ब्रह्म वैवर्त पुराण

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
(ब्रह्मवैवर्त पुराण से अनुप्रेषित)
यहाँ जाएँ:नेविगेशन, खोजें
ब्रह्म वैवर्त पुराण, गीताप्रेस गोरखपुर का आवरण पृष्ठ

यह वैष्णव पुराण है। इस पुराण में श्रीकृष्ण को ही प्रमुख इष्ट मानकर उन्हें सृष्टि का कारण बताया गया है। 'ब्रह्मवैवर्त' शब्द का अर्थ है- ब्रह्म का विवर्त अर्थात् ब्रह्म की रूपान्तर राशि। ब्रह्म की रूपान्तर राशि 'प्रकृति' है। प्रकृति के विविध परिणामों का प्रतिपादन ही इस 'ब्रह्मवैवर्त पुराण' में प्राप्त होता है। विष्णु के अवतार कृष्ण का उल्लेख यद्यपि कई पुराणों में मिलता है, किन्तु इस पुराण में यह विषय भिन्नता लिए हुए है। 'ब्रह्मवैवर्त पुराण' में कृष्ण को ही 'परब्रह्म' माना गया है, जिनकी इच्छा से सृष्टि का जन्म होता है।

राधा-कृष्ण
Radha-Krishna

कृष्ण से ही ब्रह्मा, विष्णु, महेश और प्रकृति का जन्म बताया गया है। उनके दाएं पार्श्व से त्रिगुण (सत्व, रज, तम) उत्पन्न होते हैं। फिर उनसे महत्तत्व, अहंकार और पंच तन्मात्र उत्पन्न हुए। फिर नारायण का जन्म हुआ जो श्याम वर्ण, पीताम्बरधारी और वनमाला धारण किए चार भुजाओं वाले थे। पंचमुखी शिव का जन्म कृष्ण के वाम पार्श्व से हुआ। नाभि से ब्रह्मा, वक्षस्थल से धर्म, वाम पार्श्व से पुन: लक्ष्मी, मुख से सरस्वती और विभिन्न अंगों से दुर्गा, सावित्री, कामदेव, रति, अग्नि, वरुण, वायु आदि देवी-देवताओं का आविर्भाव हुआ। ये सभी भगवान के 'गोलोक' में स्थित हो गए।

सृष्टि निर्माण के उपरान्त रास मण्डल में उनके अर्द्ध वाम अंग से राधा का जन्म हुआ। रोमकूपों से ग्वाल बाल और गोपियों का जन्म हुआ। गायें, हंस, तुरंग और सिंह प्रकट हुए। शिव वाहन के लिए बैल, ब्रह्मा के लिए हंस, धर्म के लिए तुरंग (अश्व) और दुर्गा के लिए सिंह दिए गए।

'जमुना'(गोपियों के साथ कृष्ण), द्वारा- राजा रवि वर्मा

यह पुराण कहता है कि इस ब्रह्माण्ड में असंख्य विश्व विद्यमान हैं। प्रत्येक विश्व के अपने-अपने विष्णु, ब्रह्मा और महेश हैं। इन सभी विश्वों से ऊपर गोलोक में भगवान श्रीकृष्ण निवास करते हैं। इस पुराण के चार खण्ड हैं- ब्रह्म खण्ड, प्रकृति खण्ड, गणपति खण्ड और श्रीकृष्ण जन्म खण्ड। इन चारों में दो सौ चौहत्तर (274) अध्याय हैं।

ब्रह्म खण्ड

कृष्ण
Krishna

ब्रह्म खण्ड में कृष्ण चरित्र की विविध लीलाओं और सृष्टि क्रम का वर्णन प्राप्त होता है। कृष्ण के शरीर से ही समस्त देवी-देवताओं को आविर्भाव माना गया है। इस खण्ड में भगवान सूर्य द्वारा संकलित एक स्वतन्त्र 'आयुर्वेद संहिता' का भी उल्लेख मिलता है। आयुर्वेद समस्त रोगों का परिज्ञान करके उनके प्रभाव को नष्ट करने की सामर्थ्य रखता है। इसी खण्ड में श्रीकृष्ण के अर्द्धनारीश्वर स्वरूप में राधा का आविर्भाव उनके वाम अंग से दिखाया गया है।

प्रकृति खण्ड

गायत्री देवी
Gayatri Devi

प्रकृति खण्ड में विभिन्न देवियों के आविर्भाव और उनकी शक्तियों तथा चरित्रों का सुन्दर विवरण प्राप्त होता है। इस खण्ड का प्रारम्भ 'पंचदेवीरूपा प्रकृति' के वर्णन से होता है। ये पांच रूप – यशदुर्गा, महालक्ष्मी, सरस्वती, गायत्री और सावित्री के हैं, जो अपने भक्तों का उद्धार करने के लिए रूप धारण करती हैं इनके अतिरिक्त सर्वोपरि रासेश्वरी रूप राधा का है। राधा-कृष्ण चरित्र और राधा जी की पूजा-अर्चना का संक्षिप्त परिचय इस खण्ड में प्राप्त होता है। इन देवियों के विभिन्न नामों का उल्लेख भी प्रकृति खण्ड में है।

गणपति खण्ड

गणेश
Ganesha

गणपति खण्ड में गणेश जी के जन्म की कथा और पुण्यक व्रत की महिमा का वर्णन किया गया हैं गणेश जी के चरित्र और लीलाओं का वर्णन भी इस खण्ड में है। बालक गणेश को जब शनि देव देख लेते हैं तो उनके दृष्टिपात से गणेश जी का सिर कटकर गिर जाता है। तब पार्वती की प्रार्थना पर विष्णुजी हाथी का सिर काटकर गणेश के धड़ पर लगाकर उन्हें जीवित कर देते हैं। गणेश जी के आठ विघ्ननाशक नामों की सूची इस खण्ड में इस प्रकार दी गई है- विघ्नेश, गणेश, हेरम्ब, गजानन, लंबोदर, एकदंत, शूर्पकर्ण और विनायक। इसी खण्ड में 'सूर्य कवच' तथा 'सूर्य स्तोत्र' का भी वर्णन है। अन्त में यह कहा गया है कि गणेश जी की पूजा में तुलसी दल कभी नहीं अर्पित करना चाहिए। परशुराम और राज सुचन्द्र के वध के प्रसंग में 'दशाक्षरी विद्या' , 'काली कवच' और 'दुर्गा कवच' का वर्णन भी इसी खण्ड में मिलता है।

श्रीकृष्ण जन्म खण्ड

श्रीकृष्ण जन्म खण्ड एक सौ एक अध्यायों में फैला सबसे बड़ा खण्ड है। इसमें श्रीकृष्ण की लीलाओं का विस्तार से वर्णन किया गया है। 'श्रीमद्भागवत' में भी इसी प्रकार श्रीकृष्ण की लीलाओं का वर्णन उपलब्ध होता है। इस खण्ड में योगनिद्रा द्वारा वर्णित 'श्रीकृष्ण कवच' का उल्लेख है जिसके पाठ से दैहिक, दैविक तथा भौतिक भयों का समूल नाश हो जाता है। श्रीकृष्ण के तेंतीस नामों की सूची भी इस खण्ड में दी गई है।

बलराम के नौ नामों और राधा के सोलह नामों का वर्णन भी श्रीकृष्ण जन्म खण्ड में प्राप्त होता है। इसी खण्ड में सौ के लगभग उन वस्तुओं, द्रव्यों और अनुष्ठानों की सूची भी दी गई है जिनके मात्र से सौभाग्य की प्राप्ति होती है। इसी खण्ड में तिथि विशेष में विभिन्न तीर्थों में स्नान करने और पुण्य लाभ पाने का उल्लेख किया गया है। 'कार्तिक पूर्णिमा' में राधा जी की पूजा-अर्चना करने पर बल दिया गया है, जो विशेष फलदायी है।

रासलीला, कृष्ण जन्मभूमि, मथुरा
Raslila, Krishna's Birth Place, Mathura

इसी खण्ड में कहा गया है कि 'अन्नदान' से बढ़कर कोई दूसरा दान नहीं है। भगवान के ग्यारह नामों- राम, नारायण, अनंत, मुकुंद, मधुसूदन, कृष्ण, केशव, कंसरि, हरे, वैकुण्ठ और वामन को अत्यन्त पुण्यदायक तथा सहस्त्र कोटि जन्मों का पाप नष्ट करने वाला बताया गया है।

'ब्रह्मवैवर्त पुराण' में रासलीला का वर्णन 'भागवत पुराण' के रास पंचाध्यायी से काफ़ी भिन्न है। 'भागवत पुराण' का वर्णन साहित्यिक और सात्विक है जबकि 'ब्रह्मवैवर्त पुराण' का वर्णन अत्यन्त श्रृंगारिक तथा कहीं-कहीं अश्लील भी है। इस पुराण में सृष्टि का मूल श्रीकृष्ण को बताया गया है। परन्तु ब्रह्म निरूपण के दार्शनिक विवेचन में वेदान्त-विद्धान्त को ही स्वीकार किया गया है। इस पुराण में पूतना, कुब्जा, जाम्बवती तथा कृष्ण की मृत्यु के प्रसंग अन्य पुराणों से भिन्न हैं। गणेश जन्म में भी विचित्रता है। इस पुराण के अन्य विषयों में पर्वत, नदी, वृक्ष, ग्राम, नगर आदि की उत्पत्ति, मनु-शतरूपा की कथा, ब्रह्मा की पीठ से दरिद्रा का जन्म, मालावती एवं कालपुरुष संवाद, दिनचर्या, श्रीकृष्ण, शिव और ब्रह्माण्ड कवचों का वर्णन, गंगा वर्णन तथा शिव स्तोत्र आदि का उल्लेख भी शामिल है।

श्रीराधा और श्रीकृष्ण के चरित्र

राधा-कृष्ण
Radha-Krishna

श्रीमहादेवजी कहते हैं- पार्वती! एक समय की बात है, श्रीकृष्ण विरजा नामवाली सखी के यहाँ उसके पास थें इससे श्रीराधाजी को क्षोभ हुआ। इस कारण विरजा वहाँ नदीरूप होकर प्रवाहित हो गयी। विरजा की सखियाँ भी छोटी-छोटी नदियाँ बनीं। पृथ्वी की बहुत-सी नदियाँ और सातों समुद्र विरजा से ही उत्पन्न हैं। राधा ने प्रणयकोप से श्रीकृष्ण के पास जाकर उनसे कुछ कठोर शब्द कहे। सुदामा ने इसका विरोध किया। इस पर लीलामयी श्रीराधाने उसे असुर होने का शाप दे दिया। सुदामा ने भी लीलाक्रम से ही श्रीराधा को मानवीरूप में प्रकट होने की बात कह दी। सुदामा माता राधा तथा पिता श्रीहरि को प्रणाम करके जब जाने को उद्यत हुआ तब श्रीराधा पुत्रविरह से कातर हो आँसू बहाने लगीं। श्रीकृष्ण ने उन्हें समझा-बुझाकर शान्त किया और शीघ्र उसके लौट आने का विश्वास दिलाया। सुदामा ही तुलसी का स्वामी शंखचूड़ नामक असुर हुआ था, जो मेरे शूल से विदीर्ण एवं शापमुक्त हो पुन: गोलोक चला गया। सती राधा इसी वाराहकल्प में गोकुल में अवतीर्ण हुई थीं। वे व्रज में वृषभानु वैश्य की कन्या हुईं वे देवी अयोनिजा थीं, माता के पेट से नहीं पैदा हुई थीं। उनकी माता कलावती ने अपने गर्भ में 'वायु' को धारण कर रखा था। उसने योगमाया की प्रेरणा से वायु को ही जन्म दिया; परंतु वहाँ स्वेच्छा से श्रीराधा प्रकट हो गयीं। बारह वर्ष बीतने पर उन्हें नूतन यौवन में प्रवेश करती देख माता-पिता ने 'रायाण' वैश्यके साथ उसका सम्बन्ध निश्चित कर दिया। उस समय श्रीराधा घर में अपनी छाया को स्थापित करके स्वयं अन्तर्धान हो गयीं। उस छाया के साथ ही उक्त रायाण का विवाह हुआ।

कृष्ण जन्म वसुदेव, कृष्ण को कंस के कारागार मथुरा से गोकुल ले जाते हुए, द्वारा- राजा रवि वर्मा

'जगत्पति श्रीकृष्ण कंस के भय से रक्षा के बहाने शैशवावस्था में ही गोकुल पहुँचा दिये गये थे। वहाँ श्रीकृष्ण की माता जो यशोदा थीं, उनका सहोदर भाई 'रायाण' था। गोलोक में तो वह श्रीकृष्ण का अंशभूत गोप था, पर इस अवतार के समय भूतल पर वह श्रीकृष्ण का मामा लगता था। जगत्स्त्रष्टा विधाता ने पुण्यमय वृन्दावन में श्रीकृष्ण के साथ साक्षात् श्रीराधा का विधिपूर्वक विवाहकर्म सम्पन्न कराया था। गोपगण स्वप्न में भी श्रीराधा के चरणारविन्दका दर्शन नहीं कर पाते थे। साक्षात् राधा श्रीकृष्ण के वक्ष: स्थल में वास करती थीं और छायाराधा रायाण के घर में। ब्रह्माजी ने पूर्वकाल में श्रीराधा के चरणारविन्द का दर्शन पाने के लिये पुष्कर में साठ हज़ार वर्षों तक तपस्या की थी; उसी तपस्या के फलस्वरूप इस समय उन्हें श्रीराधाचरणों का दर्शन प्राप्त हुआ था। गोकुलनाथ श्रीकृष्ण कुछ काल तक वृन्दावन में श्रीराधा के साथ आमोद-प्रमोद करते रहे। तदनन्तर सुदामा के शाप से उनका श्रीराधाके साथ वियोग हो गया। इसी बीच में श्रीकृष्ण ने पृथ्वी का भार उतारा। सौ वर्ष पूर्ण हो जाने पर तीर्थ यात्रा के प्रसंग से श्रीराधा ने श्रीकृष्ण का और श्रीकृष्ण ने श्रीराधा का दर्शन प्राप्त किया। तदनन्तर तत्त्वज्ञ श्रीकृष्ण श्रीराधा के साथ गोलोकधाम पधारे। कलावती (कीर्तिदा) और यशोदा भी श्रीराधा के साथ ही गोलोक चली गयीं।

कंस का कारागार, मथुरा
Kans Prison, Mathura

प्रजापति द्रोण नन्द हुए। उनकी पत्नी धरा यशोदा हुईं। उन दोनों ने पहले की हुई तपस्या के प्रभाव से परमात्मा भगवान् श्रीकृष्ण को पुत्ररूप में प्राप्त किया था। महर्षि कश्यप वसुदेव हुए थे। उनकी पत्नी सती साध्वी अदिति अंशत: देवकी के रूप में अवतीर्ण हुई थीं। प्रत्येक कल्प में जब भगवान् अवतार लेते हैं, देवमाता अदिति तथा देवपिता कश्यप उनके माता-पिता का स्थान ग्रहण करते हैं। श्रीराधा की माता कलावती (कीर्तिदा) पितरों की मानसी कन्या थी। गोलोक से वसुदाम गोप ही वृषभानु होकर इस भूतलपर आये थे। दुर्गे! इस प्रकार मैंने श्रीराधा का उत्तम उपाख्यान सुनाया। यह सम्पत्ति प्रदान करने वाला, पापहारी तथा पुत्र और पौत्रों की वृद्धि करने वाला है। श्रीकृष्ण दो रूपों में प्रकट हैं- द्विभुज और चतुर्भुज। चतुर्भुजरूप से वे वैकुण्ठधाम में निवास करते हैं और स्वयं द्विभुज श्रीकृष्ण गोलोकधाम में। चतुर्भुजकी पत्नी महालक्ष्मी, सरस्वती, गंगा और तुलसी हैं। ये चारों देवियाँ चतुर्भुज नारायणदेव की प्रिया हैं। श्रीकृष्ण की पत्नी श्रीराधा हैं, जो उनके अर्धांग से प्रकट हुई हैं। वे तेज, अवस्था, रूप तथा गुण सभी दृष्टियों से उनके अनुरूप हैं। विद्वान् पुरुष को पहले 'राधा' नाम का उच्चारण करके पश्चात् 'कृष्ण' नाम का उच्चारण करना चाहिये। इस क्रम से उलट-फेर करने पर वह पाप का भागी होता है, इसमें संशय नहीं है।

कार्तिक की पूर्णिमाकों गोलोक के रासमण्डल में श्रीकृष्ण ने श्रीराधा का पूजन किया और तत्सम्बन्धी महोत्सव रचाया। उत्तम रत्नों की गुटिका में राधाकवच रखकर गोपोंसहित श्रीहरि ने उसे अपने कण्ठ और दाहिनी बाँह में धारण किया। भक्तिभाव से उनका ध्यान करके स्तवन किया। फिर मधुसूदन ने राधा के चबाये हुए ताम्बूल को लेकर स्वयं खाया। राधा श्रीकृष्ण की पूजनीया हैं और भगवान् श्रीकृष् राधा के पूजनीय हैं। वे दोनों एक-दूसरे के इष्ट देवता हैं। उनमें भेदभाव करने वाला पुरुष नरक में पड़ता है।[1]

कृष्ण जन्मभूमि, मथुरा
Shri Krishna's Janm Bhumi, Mathura

श्रीकृष्ण के बाद धर्म ने, ब्रह्माजी ने, मैंने, अनन्त ने, वासुकिने तथा सूर्य और चन्द्रमाने श्रीराधा का पूजन किया। तत्पश्चात् देवराज इन्द्र, रुद्रगण, मनु, मनुपुत्र, देवेन्द्रगण, मुनीन्द्रगण तथा सम्पूर्ण विश्वे के लोगों ने श्री राधा की पूजा की। ये सब द्वितीय आवरण के पूजक हैं। तृतीय आवरण में सातों द्वीपों के सम्राट् सुयज्ञ ने तथा उनके पुत्र-पौत्रों एवं मित्रों ने भारतवर्ष में प्रसन्नतापूर्वक श्रीराधिका का पूजन किया। उन महाराज को दैववश किसी ब्राह्मण ने शाप दे दिया था, जिससे उनका हाथ रोगग्रस्त हो गया था। इस कारण वे मन-ही-मन बहुत दु:खी रहते थे। उनकी राज्यलक्ष्मी छिन गयी थी; परंतु श्री राधा के वर से उन्होंने अपना राज्य प्राप्त कर लिया। ब्रह्माजी के दिये हुए स्तोत्र से परमेश्वरी श्रीराधा की स्तुति करके राजा ने उनके अभेद्य कवच को कण्ठ और बाँह में धारण किया तथा पुष्करतीर्थ में सौ वर्षों तक ध्यानपूर्वक उनकी पूजा की। अन्त में वे महाराज रत्नमय विमानपर सवार होकर गोलोकधाम में चले गये।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. राधा पूज्या च कृष्णस्य तत्पूज्यो भगवान् प्रभु:। परस्पराभीष्टदेवो भेदकृन्नरकं व्रजेत्॥ (प्रकृतिखण्ड 49। 63)

संबंधित लेख

श्रुतियाँ