भारतीय संस्कृति का स्वरूप
भारतीय संस्कृति विश्व की प्राचीनतम संस्कृतियों में से एक है। यह माना जाता है कि भारतीय संस्कृति यूनान, रोम, मिस्र, सुमेर और चीन की संस्कृतियों के समान ही प्राचीन है। कई भारतीय विद्वान् तो भारतीय संस्कृति को विश्व की सर्वाधिक प्राचीन संस्कृति मानते हैं।
वसुधैव कुटुम्बकम्
भारतीय संस्कृति का सर्वाधिक व्यवस्थित रूप हमें सर्वप्रथम वैदिक युग में प्राप्त होता है। वेद विश्व के प्राचीनतम ग्रन्थ माने जाते हैं। प्रारम्भ से ही भारतीय संस्कृति अत्यन्त उदात्त, समन्वयवादी, सशक्त एवं जीवन्त रही है, जिसमें जीवन के प्रति वैज्ञानिक दृष्टिकोण तथा आध्यात्मिक प्रवृत्ति का अदभुत समन्वय पाया जाता है। भारतीय विचारक आदिकाल से ही सम्पूर्ण विश्व को एक परिवार के रूप में मानते रहे, इसका कारण उनका उदार दृष्टिकोण है। हमारे विचारकों की उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् के सिद्धान्त में गहरी आस्था रही है। वस्तुत: शारीरिक, मानसिक और आत्मिक शक्तियों का विकास ही संस्कृति की कसौटी है। इस कसौटी पर भारतीय संस्कृति पूर्ण रूप से खरी उतरती है। प्राचीन भारत में शारीरिक विकास के लिए व्यायाम, यम, नियम, प्राणायाम, आसन, ब्रह्मचर्य आदि के द्वारा शरीर को पुष्ट किया जाता था। लोग दीर्घजीवी होते थे। पश्येम शरद: शतम्, जीवेन शरद: शतम् का संकल्प पूर्ण होने के साथ मानसिक शक्ति के विकास की भूमिका निर्मित होती थी। तदनुसार कर्मेन्द्रिय, ज्ञानेन्द्रिय, मन, बुद्धि, सूक्ष्म शरीर, स्थूल शरीर आदि के द्वारा मानसिक विकास की अवधारणा फलीभूत होती थी।
आश्रम व्यवस्था
आश्रम व्यवस्था का पालन करते हुए धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति भारतीय संस्कृति का मूलमंत्र रहा है। प्राचीन भारत के धर्म, दर्शन, शास्त्र, विद्या, कला, साहित्य, राजनीति, समाजशास्त्र इत्यादि में भारतीय संस्कृति के सच्चे स्वरूप को देखा जा सकता है।
मानव संस्कृति
यह संस्कृति ऐसे सिद्धान्तों पर आश्रित है, जो पुराने होते हुए भी नये हैं। यह सिद्धान्त किसी देश या जाति के लिए नहीं, अपितु समस्त मानव जाति के कल्याण के लिए हैं। इस दृष्टि से भारतीय संस्कृति को सच्चे अर्थ में मानव-संस्कृति कहा जा सकता है। मानवता के सिद्धान्तों पर स्थित होने के कारण ही तमाम आघातों के बावजूद भी यह संस्कृति अपने अस्तित्व को सुरक्षित रख सकी है। यूनानी, पार्थियन, शक आदि विदेशी जातियों के हमले, मुग़लों और अंग्रेज़ी साम्राज्यों के आघातों के बीच भी यह संस्कृति नष्ट नहीं हुई है। अपितु प्राणशीलता के अपने स्वभावगत गुण के कारण और अधिक पुष्ट एवं समृद्ध हुई है।
लोकहित और विश्व-कल्याण
यद्यपि भारतीय संस्कृति की मूल अवधारणा लोकहित और विश्व-कल्याण के कालजयी सिद्धान्तों पर आधारित रही है, किन्तु कालवशात इस संस्कृति में कुछ दोष भी आ गए हैं, जैसे समाज को संगठित रखने के लिए निर्मित वर्ण-व्यवस्था में ऊँच-नीच और अस्पृश्यता का कलंक, धर्मान्ध, अंधविश्वास एवं सामाजिक रूढ़ियों के प्रवेश के कारण इस संस्कृति का वास्तविक स्वरूप कुछ धूमिल अवश्य हो गया है।
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