प्रतिज्ञा उपन्यास भाग-13

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इस वक्त पूर्णा को अपनी उद्दंडता पर पश्चाताप हुआ। उसने अगर जरा धैर्य से काम लिया होता तो कमलाप्रसाद कभी ऐसी शरारत न करता। कौशल से काम निकल सकता था, लेकिन होनहार को कौन टाल सकता है? मगर अच्छा ही हुआ। बच्चा की आदत छूट जाएगी। भूल कर भी ऐसी नटखटी न करेंगे। लाला ने समझा होगा औरत जात कर ही क्या सकती है, धमकी में आ जाएगी। यह नहीं जानते थे कि सभी औरतें एक-सी नहीं होतीं।

सुमित्रा तो सुन कर खुश होगी। बच्चा को खूब ताने देगी। ऐसे आड़े हाथों लेगी कि वह भी याद करेंगे। लाला बदरीप्रसाद भी खबर लेंगे। हाँ, अम्माँ जी को बुरा लगेगा, उनकी दृष्टि में तो उनका बेटा देवता है, दूध का धोया हुआ है।

पुलिया के नीचे जानवरों की हडिड्याँ पड़ी हुई थीं। पड़ोस के कुत्ते प्रतिद्वंद्वियों की छेड़-छाड़ से बचने के लिए इधर-उधर से हडिड्यों को ला-ला कर एकांत में रसास्वादन करते। उनसे दुर्गंध आ रही थी। इधर-उधर फटे-पुराने चीवडों, आम की गुठलियाँ, काग़ज़ के रद्दी टुकड़े पड़े हुए थे। अब तक पूर्णा ने इस जघन्य दृश्य की ओर ध्यान न दिया था। अब उन्हें देख कर उसे घृणा होने लगी। वहाँ एक क्षण रहना भी असह्य जान पड़ने लगा। पर जाए कहाँ? नाक दबाए, बैठी आने-जानेवालों की गति-प्रगति पर कान लगाए हुए थी।

दोपहर होते-होते बगीचे का फाटक बंद हो गया। बग्घी, मोटर, ताँगा किसी की आवाज़ भी न सुनाई देती थी। इसी नीरवता में पूर्णा भविष्य की चिंता में गोते खा रही थी।

अब उसके लिए कहाँ आश्रय था? एक ओर जेल की दुस्सह यंत्रणाएँ थीं, दूसरी ओर रोटियों के लाले, आँसुओं की धार और घोर प्राण-पीड़ा! ऐसे प्राणी के लिए मृत्यु के सिवा और कहाँ ठिकाना है?

जब संध्या हो गई और अँधेरा छा गया, तो पूर्णा वहाँ से बाहर निकली और सड़क पर खड़ी हो कर सोचने लगी - कहाँ जाऊँ? जीवन में अब अपमान, लज्जा, दुःख और संताप के सिवाय और क्या है? अपने पति के बाद ही उसने क्यों न प्राणों को त्याग दिया? क्यों न उसी शव के साथ सती हो गई? इस जीवन से तो सती हो जाना कहीं अच्छा था? क्यों उस समय उसकी बुद्धि भ्रष्ट हो गई थी? वह क्या जानती थी भले आदमी ऐसे दुष्ट होते हैं, अपने मित्र भी गले पर छुरी फेरने को तैयार हो जाते हैं। अब मृत्यु के सिवाय उसे और कोई ठिकाना नहीं।

एक बूढ़े आदमी को देख कर वह एक वृक्ष की आड़ में खड़ी हो गई जब बूढ़ा निकट आ गया और पूर्णा को विश्वास हो गया कि इसके सामने निकलने में कोई भय नहीं है, तो उसने धीरे से पूछा - 'बाबा, गंगा जी का रास्ता किधर है?'

बूढ़े ने आश्चर्य से कहा - 'गंगा जी यहाँ कहाँ है। यह तो मड़वाडीह है।'

पूर्णा - 'गंगा जी यहाँ से कितनी दूर हैं?'

बूढ़ा - 'दो कोस।'

इस दशा में दो कोस जाना पूर्णा को असह्य-सा जान पड़ा। उसने सोचा, क्या डूबने के लिए गंगा ही है। यहाँ कोई तालाब या नदी न होगी? वह वहीं खड़ी रही। कुछ निश्चय न कर सकी।

बूढ़े ने कहा - 'तुम्हारा घर कहाँ है बेटी? कहाँ जाओगी?

पूर्णा सहम उठी। अब तक उसने कोई कथा न गढ़ी थी, क्या बतलाती?

बूढ़े ने फिर पूछा - 'गंगा जी ही जाना है या और कहीं?

पूर्णा ने डरते-डरते कहा- 'वहीं एक मुहल्ले में जाऊँगी?'

बूढ़े ने ठिठक कर पूर्णा को सिर से पैर तक देखा और बोला - 'कहाँ किस मुहल्ले में जाओगी? सैकड़ों मुहल्ले हैं?'

पूर्णा ने कोई जवाब न दिया। उसके पास जवाब ही क्या था?

बूढ़े ने जरा झुँझला कर कहा - 'यहाँ किस गाँव में तुम्हारा घर है?'

पूर्णा कोई जवाब न दे सकी। वह पछता रही थी कि नाहक इस बूढ़े को मैंने छेड़ा।

बूढ़े ने अब की कठोर स्वर में पूछा - 'तू अपना पता क्यों नहीं बताती? क्या घर से भाग आई है?

पूर्णा थर-थर काँप रही थी। एक शब्द भी मुँह से न निकाल सकी।

बूढ़े को विश्वास हो गया, यह स्त्री घर से रूठ कर आई है। दया आ गई बोला - 'बेटी, घर से रूठ कर भागना अच्छा नहीं। जमाना ख़राब है, कहीं बदमाशों के पंजे में फँस जाओ तो फिर सारी ज़िंदगी भर के लिए दाग़ लग जाए, घर लौट जाओ, बेटी, बड़े-बूढ़े दो बात कहें तो गम खाना चाहिए। वे तुम्हारे भले के लिए कहते हैं चलो, मैं तुम्हें घर पहुँचा दूँ।'

पूर्णा के लिए अब जवाब देना लाजिम हो गया। बोली - 'बाबा, मुझे घरवालों ने निकाल दिया है।'

'क्यों निकाल दिया? किसी से लड़ाई हुई थी?'

'नहीं बाबा, मैं विधवा हूँ। घरवाले मुझे रखना नहीं चाहते।'

'सास-ससुर हैं?'

'नहीं बाबा, कोई नहीं है। एक नातेदार के यहाँ पड़ी थी, आज उसने भी निकाल दिया।'

बूढ़ा एक मिनट तक कुछ सोच कर बोला - 'तो तुम गंगा जी की ओर क्या करने जा रही थी? वहाँ कोई तुम्हारा अपना है?'

'नहीं महाराज! सोचती थी, रात-भर वहीं घाट पर पड़ी रहूँगी। सवेरे किसी जगह खाना पकाने की नौकरी कर लूँगी।'

बूढ़ा समझ गया। अनाथिनी रात के समय गंगा का रास्ता किसलिए पूछ सकती है? जब वहाँ भी इसका कोई नहीं है तो फिर गंगा-तट पर जाने का अर्थ ही क्या हो सकता है?

बोला - 'वनिता भवन में क्यों नहीं चली जाती?'

'वनिता भवन क्या है बाबा? मैंने तो सुना भी नहीं।'

'वहाँ अनाथ स्त्रियों का पालन किया जाता है। कैसी ही स्त्री हो, वह लोग बड़े हर्ष से उसे अपने यहाँ रख लेते हैं। अमृतराय बाबू को दुनिया चाहे कितना ही बदनाम करे, पर काम उन्होंने बड़े धर्म का किया है। इस समय पचास स्त्रियों से कम न होंगी। सब हँसी-खुशी रहती हैं। कोई मर्द अंदर नहीं जाने पाता। अमृत बाबू आप भी अंदर नहीं जाते। हिम्मत का धनी जवान है, सच्चा त्यागी इसी को देखा।'

पूर्णा का दिल बैठ गया। जिस विपत्ति से बचने के लिए उसने प्राणांत कर देने को ठानी थी, वह फिर सामने आती हुई दिखाई दी। अमृतराय उसे देखते ही पहचान जाएँगे। उनके सामने वह खड़ी कैसे हो सकेगी। कदाचित उसके पैर काँपने लगेंगे, और वह गिर पड़ेगी। वह उसे हत्यारिनी समझेंगे! जिससे वह एक दिन साली के नाते विनोद करती थी, वह आज उनके सम्मुख कुलटा बन कर जाएगी।

बूढ़े ने पूछा - 'देर क्यों करती हो बेटी, चलो, मैं तुम्हें वहाँ पहुँचा दूँ। विश्वास मानो, वहाँ तुम बड़े आराम से रहोगी।'

पूर्णा ने कहा - 'मैं वहाँ न जाऊँगी बाबा!'

'वहाँ जाने में क्या बुराई है?'

'यों ही, मेरा जी नहीं चाहता।'

बूढ़े ने झुँझला कर कहा - 'तो यह क्यों नहीं कहती कि तुम्हारे सिर पर दूसरी ही धुन सवार है।'

यह कह कर बूढ़ा आगे बढ़ा। जिसने स्वयं कुमार्ग पर चलने का निश्चय कर लिया हो, उसे कौन रोक सकता है?

पूर्णा बूढ़े को जाते देख कर उसके मन का भाव समझ गई। क्या अब भी वह वनिता-भवन में जाने से इनकार कर सकती थी? बोली - 'बाबा, तुम भी मुझे छोड़ कर चले जाओगे?

बूढ़ा - 'कहता तो हूँ कि चलो वनिता-भवन पहुँचा दूँ।'

'वहाँ मुझे बाबू अमृतराय के सामने तो न जाना पड़ेगा?'

'यह सब मैं नहीं जानता। मगर उनके सामने जाने में हर्ज ही क्या है? वह बुरे आदमी नहीं हैं।'

'अच्छे-बुरे की बात नहीं है बाबा। मुझे उनके सामने जाते लज्जा आती है।'

'अच्छी बात है, मत जाना। नाम और पता लिखना ही पड़ेगा।'

'नहीं बाबा, मैं नाम और पता भी न लिखाऊँगी। इसीलिए तो कहती थी कि मैं वनिता-भवन में न जाऊँगी।'

बूढ़े ने कुछ सोच कर कहा - 'अच्छा चलो, मैं अमृत बाबू को समझा दूँगा। जो बात तुम न बताना चाहोगी, उसके लिए वहाँ तुम्हें मजबूर न करेंगे। मैं उन्हें अकेले में समझा दूँगा।'

जरा दूर पर एक इक्का मिल गया। बूढ़े ने उसे ठीक कर लिया। दोनों उस पर बैठ कर चले।

पूर्णा इस समय अपने को गंगा की लहरों में विसर्जित करने जाती, तो कदाचित इतनी दुःखी और सशंक न होती।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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