भरतपुर का इतिहास उसकी भौगोलिक स्थिति ने निर्धारित किया, फिर भी भरतपुर राज्य का सृजन अठारवीं शताब्दी के दो असाधारण राजनेताओं–ठाकुर बदन सिंह और महाराजा सूरजमल का ही कृतित्व है। उथल-पुथल से भरी अठारवीं शताब्दी के लगभग पचास सालों तक न कोई जाट-राज्य था, न संगठित जाट-राष्ट्र और न कोई ऐसा जाट-शासक था जिसे सर्व सम्मति से ‘समान लोगों में प्रथम’ माना या समझा जाता हो। चूड़ामन इस स्थिति तक लगभग पहुँच गया था, परन्तु उसने अपने लोगों की सहनशीलता की बड़ी-कड़ी परीक्षा ली थी और बदन सिंह को क़ैद करने के बाद वह अपनी प्रतिष्ठा गँवा बैठा था। अभिमानी और हठी, हर थोक (क़बीले) का मुखिया अपनी ही बात पर अड़ा रहता था; उसकी दृष्टि संकीर्ण और महत्त्वाकांक्षा असीम होती थी। बदन सिंह के सम्मुख जो विकट बाधाएँ थीं, उनका उसे भली-भाँति ज्ञान था। अपने ही कुटुम्बी सिन-सिनवारों में भी वह बिरादरी का मुखिया स्वीकार किया गया था। चूड़ामन के पुत्रों मोखम सिंह और ज़ुलकरण सिंह ने न अपना दावा त्यागा था और न शत्रुता ही। वरिष्ठ शाख़ा के ये अधिकार वंचित उत्तराधिकारी सदा मौक़ा ढूँढ़ते रहते थे। अन्य सरदारों ने सतर्क रहकर प्रतीक्षा करने की नीति अपनाई थी।
व्यक्तित्व
बदन सिंह में समस्याओं का सामना करने के गुण विद्यमान थे। वह अपने काम में असाधारण कौशल और अथक धैर्य के साथ जुट गया। उसने बल-प्रयोग और अनुनय-विनय-दोनों का ही समझदारी से प्रयोग किया। शत्रुओं का विनाश करने, मित्रों को पुरस्कार देने, अपने राज्य को समृद्ध करने और अपने क्षेत्र को बढ़ाने के लिए उसने सभी उपायों से काम लिया। आवश्यकता पड़ने पर वह युद्ध करता था; खुलकर रिश्वत देता था और उसने बार-बार विवाह किए। अपनी पत्नियों का चुनाव वह शक्ति-सम्पन्न जाट-परिवारों में से करता था। सौम्य-शिष्टाचार तथा सार्वजनिक विनम्रता के पीछे उसकी लौह इच्छा-शक्ति तथा निष्ठुर दृढ़ संकल्प छिपा था। जयपुर के जयसिंह कछवाहा के सरंक्षण के कारण उसकी सफलता सुनिश्चित थी। चूड़ामन की 'गद्दी' पर बदन सिंह को बिठाकर जयसिंह ने असाधारण दूरदर्शिता दिखाई थी। जाटों को अपना विरोधी बनाने के बजाय उन्हें अपने पक्ष में रखना हर दृष्टि से समझदारी का काम था। आमेर के शासकों ने मुग़ल साम्राज्य की बड़ी सेवा की थी। उसका इनाम भी उन्हें अच्छा मिला था। अधिकार-प्रभाव पद ,प्रतिष्ठा, राज्य-क्षेत्र और धन-सबकुछ उनके पास था। आगरा और मथुरा की, जहाँ जाट बसते थे, 'सूबेदारी' एक से अधिक बार आमेर के राजवंश को दी थी।
प्रभुत्व, उपाधि, और राज्य-क्षेत्र
भरतपुर के पहाड़ी उत्तरी क्षेत्रों में खूँख़ार मेव बसते थे; उनका धर्म इस्लाम था और जीविका का साधन लूटपाट। जयसिंह ने बदन सिंह से मेवों की उच्छृंखल गतिविधियों का दमन करने को कहा। उसने उनसे निपटने के लिए अपने किशोर-पुत्र सूरजमल तथा एक निकट सम्बन्धी ठाकुर सुल्तान सिंह को भेजा, परिणाम बहुत सन्तोषजनक रहे। सूरजमल के आचरण और साहस से उनके सैनिक बहुत प्रभावित हुए। इस अभियान की सफलता से जयसिंह बहुत प्रसन्न हुआ। उसने सिनसिनवार सूरजमल को न केवल 'निशान', नगाड़ा और पंचरंगा झंडा ही, बल्कि 'ब्रजराज' की उपाधि भी प्रदान की । 2,40,000 रुपये वार्षिक कर लेकर उसने मेवात को बदन सिंह के अधीन कर दिया, जिससे उसे निश्चित रूप से 18,00,000 रुपये की वार्षिक आय होती थी। बदन सिंह सबके सामने जयसिंह के आभार को स्वीकार करता था। धीरे-धीरे उसने जयसिंह का पूर्ण विश्वास प्राप्त कर लिया और जयसिंह ने इस जाट-सरदार को आगरा, दिल्ली और जयपुर जाने वाले राजमार्ग पर गश्त करने और इन राजमार्गों का उपयोग करने वालों से पथ-कर उगाहने का कार्य सौंप दिया। इस प्रकार बदन सिंह को प्रभुत्व, उपाधि, और राज्य-क्षेत्र–तीनों चीज़ें प्राप्त हो गईं, जो अन्य किसी जाट-सरदार के पास नहीं थीं। यह चतुर सिनसिनवार बहुत समझदारी के साथ 'राजा' की उपाधि-धारण करने के लोभ का संवरण किए रहा।
राजधानी के लिए खोज
बदनसिंह ने अपनी राजधानी के लिए खोज शुरू कर दी। थून के साथ उसकी अप्रिय स्मृतियाँ जुड़ी थी। सिनसिनी एकमात्र बड़ा गाँव था, जहाँ पानी भी नहीं था। उसने महात्मा प्रीतमदास की सलाह पर डीग को चुना। उसने नींव खुदवाई, समारोह में महात्मा जी को भी बुलवाया। जब महात्मा प्रीतमदास भूमि खोदते हए ग्यारह बार फावड़ा चला चुके तब बदनसिंह ने कहा- "बाबा जी आप थक गए होंगे; ग्यारह काफ़ी हैं। प्रीतमसिंह ने फावड़ा छोड़ दिया और अपना हाथ बदनसिंह के कन्धे पर रखते हुए कहा, "तुम्हारा वंश ग्यारह पीढ़ी तक शासन करेगा।" उनकी भविष्यवाणी बिलकुल सही निकली।
क़िले बाग़ीचों और महलों निर्माण का कार्य
डीग के क़िले बाग़ीचों और महलों के निर्माण का कार्य सन् 1725 में आरम्भ हुआ और उस शताब्दी के समाप्त होने तक चलता रहा। कहीं कोई नया भवन या कहीं कोई मंडप बनवाता, किसी बाग़ीचे में कोई परिवर्तन करता, किसी तालाब को बढ़वाता या बुर्जों को नए ढंग से बनवाता रहा। अकबर के राज्यकाल में भारतीय वास्तुकला उत्कृष्टता के बहुत ऊँचे स्तर पर पहुँच गई थी। फ़तेहपुर सीकरी (जो वर्तमान भरतपुर से दस मील पूर्व में है) उसका बनवाया स्मारक है। जहाँगीर की रुचि भवनों के निर्माण में कम और बाग़ीचे बनवाने में अधिक रहीं, परन्तु शाहजहाँ ने संसार के कुछ सबसे सुन्दर भवन तैयार करवाए।
- शाहजहाँ मुग़ल-सम्राटों में अन्तिम भवन-निर्माता था। ताजमहल आज भी अद्वितीय है, परन्तु उसके राज्य-काल के अन्तिम दिनों (सन् 1658) में बनी मुग़ल इमारतों में वास्तु–कौशल कुछ क्षीण हो गया था। औरंगज़ेब के राज्य-काल में यह ह्रास साफ़ दिखता है। उसकी मृत्यु तक मुग़ल वास्तुकला का अस्तित्व व्यवहारतः समाप्त हो गया था। आगरा और दिल्ली के श्रेष्ठ भवन-निर्माताओं ने राजस्थान के राजाओं के यहाँ नौकरी कर ली थी। सन् 1650 से लेकर 1850 तक के 200 वर्षों में जयपुर के गुलाबी शहर और डीग के महलों से सिवाय कला की दृष्टि से कोई भवन बना ही नहीं। दिल्ली में नवाब सफ़दरजंग का मक़बरा भी हुमायूँ के मक़बरे की, जो उससे केवल मील-भर दूर है, एक नक़ल मात्र है। औरंगाबाद में बना 'बीबी का मक़बरा' भारत-भर में अपने ढंग की सबसे बदसूरत इमारत है; यह उस पुरुष का बिलकुल उपयुक्त स्मारक है, जिसने सभी सभ्य आमोद-प्रमोदों को त्याज्य ठहरा दिया था।
- निरक्षर होने पर भी, बदन सिंह में आश्चर्यजनक सौन्दर्य-बोध था। सुन्दर उद्यान–प्रासादों की भव्य रूपरेखा उसी ने अकेले रची थी। दिल्ली और आगरा के श्रेष्ठ मिस्तरी, झुंड बनाकर बदन सिंह और सूरजमल के दरबारों में रोज़गार ढूँढ़ने आते थे। इन दोनों ने ही अपने विपुल एवं नव-अर्जित धन का उपयोग कलाकृतियों के सृजन के लिए किया। भरतपुर राज्य में सुव्यवस्था और जीवन तथा सम्पत्ति की सुरक्षा थी, जो अन्यत्र दुर्लभ थीं, और जिसके लिए लोग तरसते थे। इसके विपरीत, दिल्ली और आगरा में अशान्ति और अव्यवस्था थी।
- इस समय बदन सिंह के पास जन, धन और साधन-सभी कुछ था। अपने भवन-निर्माण-कार्यक्रम के लिए उसने जीवनराम बनचारी को अपना निर्माण-मन्त्री नियुक्त किया। बनचारी बहुत योग्य और सुरुचि सम्पन्न व्यक्ति था। अपने लिए उसने एक बड़ा लाल पत्थर का मकान बनवाया था, जो आजकल स्थानीय चिकित्सा अधिकारियों के क़ब्ज़े में है।
भरतपुर में सिनसिनवारों के अलावा, एक अन्य प्रमुख जाट-परिवार डीग के दक्षिण-पश्चिम में स्थिर सोघर गाँव के सोघरियों का था। यह चारों तरफ़ दलदल से घिरा था। बरसात में इस गाँव तक पहुँचना बहुत ही मुश्किल था। रक्षा की दृष्टि से यह आदर्श जगह थीं। युद्ध के समय बाण-गंगा और रूपारेल इन दो नदियों का पानी क्षेत्र को जलमग्न करने के लिए छोड़ा जा सकता था, जिससे शत्रु आगे न बढ़ने पाए। अठारवीं शताब्दी में ठाकुर खेमकरण सिंह सोघरिया ने सोघर तथा आस-पास के गाँवों पर अधिकार जमा लिया था। उसने सबसे ऊँची जगह पर क़िला बनवाया और उसका नाम फ़तहगढ़ रखा। अनेक वर्षों तक वह और उसका कुटुम्ब फलता-फूलता रहा; उनका प्रभाव और प्रतिष्ठा बढ़ती गई। बदनसिंह की माँ अचलसिंह सोघरिया की बेटी थी। परन्तु भरतपुर में दोनों अभिमानी कुटुम्ब साथ-साथ शान्तिपूर्वक नहीं रह सकते थे। बदन सिंह अपने पड़ोस में किसी प्रतिद्वन्द्वी शक्ति को बसाने को तैयार नहीं था। सन् 1732 में उसने अपने 25 वर्षीय पुत्र सूरजमल को सोघर पर अधिकार करने के लिए भेजा। सूरजमल ने आक्रमण करके सोघर को जीत लिया। सोघरिया लोग जमकर लड़े, परन्तु हार जाने पर उन्होंने नए शासन को स्वीकार कर लिया। बदन सिंह ने अपने पुत्र को विजय की आवश्यकता और समझौते की उपयोगिता-दोनों बातें सिखलाई थीं। सोघरिया लोगों को व्यवहार-कौशल तथा सद्भावना द्वारा शान्त कर दिया गया।
भरतपुर के क़िले का निर्माण-कार्य शुरू करने के कुछ समय बाद बदन सिंह की नज़र कमज़ोर हो गयी थी। अतः अपने सबसे योग्य और विश्वासपात्र पुत्र सूरजमल को राजकाज सौंप दिया। पहले भी शासन वही करता था, बदन सिंह तो केवल नाम का राजा था। बदन सिंह राज्य-परिषद में अध्यक्ष बनकर बैठता था। प्रत्येक नए कार्य या अभियान के लिए सूरजमल उसकी अनुमति लेने जाता था। जब सन् 1739 में नादिरशाह का आक्रमण हुआ, तब तक बदनसिंह एक सामान्य ज़मींदार से बढ़कर,
- फ़ादर बैंदेल के शब्दों में– "शीघ्र ही एक ऐसा राजा बन गया था, जिसमें अपने लोगों के विरोध के होते हुए भी अपने पद पर बने रहने लायक़ यथेष्ट शक्ति भी इतनी थी कि लोग न केवल उसका सम्मान करें, अपितु अन्ततोगत्वा उससे डरने भी लगें।"[1]
- फ़ादर बैंदेल का कथन है कि ठाकुर बदनसिंह की 50 पत्नियाँ थीं। " इनमें से कुछ तो बाक़ायदा विवाह द्वारा प्राप्त हुई थीं और कुछ को उसने यों ही ज़बरदस्ती रख लिया था।" बदनसिंह की सचमुच ही अनेक पत्नियाँ थीं और उस काल के चलन के अनुसार कई रखैलें भी थीं। उसके छब्बीस पुत्रों के नाम मिलते हैं। उसकी कुछ पुत्रियाँ भी अवश्य हुई होंगी, परन्तु उन का विवरण नहीं मिलता। सूरजमल राज्य का शासन करता था, परन्तु बाक़ी पच्चीस में से प्रत्येक को जागीरें दी गई थी। उनके वंशजों का भरतपुर में आज भी आदर होता है। वे 'कोठरीबन्द ठाकुरों' के रूप में विख्यात हैं।"[2]
- अपने जीवन के अन्तिम दस वर्षों में बदन सिंह अधिकांश समय शहर और डीग में बिताता था। वह हर साल अपनी जयपुर 'तीर्थ-यात्रा' पर जाया करता था, परन्तु सन् 1750 के बाद उसका यह जाना कम हो गया। दिल्ली जाने के लिए उसे कोई राज़ी नहीं कर पाया। "मैं तो एक ज़मीदार हूँ। शाही दरबार में मेरा क्या काम।"
- फ़ादर बैंदेल, एक अप्रामाणिक इतिहासकार होते हुए भी, सजीव और रोचक हैं। बदन सिंह के विशाल परिवार का वर्णन करते हुए वे कहते हैं- "यह भी अफ़वाह है कि उसके वंशजों का चींटी-दल इतना ज़्यादा बड़ा है कि जब उसके परिवार के कोई सदस्य उसके पास लाए जाते हैं, तब स्वयं उसे उन्हें पहचानने में और यह याद करने में कठिनाई होती है कि किस बच्चे की माँ कौन थी। ज्यों-ज्यों आयु और विषयासक्ति के फलस्वरूप उसकी दृष्टि क्रमशः घटने लगी, त्यों-त्यों यह कठिनाई अधिकाधिक बढ़ती गई। अन्त में तो स्थिति यह हो गई कि जब उसके बच्चे पिता को प्रणाम करते आते थे, तब उन्हें अपनी माता का नाम, अपनी आयु और अपना निवास-स्थान बताना पड़ता था, तभी उनके प्रणाम का उत्तर मिल पाता था।"[3]
सवाई जयसिंह की मृत्यु के बाद उसके पुत्रों ईश्वरीसिंह और माधोसिंह में युद्ध हुआ। माधोसिंह की माँ उदयपुर की थी। मेवाड़ के राणा ने अपने भान्जें के लिए जुटा लिया। मराठा शासक असमंजस में रहे पर बाद में जोधपुर, बूँदी तथा कोटा के शासकों ने माधोसिंह को समर्थन दे दिया, सिर्फ़ भरतपुर के जाटों ने जयसिंह को दिए वचन अनुसार ईश्वरीसिंह का साथ दिय। अपने पिता के सभी दुर्गुण ईश्वरीसिंह को विरासत में मिले थे। सन् 1747 में अहमदशाह अब्दाली के आक्रमण के समय वह भाग गया था। बदनसिंह ने सूरजमल को ईश्वरी की मदद के लिए जयपुर भेजा। 10,000 घुड़सवार, 2,000 पैदल और 2,000 बर्छेबाज़ लेकर सूरजमल कुम्हेर से चला। जयपुर की तरफ से शिवसिंह लड़ रहा था। सूरजमल के चाचा और उसके बेटे सुखरामसिंह, गोकुलरामसिंह, सहजरामसिंह सूरजमल के साथ थे।
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