच लोगों ने बंगाल तथा सम्पूर्ण भारत में राजनीतिक शक्ति बनने का इरादा छोड़ दिया और अंग्रेज़ों के साथ सन्धि कर ली। इस प्रकार उनका व्यापार भारत के साथ फलता-फूलता रहा। डच कम्पनी ने मलय द्वीपसमूह में अपना विशाल साम्राज्य स्थापित किया। इन द्वीपों पर उनका आधिपत्य सन् 1952 ई. तक रहा, जब उन्होंने इण्डोनेशिया की स्वतंत्रता को मान्यता दे दी।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
भारतीय इतिहास कोश |लेखक: सच्चिदानन्द भट्टाचार्य |प्रकाशक: उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान |पृष्ठ संख्या: 179 |
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