न सुर्खी गुंचा-ओ-गुल में तेरे दहन की, न यासमन में सफाई तेरे बदन की। गुलों के रंग को क्या देखते हो, ऐ ख़ूबां, ये रंगतें हैं तुम्हारे ही पैरहन की। ये बर्क अब्र में देखे से याद आती है झलक किसी के दुपट्टे में नौ-रतन की। हज़ार तन के चलें बाँके खूब-रू, लेकिन किसी में आन नहीं तेरे बांकपन की। कहाँ तू और कहाँ उस परी का वस्ल 'नज़ीर' मियाँ तू छोड़ ये बातें दिवानेपन की।