भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से पूर्व की स्थिति
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना से पूर्व इस दिशा में किये गये महत्त्वपूर्ण प्रयासों के अन्तर्गत 1 मार्च, 1883 को ए.ओ. ह्यूम ने कलकत्ता विश्वविद्यालय के स्नातकों के नाम एक पत्र लिखा, जिसमें उन्होंने सब से मिलजुलकर स्वाधीनता के लिए प्रयत्न करने की अपील की। इस अपील का शिक्षित भारतीयों पर अच्छा प्रभाव पड़ा। वे एक अखिल भारतीय संगठन की आवश्यकता महसूस करने लगे। इस दिशा में निश्चित रूप से पहला क़दम सितम्बर, 1884 में उठाया गया, अब 'अडयार' (मद्रास) में थियोसोफ़िकल सोसाइटी का वार्षिक अधिवेशन हुआ। इस अधिवेशन में ह्यूम सहित दादा भाई नौरोजी, सुरेन्द्र नाथ बनर्जी आदि शामिल हुए। इसी के बाद 1884 ई. में 'इण्डियन नेशनल यूनियन' नामक देशव्यापाकी नामक देशव्यापी संगठन स्थापित हुआ। इस संगठन की स्थापना का प्रमुख उद्देश्य भारतीय लोगों द्वारा देश की सामाजिक समस्याओं के सम्बन्ध में विचार विमर्श करना था। इसी समय ह्यूम ने तत्कालीन वायसराय लार्ड डफरिन से सलाह लिया और ऐसा माना जाता है कि इण्डियन नेशनल कांग्रेस 'डफरिन' के ही दिमाग की उपज थी। डफरिन भी चाहता था कि भारतीय राजनीतिज्ञ वर्ष में एक बार एकत्र हो जहां पर वे प्रशासन के कार्यो के दोष एवं उनके निवारणार्थ सुझावों द्वारा सरकार के प्रति अपनी वास्तविक भावना प्रकट करें, ताकि प्रशासन भविष्य में घटने वाली किसी घटना के प्रति सतर्क रहे। ह्यूम डफरिन की योजना से सहमत हो गया। इस संगठन की स्थापना से पूर्व ह्यूम इंग्लैण्ड गये, जहां उन्होंने रिपन, डलहौजी जान व्राइट एवं स्लेग जैसे राजनीतिज्ञों से इस विषय पर व्यापक विचार-विमर्श किया। भारत आने से पहले ह्यूम ने इंग्लैण्ड में भारतीय समस्याओं के प्रति ब्रिटिश संसद के सदस्यों में रुचि पैदा करने के उद्देश्य से एक 'भारत संसदीय समिति' की स्थापना की। भारत आने पर ह्यूम ने 'इण्डियन नेशनल यूनियन' की एक बैठक मुम्बई में 25 दिसम्बर, 1885 को की, जहां पर व्यापक विचार विमर्श के बाद इण्डियन नेशनल युनियन का नाम बदलकर 'इण्डियन नेशनल कांग्रेस' या 'भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस' रखा गया। यहीं पर इस संस्था ने जन्म लिया। पहले इसका सम्मेलन पुणे में होना था, परन्तु वहां हैजा फैल जाने के कारण स्थान परिवर्तित कर मुम्बई में सम्मेलन का आयोजन किया गया।
भारतीय राष्ट्रीय संघ की स्थापना
स्थापना | 28 दिसम्बर, 1885 को दोपहर 12 बजे |
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स्थान | मुम्बई (गोकुलदास तेजपाल संस्कृत कॉलेज का भवन) |
संस्थापक | एलन आक्टेवियन ह्यूम |
अध्यक्ष | व्योमेश चन्द्र बनर्जी |
'भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस' में कुल 72 सदस्य थे, जिनमें महत्त्वपूर्ण थे- दादाभाई नौरोजी, फ़िरोजशाह मेहता, दीनशा एदलजी वाचा, काशीनाथा तैलंग, वी. राघवाचार्य, एन.जी. चन्द्रावरकर, एस.सुब्रमण्यम आदि। इसी सम्मेलन में दादाभाई नौरोजी के सुझाव पर 'भारतीय राष्ट्रीय संघ' का नाम बदलकर 'भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस' रख दिया गया था। 'भारतीय राष्ट्रीय संघ' (कांग्रेस की पूर्वगामी संस्था) की स्थापना का विचार सर्वप्रथम डफरिन के दिमाग में आया था। कांग्रेस के प्रथम अधिवेशन में सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने हिस्सा नहीं लिया था। 1916 में लाला लाजपत राय ने यंग इण्डिया में एक लेख में लिखा है कि "कांग्रेस लार्ड डफरिन के दिमाग की उपज है।" कांग्रेस के बारे में विशेष टिप्पणी - "वह जनता के उस अल्पसंख्यक वर्ग का प्रतिनिधित्व करती है जिसकी संख्या सूक्ष्म है।" - डफरिन
"कांग्रेस अपनी मौत की ओर घड़िया गिन रही है, भारत में रहते हुए मेरी एक सबसे बड़ी इच्छा है कि मै उसे शांतिपूर्वक मरने में मदद कर सकूं।" - वायसराय कर्जन
"कांग्रेस के लोग पदों के भूखें है" - बंकिमचन्द्र चटर्जी
"यदि हम वर्ष में एक बार मेढक की तरह टर्राये तो हमें कुछ नहीं मिलेगा।" - तिलक
अश्विनी कुमार दत्त ने कांग्रेस अधिवेशनों को "तीन दिनों का तमाशा" कहा
विपिनचन्द्र पाल ने कांग्रेस को "याचना संस्था" की संज्ञा दी है।
उद्देश्य
देशहित की दिशा में प्रयत्नशील भारतीयों में परस्पर सम्पर्क एवं मित्रता को प्रोत्साहन देना, देश के अन्दर धर्म, वंश एवं प्रांत सम्बन्धी विवादों को खत्म कर राष्ट्रीय एकता की भावना को प्रोत्साहित करना, शिक्षित वर्ग की पूर्ण सहमति से महत्त्वपूर्ण एवं आवश्यक सामाजिक विषयों पर विचार विमर्श करना तथा यह निश्चित करना कि आने वाले वर्षो में भारतीय जनकल्याण के लिए किस दिशा में किस आधार पर कार्य किया जाय।
प्रस्ताव
वर्ष | स्थल | अध्यक्षा |
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1917 ई. | कलकत्ता | एनी बेसेन्ट |
1925 ई. | कानपुर | सरोजनी नायडू |
1933 ई. | कलकत्ता | नलिनी सेन गुप्ता |
1982 ई. | नई दिल्ली | इंदिरा गांधी |
1983 ई. | कलकत्ता | इंदिरा गांधी |
समम्लन में लाये गये कुल 9 प्रस्तावों के द्वारा संगठन ने अपनी मांगे सरकार के सम्मुख प्रस्तुत की। ये प्रस्ताव थे
- भारतीय शासन विधान की जांच के लिए एक 'रायल कमीशन' को नियुक्त किया जाय
- इंग्लैड में कार्यरत 'इण्डिया कौंसिल' को समाप्त किया जाय
- प्रान्तीय तथा केन्द्रीय व्यवस्थापिका का विस्तार किया जाय
- इण्डियन सिविल सर्विस परीक्षा का आयोजन भारत एवं इंग्लैण्ड दोनों स्थानों पर किया जाय और इसके साथ ही उम्र की अधिकतम सीमा 19 से बढ़ाकर 23 वर्ष की जाय
- सैन्य व्यय में कटौती की जाय
- बर्मा, जिस पर अधिकार कर लेने की आलोचना की गई थी, को अलग किया जाय
- समस्त प्रस्तावों को सभी प्रदेशों की सभी राजनीतिक संस्थाओं को भेजा जाय, जिससे वे इनके क्रियान्वयन की मांग कर सकें
- कांग्रेस का अगला सम्मलेन कलकत्ता में बुलाया जाय।
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना पर विभिन्न विद्वानों ने अपना मत प्रकट किया। लाला लाजपत राय ने अपनी पुस्तक 'यंग इंडिया' में लिखा है कि 'भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस' की स्थापना का मुख्य कारण यह था कि इसके संस्थापकों की उत्कंठा ब्रिटिश साम्राज्य को छिन्न-भिन्न होने से बचाने की थी। ह्यूम के जीवनीकार वेडरबर्न ने लिखा है है कि भारत में असन्तोष की बढ़ती हुई शक्तियों से बचने के लिए एक अभयदीप की आवश्यकता है और कांग्रेसी आन्दोलन से बढ़कर अभयदीप नामक दूसरी कोई चीज़ नहीं हो सकती। रजनीपाम दत्त ने अपनी पुस्तक इण्डिया टुडे में लिखा है कि 'कांग्रेस की स्थापना ब्रिटिश सरकार की एक पूर्व नियोजित गुप्त योजना के अनुसार की गयी।" एनी बेसेंट ने लिखा है कि "राष्ट्रीय कांग्रेस का जन्म मातृभूमि की रक्षा हेतु 17 प्रमुख भारतीयों तथा ह्यूम के द्वारा हुआ।"
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के संस्थापक एलन आक्टेवियन ह्यूम स्कॉटलैंड के निवासी थे। इण्डियन सिविल सर्विस में ह्यूम ने काफ़ी वर्षों तक कई महत्त्वपूर्ण पदों पर कार्य किया। वे 'भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस' के महामंत्री पद पर नियुक्त हुए जिस पर उन्होंने 1906 ई. तक कार्य किया। उन्हें भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के पिता के नाम से भी जाना जाता है । उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना से पूर्व कलकत्ता विश्वविद्यालय के स्नातकों को एक मर्मस्पर्शी पत्र लिखा था जिसका कुछ अंश इस प्रकार है - "बिखरे हुए व्यक्ति कितने ही बुद्धिमान तथा अच्छे आशय वाले क्यों न हो, अकेले तो शक्तिहीन ही होते हैं। आवश्यकता है संघ की, संगठन की और कार्रवाई के लिए एक निश्चित और स्पष्ट प्रणाली।"
'आपके कन्धों पर रखा हुआ जुआ तब तक विद्यमान रहेगा, जब तक आप इस ध्रुव सत्य को समझ कर इसके अनुसार कार्य करने को उद्यत न होंगें कि आत्म बलिदान और निःस्वार्थ कर्म ही स्थायी सुख और स्वतन्त्रता का अचूक मार्गदर्शन है।'
1859 में ह्यूम ने लोकमित्र नाम का समाचार-पत्र के प्रकाशन में सहयोग दिया। 1870 से 1879 ई. तक इन्होंने लेफ्टिनेंट गर्वनर के पद को इसलिए अस्वीकार कर दिया क्योंकि इस पद पर रह कर वे भारतीयों की सच्चे मन से सेवा नहीं कर सकते थे। 1885 ई. के बाद लगभग 22 वर्षों तक उन्होंने कांग्रेस में सक्रिय सदस्य की भूमिका निभायी। लाला लाजपत राय ने ह्यूम के बारे में लिखा है कि ' ह्यूम स्वतन्त्रता के पुजारी थे और उनका ह्दय भारत की निर्धनता तथा दुर्दशा पर रोता था।' यहां पर यह मानने में कोई भ्रम नहीं रहा कि ह्यूम निष्पक्ष एवं न्यायप्रिय व्यक्ति थे, उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रति अपनी बहुमूल्य तथा महान् सेवायें अर्पित की।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
बाहरी कड़ियाँ
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