पूर्वी भारत का इतिहास
पूर्वी भारत में भारत के पूर्व में स्थित क्षेत्र सम्मिलित हैं। भारतीय इतिहास में पूर्वी भारत के उड़ीसा, पश्चिम बंगाल और असम की अनेक ऐतिहासिक तथा महत्त्वपूर्ण घटनाएँ अपना विशिष्ट स्थान रखती है। पूर्वी भारत क्षेत्र भारत के पूर्वी तट पर झारखंड, छोटा नागपुर पठार पर, एक पहाड़ी और एक भारी वन खनिज संपदा से समृद्ध क्षेत्र है। यह उत्तर में नेपाल, सिक्किम और हिमालय, पश्चिम में उत्तर प्रदेश और छत्तीसगढ़ राज्य, दक्षिण में आंध्र प्रदेश राज्य और पूर्व में बंगाल की खाड़ी से घिरा है। यहाँ के बड़े शहरों में कोलकाता, भुवनेश्वर, पटना, कटक, रांची आदि हैं।
इतिहास
भारतीय इतिहास में इन राज्यों का बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। इतिहास में बंगाल कई बार दिल्ली सल्तनत के अधिकार से बार-बार मुक्त हुआ। इसके कई कारण थे- दिल्ली से इसकी दूरी, इसकी जलवायु और यातायात के लिए इसके जल-मार्ग, जिनसे तुर्क परिचित नहीं थे। मोहम्मद बिन तुग़लक़ द्वारा अन्य क्षेत्रों में विद्रोहियों से संघर्ष में जुझे रहने पर बंगाल 1338 में स्वतंत्र हो गया। चार वर्ष बाद ही एक सरदार इलियास शाह ने लखनौती और सोनारगाँव पर अधिकार कर लिया और सुल्तान 'शमसुद्दीन इलियास शाह' के नाम से गद्दी पर बैठा। उसने पश्चिम में तिरहुत से चंपारन और गोरखपुर तक और अंततः बनारस तक अपना राज्य फैला लिया। इससे फ़िरोज़शाह तुग़लक़ उनके विरुद्ध अभियान छेड़ने पर विवश हो गया। इलियास शाह द्वारा विजित चम्पारन और गोरखपुर से होते हुए फ़िरोज़ तुग़लक ने बंगाल की राजधानी पंडुआ पर अधिकार कर लिया और इलियास शाह को एकदाला के मज़बुत क़िले में छिपने के लिए मजबूर कर दिया। दो महीने के घेरे के पश्चात् फ़िरोज़ ने पलायन का ढोंग करके इलियास शाह को क़िले से बाहर आने का लालच दिया। बंगाली फौंजों की हार हुई, किन्तु इलियास एक बार फिर एकदाला के क़िले में जा छिपा। अन्त में दोनों में मित्रता की संधि हो गई। जिसके अंतर्गत बिहार की नदी कोसी को दोनों राज्यों की सीमा मान लिया गया। यद्यपि इलियास और फ़िरोज़ के बीच उपहारों का आदान-प्रदान होता रहा, इलियास फ़िरोज़ के अधीन नहीं था। दिल्ली के साथ मित्रता के सम्बन्धों के कारण इलियास को कामरूप (आधुनिक असम) पर अपने प्रभाव को दृढ़ करने का अवसर मिला।
इलियास शाह एक लोकप्रिय शासक था। उसकी बहुत सी उपलब्धियाँ थीं। जब फ़िरोज़ पंडुआ में था, तो उसने सरदारों, किसानों और अन्य लोगों को खुले दिल से ज़मीन बांट कर नागरिकों को अपनी ओर मिलाने की कोशिश की। उसका यह प्रयत्न व्यर्थ गया। इलियास की लोकप्रियता फ़िरोज़ की इस असफलता का एक कारण हो सकती है। फ़िरोज़ ने इलियास की मृत्यु के बाद और उसके पुत्र सिकन्दर के गद्दी पर बैठने पर बंगाल पर दुबारा आक्रमण किया। सिकन्दर ने अपने पिता का तरीक़ा अपनाया और एकदाला के क़िले तक पीछे हट गया। फ़िरोज़ एक बार फिर इसे छीनने में असफल रहा। इसके पश्चात् 1538 तक लगभग 200 वर्षों तक बंगाल से किसी ने भी छेड़छाड़ नहीं की, जब तक की दिल्ली पर मुग़लों का पूर्ण अधिकार नहीं हो गया।
विभिन्न वंशों का शासन
इस दौरान बंगाल में कई वंश हुए, जिन्होंने यहाँ अपने पाँव जमाये और शासन किया। शेरशाह ने 1538 में बंगाल पर अपना क़ब्ज़ा जमाया। वंशों के जल्दी-जल्दी बदलने से वहाँ के जन-जीवन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा था। इलियास शाह के वंश में सबसे प्रसिद्ध सुल्तान ग़यासुद्दीन आजमशाह (1389-1409) हुआ है। वह अपनी न्याय प्रियता के लिए प्रसिद्ध था। कहा जाता है कि एक बार अनजाने में एक विधवा का पुत्र उसके हाथों से मारा गया। विधवा ने क़ाज़ी से शिकायत की। सुल्तान को जब अदालत में बुलाया गया तो उसने चुपचाप अपना अपराध स्वीकार कर लिया और क़ाज़ी द्वारा लगाया गया जुर्माना भर दिया। मुक़दमे के अन्त में सुल्तान ने क़ाज़ी से कहा कि यदि तुम अपना कर्तव्य पालन नहीं करते तो मैं तुम्हारा सिर कलम करवा देता। आजमशाह का अपने समय के प्रसिद्ध विद्वानों के साथ सम्पर्क था। इनमें से प्रसिद्ध फ़ारसी कवि शीराज का हाफ़िज भी था। उसने चीनियों के साथ फिर से सम्बन्ध स्थापित किए। चीनी सम्राट ने उसके राजदूत का हार्दिक स्वागत किया और 1409 में अपने दूत के हाथों सुल्तान और उसकी बेगम के लिए उपहार भेजते हुए बौद्ध भिक्षुओं को चीन भेजने की प्रार्थना की। आजमशाह ने इस प्रार्थना को स्वीकार कर लिया। इससे यह स्पष्ट होता है कि बंगाल से बौद्ध धर्म पूरी तरह समाप्त नहीं हुआ था।
चीन से संबंध तथा व्यापार
चीन के साथ फिर से सम्बन्ध स्थापित होने से बंगाल का समुद्री व्यापार फिर से बढ़ गया। चटगाँव, चीन के साथ व्यापार के लिए और चीनी माल अन्य देशों को भेजने के लिए एक प्रमुख बंदरगाह बन गया। इस काल में राजा कंस गणोश के वंश का हिन्दू राज्य भी कुछ समय तक स्थापित हुआ। लेकिन उसके पुत्रों ने मुसलमानों के रूप में ही शासन करना अच्छा समझा। बंगाल के सुल्तानों ने अपनी राजधानियों पंडुआ और गौड़ में भव्य इमारतें बनवायीं। उनकी निजी शैली थी, जो दिल्ली में विकसित भवन-निर्माण शैली से भिन्न थी। इसमें पत्थर और ईंट दोनों का इस्तेमाल किया गया। सुल्तानों ने बंगाली भाषा को भी प्रोत्साहन दिया। 'श्रीकृष्ण विजय' के स्वायिता प्रसिद्ध कवि मालधर बसु को सुल्तानों ने वृत्ति प्रदान की और उसे 'गुणराजा ख़ान' की उपाधि दी गई। उसके पुत्र को 'सत्यराजा ख़ान' की उपाधि दी गई। किन्तु बंगाली भाषा के विकास का सबसे महत्त्वपूर्ण काल अलाउद्दीन हुसैन का शासन (1493-1519) था। उस काल के कई प्रसिद्ध बंगाली लेखक उसी के शासन काल में हुए।
उच्च पदों पर हिन्दुओं की नियुक्ति
अलाउद्दीन हुसैन के सुशासन में एक शानदार युग शुरू हुआ। सुल्तान ने क़ानून और व्यवस्था को फिर से स्थापित किया और हिन्दुओं को ऊँचे पद देकर एक उदार नीति को अपनाया। उसका वज़ीर एक विद्वान् हिन्दू था। उसके मुख्य चिकित्सक, मुख्य अंगरक्षक और टकसाल का मुख्य अधिकारी भी हिन्दू थे। दो विद्वान् भाई, रूप और सनातन, जो पवित्र वैष्णव माने जाते थे, उसके प्रमुख अधिकारी थे। उनमें से एक उसका प्रमुख निजी सचिव था। कहा जाता है कि सुल्तान प्रसिद्ध वैष्णव संत चैतन्य का भी बहुत आदर करता था।
बंगाल और असम पर नियंत्रण का प्रयास
मुहम्मद बिन बख़्तियार ख़लजी के समय से ही बंगाल के मुस्लिम सुल्तान आधुनिक असम में ब्रह्मपुत्र की घाटी को अपने अधिकार में करने का प्रयत्न करते रहे। लेकिन उन्हें इस क्षेत्र में अनेक भयंकर पराजयों का सामना करना पड़ा। क्योंकि वह क्षेत्र उनके लिए अपरिचित था। बंगाल के स्वतंत्र सुल्तानों ने भी अपने पूर्वजों के नक्शे-क़दम पर चलना चाहा। उस समय उत्तरी बंगाल और असम में दो ऐसे राज्य थे जो क़ाबू में नहीं आते थे। इनमें से कामता (तत्कालीन लेखकों के अनुसार दूसरा कामरूप) पश्चिम में था और दूसरा अहोम राज्य पूर्व में था। अहोम मंगोल प्रजाति के थे और उत्तरी बर्मा से आये थे। तेरहवीं शताब्दी में वे एक शक्तिशाली राज्य स्थापित करने में सफल हुए थे, और धीरे-धीरे उनका आचार-व्यवहार हिन्दुओं का सा हो गया। 'असम' नाम उन्हीं से निकला है।
इलियास शाह ने कामता पर आक्रमण किया और ऐसा अनुमान है कि वह गोहाटी तक पहुँच गया। किन्तु वह इस क्षेत्र पर अधिकार नहीं बनाये रख सका और करातोया नदी को बंगाल की उत्तरी-पूर्वी सीमा मान लिया गया। इलियास शाह के कुछ उत्तराधिकारियों के तगड़े आक्रमणों से भी स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं आया। कामता के शासक धीरे-धीरे करातोया नदी के पूर्वी तट के बहुत से हारे हुए क्षेत्र वापस लेने में सफल हुए। अहोमों के विरुद्ध भी उन्होंने युद्ध किया। अपने दोनों पड़ोसियों से बैर करके उन्होंने अपने भाग्य के दरवाज़े बंद कर लिए। अहोमों की सहायता लेकर अलाउद्दीन हुसैन शाह के एक आक्रमण से ही कामतापुर नगर (आधुनिक कूच बिहार) नष्ट हो गया और सारा राज्य बंगाल में मिला लिया गया। सुल्तान ने अपने एक पुत्र को उस प्रदेश का गवर्नर बना दिया और अफ़ग़ानों की एक बस्ती वहाँ बसा दी। बाद में उसने अहोम राज्य पर एक आक्रमण किया, किन्तु उसे पीछे खदेड़ दिया गया। इसमें बंगाल को बहुत हानि उठानी पड़ी। यह आक्रमण सम्भवतः अलाउद्दीन के पुत्र नुसरतशाह ने किया था। पूर्वी ब्रह्मपुत्र घाटी उस समय सुहुंगमुंग के शासन में थी। उसे सर्वश्रेष्ठ अहोम शासक माना जाता है। उसने अपना नाम बदलकर 'स्वर्ण नारायण' रख लिया था। यह अहोमों के द्वारा हिन्दू जीवन पद्धति अपनाने का प्रमुख प्रमाण है। उसने ने केवल मुस्लिम आक्रमण को पीछे खदेड़ा बल्कि अपने राज्य के चारों ओर इस क्षेत्र में वैष्णव सम्प्रदाय के प्रसार में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। बंगाल के सुल्तानो ने चटगाँव और अराकान के एक भाग को भी अपने अधीन करने का प्रयास किया। सुल्तान हुसैन शाह ने न केवल अराकान के शासक से चटगाँव छीन लिया, बल्कि तिप्पेराह को भी उसके शासक से जीत लिया।
उड़ीसा से संघर्ष
बंगाल के सुल्तानों को उड़ीसा से भी युद्ध करना पड़ा। बंगाल के सल्तनत काल में उड़ीसा के गंग शासकों ने 'राधा' (दक्षिण बंगाल) पर आक्रमण किए थे। उन्होंने लखनौती को जीतने का प्रयास भी किया। परन्तु इन आक्रमणों को विफल कर दिया गया। इलियास शाह ने अपने शासन के शुरू में ही जाजनगर (उड़ीसा) पर आक्रमण कर दिया। कहा जाता है कि सब बाधाओं को पार करते हुए वह चिल्का झील तक जा पहुँचा और कई हाथियों सहित बहुत-सा माल लूट लाया। दो वर्ष पश्चात् 1360 में बंगाल पर चढ़ाई के बाद लौटते हुए फ़िरोज़ तुग़लक ने भी उड़ीसा पर आक्रमण किया था। उसने राजधानी पर अधिकार भी कर लिया। बहुत लोगों की हत्या कर दी और प्रसिद्ध जगन्नाथ मन्दिर को भी भ्रष्ट कर दिया।
गजपति वंश का उदय
इन दो आक्रमणों के कारण शाही वंश की इज्जत समाप्त हो गई। कालान्तर में नये वंश का उदय हुआ, जो गजपति वंश के नाम से जाना जाता है। गजपति काल उड़ीसा के इतिहास में भव्य काल है। इसक शासक महान् भवन निर्माता और योद्धा थे। इन्होंने अपनी सीमाओं को दक्षिण में कर्नाटक की ओर बढ़ाया। इससे विजयनगर साम्राज्य, रेड्डियों और बहमनी साम्राज्य से उनका संघर्ष हुआ। गजपति शासकों की दक्षिण में विस्तार की नीति का एक कारण सम्भवतः यह भी था कि वे समझते थे कि उड़ीसा-बंगाल की सीमा से बंगाल के सुल्तानों को भगाना सम्भव नहीं है, क्योंकि वे बहुत शक्तिशाली थे। लेकिन उड़ीसा के शासक अपनी दक्षिण विजयों को भी अधिक समय तक सुरक्षित नहीं रख सके। क्योंकि विजयनगर और बहमनियों की शक्ति और सामर्थ्य भी कम नहीं थी।
उस काल में उड़ीसा की बंगाल से लगती हुई सीमा सरस्वती नदी थी, जिसमें गंगा का जल बहता था। मिदनापुर ज़िले का एक बड़ा अंश और हुगली ज़िले का एक हिस्सा उड़ीसा की सीमा में था। इस बात के कुछ प्रमाण मौजूद हैं कि उड़ीसा के शासकों ने भागीरथी तक अधिकार करना चाहा था। लेकिन उन्हें लौटने पर विवश होना पड़ा। अलाउद्दीन हुसैन शाह जैसे बंगाल के कुछ सुल्तानों ने भी उड़ीसा में पुरी और कटक तक आक्रमण किए। सीमा पर भी छिटपुट झड़पें होती रहती थीं। लेकिन बंगाल के सुल्तान उड़ीसा की सेनाओं को सीमा से न तो उखाड़ सके और न ही सरस्वती नदी के पार अपना अधिकार जमा सके। एक ही समय में एक दूसरे से दूर स्थित बंगाल और कर्नाटक में सफलतापूर्वक युद्धों का संचालन उड़ीसा के शासकों की शक्ति का प्रतीक है।
इन्हें भी देखें: दक्षिण भारत, उत्तर भारत, पश्चिम भारत एवं पूर्वोत्तर भारत
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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