मध्यकालीन केरल
केरल का इतिहास कुलशेखर साम्राज्य के पतन काल याने 12 वीं शती ईस्वी से लेकर यूरोपीय औपनिवेशिक सत्ताओं के आधिपत्य जमने के काल, याने 17 वीं शती तक के काल में मध्यकाल नाम से जाना जाता है। इस काल में केरल जो अनेक रियासतों में बँटा हुआ था पश्चिम के अधीन हो गया। इस अवधि में केरल के सामाजिक एवं सांस्कृतिक क्षेत्रों में भी काफ़ी महत्त्वपूर्ण परिवर्तन एवं विकास हुआ। चोल राज्य के विरुद्ध कुलशेखर साम्राज्य का युद्ध हुआ। यह युद्ध कुलशेखर साम्राज्य के पतन का कारण बना। केरल अनेक रियासतों में बँट गया, उन रियासतों के नाम हैं -
वेणाड, एलयिटत्तु स्वरूपम्, आट्टिन्गल, देशिंगनाडु (कोल्लम), करुनागप्पल्लि, कार्तिकपल्लि, कायमकुलम (ओटनाडु), परक्काट (चेम्पकश्शेरि), पन्तलम, तेक्कुमकूर, वटक्कुमकूर, पूञ्ञार, कराप्पुरम (चेर्त्तला), एरणाकुलम प्रदेश (जो कैमलों के अधीन था), इटप्पल्लि, कोच्चि, परवूर, कोडुन्गल्लूर, अयिरूर, तलप्पिल्लि, वळ्ळुवनाड, पालक्काड, कोल्लन्कोड, कवलप्पारा, वेट्टत्तुनाड, परप्पनाड, कुरुम्पुरनाट (कुरुम्परानाट), कोष़िक्कोड, कटत्तनाड, कोलत्तुनाड (वडक्कन कोट्टयम), कुरुन्गोड, रण्डुतरा, आलि राजा का कण्णूर, नीलेश्वरम, कुम्बला आदि। इनमें से सर्वाधिक शक्तिशाली रियासतों थीं -
- वेणाड
- कोच्चि
- कोषिक्कोड
- लत्तुनाड
शासन का अधिकार भी उपर्युक्त चारों रियासतों को ही प्राप्त था। शेष रियासतों के शासक या तो उनके आश्रित थे या छोटे सामंती थे जो माटम्बी कहलाते थे। वे क्षत्रिय, ब्राह्मण और नायर थे। उन्हीं में से एक था कण्णूर का अरक्कल राजवंश जो मुसलमानी था।
सामाजिक एवं राजनीतिक स्थिति
मध्यकाल में केरल का सामाजिक एवं राजनीतिक चित्र नया बना। 18 वीं शती में जब केरल पर ब्रिटिशों का सिक्का जमा तब मध्य युग का अंत हो गया। 16 वीं 17 वीं शतियाँ ही मध्ययुग का प्रमुख कालखण्ड था। उस समय की सामाजिक संरचना सामंती शासन व्यवस्था पर बनी हुई थी। यद्यपि देश का अधिकार सामंतों के हाथ में था तथापि शासन की बागडोर नायर माटम्बियों के हाथ में थी। उनके पास अपने निजी सैनिक थे। उस सामाजिक व्यवस्था के अभिन्न अंग थे। हाथियारों के प्रयोग के लिए प्रशिक्षण देने वाला कलरिकल, अंकम नामक द्वन्द्वयुद्ध, पोय्त नामक निजी युद्ध जो व्यक्तियों अथवा प्रदेशों के बीच होता था, कुटिप्पका याने पीढियों से चलने वाली बदले की भावना। उत्तर केरल में प्रचलित 'वडक्कन पाट्टुकल' नामक लोकगीतों में इस सब का वर्णन मिलता है।
न्याय व्यवस्था
न्याय पालन की कोई व्यवस्था या विधि सम्बन्धी कोई लिखित सामग्री नहीं थी। ब्राह्मणों को प्रायः अपराध करने पर भी दण्ड से छुटकारा दी जाती थी। अपराध को प्रमाणित करने के लिए 'सत्य परीक्षा' चलाई जाती थी। आरोपित व्यक्ति को उबले तेल में हाथ डुबोकर सत्य सिद्ध करना होता था। हाथ जल गया तो वह अपराधी ठहरा। इस प्रकार उबले तेल में हाथ डलवाने की परीक्षा की व्यवस्था कतिपय मन्दिरों में की गई थी जिनमें शुचीन्द्रम, एट्टुमानूर, तिरुवलयनाटु और चेन्गन्नूर के मन्दिर आते हैं।
प्रथाएँ
मातृसत्तात्मक दाय प्रथा का प्राधान्य था। जाति व्यवस्था का महत्व सर्वाधिक था। ज्ञान और अधिकार ब्राह्मणों की बपौती थी। नायन्मार प्रभावशाली वर्ग था जो संख्या में और सैनिक शक्ति में आगे था। मध्य युगीन केरलीय समाज में अस्पृश्यता दृष्टि में पडते ही अपवित्र होने की भावना इत्यादि कुरीतियाँ और सामाजिक भेद भावना भी ज़ोरों पर चल रही थीं। दास प्रथा भी प्रचलित थी। दूसरे दुराचार थे पुलप्पेटि, मण्णात्तिप्पेटि आदि। मुसलमान और ईसाई दोनों का समाज में ऊँचा स्थान था। हिन्दू इतर धर्मावलम्बियों में मलाबार में मुसलमान प्रमुख थे तो दक्षिण केरल में ईसाई लोग।
जिस मध्यकाल में सामाजिक अनाचार, भीषण भेदभाव एवं ब्राह्मणों का अधीशत्व कायम था उस कीचड भरी धरती से संस्कृति के सुन्दर सुमन खिल उठे। ज्योतिष, गणित आदि वैज्ञानिक क्षेत्रों में नवोन्मेष हुआ। संगम ग्राममाधवन, वडश्शेरि परमेश्वरन् आदि महान् गणितज्ञ इस काल में हुए। इसी काल में ही मलयालम साहित्य की आधार शिला रखी गई। मलयालम का आदि काव्य रामचरितम के कवि चीरामन, कण्णश्श कवि से लेकर तुञ्चत्तु एष़ुत्तच्चन तक के कवि इस काल में जीवित रहे थे।
वेणाड
मध्यकालीन केरल का सबसे अधिक शक्तिशाली राज्य था वेणाड। कुलशेखर साम्राज्य की दक्षिणी सीमा पर स्थित वेणाट 9 वीं शताब्दी में तिरुवनन्तपुरम और कोल्लम के बीच का छोटा - सा इलाका रह गया। तिरुवनन्तपुरम से दक्षिण की ओर जो भूभाग था वह आय राज्य के अन्तर्गत था। 12 वीं शती में वेणाड को स्वतंत्र राज्य का पद मिला। राजा को चिरवामूप्पन कहलाता था और युव राज को तृप्पाप्पूर मूप्पन कहलाता था। कोल्लम के पनन्काव नामक स्थान चिरवामूप्पन का केन्द्र था। तिरुवनन्तपुरम के समीपवर्ती तृप्पाप्पूर को केन्द्र स्थान बनाकर युवराज ने श्री पद्मनाभ स्वामी मंदिर समेत सभी मंदिरों का शासन संभाला था। विश्वास किया जाता है कि वेणाड का प्रथम शासक अय्यनडिकल तिरुवटिकल था। उसने कोल्लम के तरीसा गिरजाघर का 849 ई. में जो 'चेप्पेट' (ताम्रलेख) लिख दिया था वह 'तरिसापल्लि चेप्पेड' नाम से प्रसिद्ध है। वेणाड के प्रारम्भ कालीन शासकों की बहुत कम जानकारी ही मिली है। अय्यनटिकल के पश्चात् श्री वल्लभन् कोता, गोवर्द्धन मार्त्ताण्डन आदि शासक बने। युद्ध में चोल सैनिकों ने जब राजधानी महोदयपुरम जला डाला तब रामवर्मा कुलशेखरन् नामक कुलशेखर सम्राट ने उनका सामना करने के लिए कोल्लम में डेरा डाला। जब चोल सैनिक हट गए तब उसने वहाँ अधिवास किया और इसलिए उन्हें वेणाड राजवंश का संस्थापक माना जा सकता है, ऐसा कतिपय इतिहासकार मानते हैं। पहले वेणाट तथा बाद में तिरुवितांकूर के राजाओं ने कुलशेखर पेरुमाल पदनाम स्वीकार किया था। वेणाड राजाओं की आगे की परम्परा इस प्रकार थी -
- कोता वर्मा (1102 - 1125)
- कोता केरल वर्मा अथवा वीर केरल वर्मा (1125 - 1155)
- वीर रवि वर्मा (1155 - 1165)
- आदित्य वर्मा (1165 - 1175)
- उदय मार्त्ताण्ड वर्मा (1175 - 1195)
- वीर राम वर्मा (1195 - 1205)
- वीर राम केरल वर्मा अथवा देवधरन केरल वर्मा (1205 - 1215)
- रवि केरल वर्मा (1215 - 1240)
- पद्मनाभ मार्ताण्ड वर्मा (1240 - 1253)
- रवि वर्मा कुलशेखरन् (1299 - 1314)।
उपर्युक्त राजाओं की राजधानी कोल्लम थी। उस युग में कोल्लम बहुत ही व्यस्त बन्दरगाह था। रवि वर्मा कुलशेखरन के शासन काल में वेणाड का अभूतपूर्ण विकास हुआ। उसके समय तक राज-परम्परा पितृसत्तात्मक प्रणाली के अनुसार थी। रवि वर्मा कुलशेखरन के बाद राज-परम्परा मातृ सत्तात्मक हो गई। इस परम्परा में सत्ता में आए प्रथम शासक थे वीर उदय मार्त्ताण्ड वर्मा (1314 - 1344)। इस राजवंश के शासकों के नाम हैं -
- कुन्नुम्मेल वीर केरल वर्मा तिरुवटि (1344 - 1350)
- इरवि इरवि वर्मा (1350 - 1383)
- आदित्य वर्मा सर्वागंनाथन (1376 - 1388)
- चेरउदय मार्त्ताण्ड वर्मा (1383 - 1444)
- रवि वर्मा (1444 - 1458)
- वीरराम मार्त्ताण्ड वर्मा कुलशेखरन् (1458 - 1469)
- कोता आदित्य वर्मा (1469 - 1484)
- रवि रवि वर्मा (1484 - 1512)
- रवि केरल वर्मा (1512 - 1514)
- जयसिंह केरल वर्मा (1514 - 1516)
- भूतल वीर उदय मार्त्ताण्ड वर्मा (1516 - 1536)
- भूतलवीर रवि वर्मा
- श्री वीर रवि वर्मा
- आदित्य वर्मा (तीनों का शासन काल अज्ञात है)
- श्री वीर केरल वर्मा (1544 - 1545)
- रवि वर्मा (1545 - 1556)
- उण्णि केरल वर्मा
- श्री वीर उदय मार्ताण्ड वर्मा
- श्री वीर रवि वर्मा
- आदित्य वर्मा
- रामवर्मा
- रवि वर्मा (1611 - 1863) इत्यादि।
इस परम्परा के राजा रवि वर्मा (1611 - 1663) के राज्यकाल में तमिलनाडु के मधुरा के शासक तिरुमला नायक्कन ने वेणाड पर आक्रमण किया। वेणाड के नाञ्चिनाड भूभाग पर उन्होंने आक्रमण किया था जो इन दिनों तमिलनाडु का भाग है। 'इरविक्कुट्टिप्पिल्लप्पोरु' नामक 'तेक्कनपाट्टु' (दक्षिणी लोकगीत) प्रसिद्ध है जिसमें 'इरविक्कुट्टिप्पिल्लै' नामक वेणाड के वीर राजा की प्रशस्ति कथा है जिसने मधुरा के सैनिकों के विरुद्ध युद्ध कर वीर मृत्यु प्राप्त की थी। रवि वर्मा के काल में ब्रिटिश ईस्ट इन्डिया कम्पनी ने विष़िञ्ञम में एक व्यापारिक संस्था की स्थापना की।
रवि वर्मा के बाद जो रवि वर्मा (1663 - 1672) ओर आदित्य वर्मा (1672 - 1677) शासक बने वे अत्यंत दुर्बल थे। श्री पद्मनाभस्वामी मंदिर के शासक एट्टरयोगम ओर इन राजाओं के बीच मतभेद उत्पन्न हुआ। मंदिर के स्वामित्व में जो भूमि है उसके कर वसूल करने का काम एट्टरयोगम ने अष्ट दिशाओं के आठ नायर माटम्बियों (एट्टुवीट्टिल पिल्लमार) को सैंप दिया। एट्टरायोगम जिसको धार्मिक अधिकार प्राप्त था और एट्टुवीटर जिसको राजनीतिक अधिकार प्राप्त था, ने मिलकर के राजा को कडी चुनौती दी। राज्य गृहयुद्ध के कगार पर पहुँच गया। उस समय वेणाड की राजधानी कलक्कुळम थी जो आज तमिळनाडु के अन्तर्गत है। रवि वर्मा बालक होने के कारण उनकी छोटी माँ उमयम्मा रानी ने 1677 - 1684 तक शासन किया। इस समय एक साहसी मुग़ल सरदार (मुकिलन्) ने वेणाड के दक्षिणी क्षेत्रों पर आक्रमण किया। मुग़ल सरदार ने जब तिरुवनन्तपुरम को अधीन कर लिया तब रानी ने नेडुमन्गाड राजमहल में शरण ली। इस समय वडक्कन कोट्टयम के केरल वर्मा ने सहायता पहुँचाई। रानी ने उसे इरणियल राजकुमार की हैसियत से वेणाड का दत्तक पुत्र बनाकर राज्य की ओर से उसकी सहायता को मान्यता प्रदान की। तिरुवट्टार में जो युद्ध हुआ उसमें केरल वर्मा ने मुग़ल सरदार का वध किया। तदनन्तर केरल वर्मा रानी उमयम्मा का परामर्शदाता बना। उसकी नीतियों से नायर समुदाय के लोग रुष्ट हुए। 1696 में उन्होंने षड्यंत्र रचाकर केरल वर्मा को मार डाला। वेणाड में केरलवर्मा ने ही पुलप्पेटि और मण्णाप्पेटि जैसी कुरीतियाँ बन्द कर दी थीं।
उमयम्मा रानी के बाद जिन्होंने शासन किया वे थे रवि वर्मा (1684 - 1718), आदित्य वर्मा (1718 - 1721) और राम वर्मा (1721 - 1729), मधुरा के नायक्कर वंश के राजाओं के आक्रमण से वेणाड शिथिल हो गया। 1697 में मधुरा सैनिकों ने वेणाड को बुरी तरह हराया। उसने वेणाड पर कई बन्धन डाले, कई नियम थोप दिए। नान्चिनाड के कृषकों को इसका सारा दुष्परिणाम भुगतना पडा। कर वसूल करने वाले अधिकारियों ने भूमिहीन कृषकों का ख़ून ही चूस लिया। रामवर्मा के शासनकाल में अधिकारी और भूमिहीन कृषकों के बीच अनेक बार लडाइयाँ हुईं। एट्टरयोगम और एट्टुवीट्टिल पिल्लै दोनों राजा के विरुद्ध हो गए। अपने अधिकार को बनाये रखने के लिए राजा ने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी (1723) से तथा मधुरा के नायक्करों (1726) से समझैता कर लिया। बाद में मार्त्ताण्ड वर्मा द्वारा अधिकार ग्रहण करने तथा तिरुवितांकूर के बनने में ये घटनाएं कारण बनीं।
कोच्चि राज्य
मध्यकालीन केरल के शक्तिशाली राज्यों में एक था कोच्चि। कुलशेखर साम्राज्य के पतन के बाद जो शक्तिशाली रियासतें बनीं थीं वे थीं कोच्चि, वेणाड, कोष़िक्कोड और कोलत्तुनाड। कोच्चि राजवंश पेरुम्पटप्पु स्वरूपम नाम से जाना जाता था। जनश्रुति है कि इस वंश का उदय माँ की तरफ से महोदयपुरम के कुलशेखरों से हुआ है। पेरुम्पटप्पु स्वरूपम का केन्द्र 13 वीं शताब्दी तक वन्नेरि था जो मलप्पुरम ज़िला के पेरुम्पटप्पु पंचायत के अन्तर्गत था। इसी शताब्दी के अंत में जब कोष़िक्कोड के ज़मोरिन (सामूतिरि) ने वळ्ळुवनाड पर आक्रमण किया तब उन्होंने महोदयपुरम को अपना वासस्थान बनाया 14 वीं शती में कोच्चि केन्द्र बना। 15 वीं शती में पेरुम्पटप्पु वंश पाँच उपवंश (जो माता की तरफ से ) में बाँटा। (जो मूत्ता तावष़ि, इळय तावष़ि, पल्लुरुत्ति तावष़ि, माटत्तुन्कल अथवा मुरिन्गूर तावष़ि और चाष़ूर तावष़ि कहलाते थे) इन पाँचों में से जो सबसे वयस्क थे वे राजा बनते थे, यही नियम था। यह राजवंशों के बीच फूट का कारण बना। 1418 में जब वास्को द गामा पहुँचा तब पुर्तग़ाली व्यापार के उद्देश्य से कोच्चि में आए। उस समय इनके बीच अत्यन्त घोर गृहकलह छिड़ा हुआ था।
पेड्रो आलवरस क़ब्राल (Pedro Alvarez Cabral) नामक पुर्तग़ाली कप्तान जब कोच्चि पहुँचा तब कोच्चि का राजा उण्णिराम कोयिल प्रथम था। उसने पुर्तग़ालियों को व्यापार की सुविधा दी। उसके पश्चात् उण्णिराम कोयिल द्वितीय (1503 - 1537), वीर केरल वर्मा (1537 - 1565) केशवराम वर्मा (1566 - 1601) शासक बने। केशव राम वर्मा का शासन उत्तम रहा। इस काल में यहूदियों ने कोच्चि को अपना वासस्थान बनाया। इस काल में राजा ने गौड़ सारस्वत ब्राह्मणों को मट्टान्चेरी में तिरुमला मंदिर के निर्माण के लिए कर माफ कर के ज़मीन प्रदान की। राम वर्मा के दरबारी कवि केशव थे 'राजरत्नावलीयम्', 'चम्पू और नैषध चम्पू' के रचयिता मष़मंगलम नारायणन नम्पूतिरि, 'राम वर्मा विलासम' और 'रत्नकेदयम्' काव्यों के रचयिता बालकवि। इस काल की जो घटना केरल के ईसाई धर्म के इतिहास में दूरगामी परिणाम का कारण बनी वह है उदयमपेरूर सुनाहादोस (1599) की प्रस्तुति। वृद्धावस्था में राजा ने काशी की यात्रा की और वह वहीं दिवंगत हो गया। तत्पश्चात् वीर केरल वर्मा (1601 - 1615), रवि वर्मा (1615 - 1624), वीर केरल वर्मा (1624 - 1637), गोदवर्मा (1637 - 1645), वीर रायिरा वर्मा (1645 - 1646), वीर केरल वर्मा (1646 - 1650) और राम वर्मा (1650 - 1656). शासक रहे। राम वर्मा के बाद रानी गंगाधरलक्ष्मी (1656 - 1658) ने शासन किया। कोच्चि राज्य के इतिहास में रानी गंगाधर लक्ष्मी एकमात्र रानी थी जिसने राज्य का शासन किया। तदनन्तर वेट्टत्तुनाड (वर्तमान पोन्नानि, तिरुर तहसीलों में व्याप्त पुरानी रियासत) से दत्तक लिया गया। रामवर्मा (1658 - 1662), राजा बना। 1668 के फरवरी में मट्टान्चेरी में जो युद्ध हुआ उसमें वह मारा गया। यद्यपि गोदवर्मा जिसे वेट्टत्तुनाड से ही दत्तक लिया गया (1662 - 1663) राजा बना था तथापि उसे डचों ने अधिकार से निकाल दिया।
डचों ने गोदवर्मा को हराकर वीर केरल वर्मा (1663 - 1687) को गद्दी पर बिठाया। इस प्रकार डच ईस्ट इन्डिया कम्पनी कोच्चि के शासन तंत्र में प्रधानमंत्री हुआ करते थे। मई 1678 में एक समझौते के अनुसार शासनाधिकार डचों ने अपने हाथ में ले लिया। यह विवाद किस राजपरिवार से किस तावष़ि (पितृ - परिवार) से दत्तक लेना है कोष़िक्कोड सामूतिरि और डचों के बीच का व्यापार सम्बन्ध आदि ने समस्याएँ उत्पन्न कीं। रामवर्मा (1687 - 1693), रवि वर्मा (1693 - 1697), राम वर्मा (1697 - 1701) आदि राजाओं के शासनकाल में ये समस्याएँ ज्वलंत रहीं।
- राजा राम वर्मा
राजा राम वर्मा (1710 - 1722) के राज्यकाल में सामूतिरि ने कोच्चि पर आक्रमण किया। यद्यपि 1710 में संधि करके युद्ध को समाप्त कर दिया था तो भी 1715 में पुनः आक्रमण हुआ। 1717 में हुई संधि के अनुसार युद्ध समाप्त हुआ। युद्ध से राज्य दुर्बल हो गया। जो नायर माटम्बि थे वे शक्तिशाली बने। राम वर्मा (1731 - 1746), केरल वर्मा (1746 - 1749), रामवर्मा (1749 - 1760) आदि राजाओं के राज्यकाल में समस्या जटिलतर हो गई। 'छोटा-बडा' के विवाद ने समस्या को कठिन बनाया।
- राजा केरल वर्मा
राजा केरल वर्मा (1760 - 1775) ने तिरुवितांकुर के साथ अच्छा संबंध स्थापित किया। जब सामूतिरि का आक्रमण हुआ था तब तिरुवितांकूर के सैनिक कोच्चि की मदद करने पहुँच गए थे। 1764 में जब तिरुवितांकूर सैनिक पीछे हटे तब प्रतिदान के रूप में आलंगाड और परवूर जो कोच्चि का भाग था, तिरुवितांकूर को दिया गया। 1776 में मैसूर सेना ने तृश्शूर पर कब्ज़ा कर लिया जो कोच्चि का भाग था और केरल वर्मा को 'कप्पम' (किसी राज्य की प्रभुता को मानकर दूसरा राज्य जो 'कर' उसको दिया जाता है वह) देने के लिए मजबूर कर दिया।
- राम वर्मा
राम वर्मा (1775 - 1790) दुर्बल शासक था। अतः शासन का अधिकार परिवार के राजकुमार जिस का नाम भी राम वर्मा था, ने संभाला। तिरुवितांकूर और डच ईस्ट इन्डिया कंपनी के निर्देशानुसार ही ऐसा हुआ था। राम वर्मा जिसकी उम्र केवल बीस वर्ष की थी बाद में शक्तन तम्पूरान नाम से प्रसिद्ध हो गया। यद्यपि उसने 1769 से ही शासन करना शुरू किया था तो भी 1790 में ही उसे राज पद मिला था।
कोच्चि के शासकों में सर्वश्रेष्ठ था शक्तन तम्पुरान। उसने नायर माटम्बियों को नियंत्रित कर अधिकार अपने हाथ में रखा। उसके शासन में कोच्चि प्रगति पा सका। उसने कोच्चि को व्यापार केन्द्र बनाने के लिए आवश्यक कदम उठाया। शक्तन तम्पुरान ने ब्राह्मण पुरोहितों के अधीशत्व पर रोक लगा दी। उसने लैटिन काथलिक की बडी सहायता की। तृश्शूर के वडक्कुमनाथ मंदिर, पेरुमनम (पेरुवनम) मंदिर और तिरुविल्वामला मंदिर को सरकार के अधीन कर लिया गया। इरिन्गालकुडा कूडलमाणिक्यं मंदिर, जो टीपू सुलतान के आक्रमण काल में ध्वस्त हो गया था, पुनरुद्धार कर दिया गया। तिरुवंचिक्कुलम मंदिर का पुनर्निमाण कराया गया। शक्तन तम्पुरान ने ही तृश्शूर पूरम का आरंभ किया था।
कोष़िक्कोड राज्य
कोष़िक्कोड मध्य कालीन केरल के सबसे बडे राज्यों में एक था। सामूतिरि नाम से कोष़िक्कोड के राजा जाने जाते थे। सन् 1498 में पुर्तग़ाली नाविक वास्को द गामा कोष़िक्कोड़ के पास काप्पाड में जहाज़ से उतरा। यह सामूतिरि का शासन काल था। इस घटना से भारत में दीर्घकालीन यूरोपीय शासन का श्रीगणेश हुआ। केरलीय संस्कृति को कोष़िक्कोड और सामूतिरि की देन महत्त्वपूर्ण है। ईसा की तेरहवीं शताब्दी से ही कोष़िक्कोड शक्तिशाली राज्य के रूप में विकसित हुआ। कुलशेखर साम्राज्य काल में कोष़िक्कोड और समीपवर्ती प्रदेश पोलनाड का भाग था जिस पर पोरलातिरियों का शासन चल रहा था। उस युग में मलप्पुरम ज़िला के अन्तर्गत नेटियिरुप्पु के एराडि लोगों ने समुद्र व्यापार पर क़ब्ज़ा करने के लिए पोरलातिरियों के साथ कई बार लडाईयाँ लडीं। एराडियों ने पोलनाड पर अधिकार जमा कर नेटियिरुप्प छोड़कर कोष़िक्कोड को अपना केन्द्र बनाया। नेटियिरुप्पु से कोष़िक्कोड के इस सम्बंध का परिणाम था कि कोष़िक्कोड राजवंश को नेटियिरुप्पु स्वरूपम नाम मिला। 14 वीं शताब्दी तक कोष़िक्कोड प्रबल राज्य बन चुका था। कोष़िक्कोड बन्दरगाह के विकास से सामूतिरियों के शासन को बल मिला। कोष़िक्कोड से विदेशों में मसाले व कपडे की निर्यात होती थी। विदेशी जहाज़ अबाध रूप में कोष़िक्कोड आ जाते थे। अरब व चीनी लोग ही वैदेशिक व्यापारियों में प्रमुख थे। व्यापारों का एकाधिकार अरबों को प्राप्त था। इस व्यापारिक सम्बन्ध ने कोष़िक्कोड को आर्थिक व सैनिक क्षेत्र में उन्नत बनाया।
मामान्कम
बेप्पूर, परप्पनाड, वेट्टत्तुनाड, कुरुम्ब्रनाड आदि पड़ोसी राज्यों को सामूतिरियों ने अपने अधीन कर लिया। पर वल्लुवनाड के राजा (वल्लुवक्कोनातिरि) ने सामूतिरि के अधीशत्व को मान्यता नहीं दी। भारतप्पुष़ा नामक नदी के तट पर स्थित तिरुनावाया में आयोजित महोत्सव मामान्कम (माघमकम्) का अध्यक्ष पद वल्लुवनाट्ट राजा को ही प्राप्त था। प्रस्तुत पद जिसका राजनीतिक महत्व था, प्राप्त करने के लिए सामूतिरि ने वल्लुवनाड पर धावा बोला। पन्नियूर और चोव्वरा नामक नम्बूतिरि ग्रामों के बीच जो दलीय प्रतियोगिता चल रही थी उसमें सामूतिरि ने वल्लुवनाड को साथ देकर पन्नियूर का सामना किया। वल्लुवक्कोनातिरि ने पन्नियूर का पक्ष ग्रहण किया। सामूतिरि ने वल्लुवनाड को परास्त कर मामान्कम का अध्यक्षपद (संरक्षक पद) ले लिया। तत्पश्चात् सामूतिरि ने तलिप्पिल्लि रज़वाडे को (जो कि आज के तृश्शूर ज़िले में है) अधीन कर लिया। तदनन्तर सामूतिरि ने कोच्चि राज्य में हुए वय सम्बन्धी 'छोटा- बडा' के विवाद में हस्तक्षेप कर कई बार अभियान चलाया। सन् 1498 में जब पुर्तग़ाली केरल पहुँचे तब उत्तर केरल के सर्वाधिक शक्तिशाली महाराजा सामूतिरि थे। सामूतिरि ने अपने सबसे बडे शत्रु कोलत्तनाड को भी अपना आज्ञानुवर्ती बना लिया था।
सन् 1498 में जब वास्को द गामा पहुँचा तब सामूतिरि ने उसका हार्दिक स्वागत किया। सन् 1500 में दूसरा पुर्तग़ाली दल पहुँचा जिसका नेता था पेद्रो आलवरस क़ब्राल। सामूतिरि ने उन्हें कोष़िक्कोड में व्यापार केन्द्र स्थापित करने की अनुमति दी। अरब व्यापारियों के एकाधिकार को समाप्त करने के उद्देश्य से पुर्तग़ालियों ने उन पर चढाई की जिससे सामूतिरि पुर्तग़ालियों का विरोध करने लगे। देशी लोगों ने पुर्तग़ालियों का व्यापार केन्द्र ध्वस्त कर दिया तो क़ब्राल कोच्चि पहुँचा। कोच्चि में व्यापार सम्बन्ध सुदृढ करने के बाद क़ब्राल कण्णूर की ओर बढा तो क़ब्राल के दल पर कोष़िक्कोड की नाविक सेना ने आक्रमण किया।
सन् 1502 में जब वास्को द गामा पुनः भारत पहुँचा तब उसने सामूतिरि से भेंट की। किन्तु सामूतिरि के मन में पुर्तग़ालियों के प्रति जो वैरभाव था वह कुछ कम नहीं हुआ। कोष़िक्कोड से अरब व्यापारियों को निकाल देने की गामा की माँग पर सामूतिरि ने ध्यान नहीं दिया। चूँकि कोच्चि का पुर्तग़ाली प्रेम सामूतिरि को खटकता था इसलिए सामूतिरि ने कोच्चि से माँग की कि वे पुर्तग़ालियों को देश से निकाल दें। किन्तु कोच्चि के महाराजा ने सामूतिरि की माँग को अनसुना कर दिया जिस कारण सन् 1503 के मार्च को कोष़िक्कोड सेना कोच्चि की तरफ बढी। पुर्तग़ालियों की ओर से सहायता मिलने पर भी कोच्चि को हार मानना पडा। कोच्चि के महाराजा ने इलंकुन्नप्पुष़ा मंदिर में शरण ली। सितम्बर में पुर्तग़ाली सेना पहुँच गई। उसने कोष़िक्कोड को परास्त कर कोच्चि राजा को पुनः गद्दी पर बिठाया। यद्यपि सामूतिरि ने 1504 में पुनः अभियान चलाया तथापि वह पराजित होकर हट गया। कोडुंगल्लूर जो सामूतिरि के पास था अब पुर्तग़ालियों की अधीनता में आ गया।
मध्ययुगीन केरल में यदि कोई पुर्तग़ालियों का विरोध कर सका था तो वह मात्र सामुतिरि ही था। प्राच्य देश में पुर्तग़ालियों के अधीनस्थ प्रदेशों का प्रतिनिधि बनकर 1505 में फ्रान्सिस्कों अलमेयदा पहुँच गया। उसने कण्णूर और कोच्चि में किले बनवाये। राजा कोलत्तिरि पुर्तग़ालियों का मित्र बन गया। परंतु सामूतिरि की प्रेरणा से कोलत्तिरि पुर्तग़ालियों के विरुद्ध हो गया। सामूतिरि के सैनिकों ने कई बार पुर्तग़ालियों का सामना किया। पुर्तग़ालियों से सामूतिरि को लडने की शक्ति वह नाविक सेना थी जिसका नेतृत्व कुंजालि मरक्कार कर रहे थे। कुंजालियों ने जो युद्ध किया वह केरल के इतिहास में युद्ध वीरों का अद्भुत उदाहरण प्रस्तुत करता है। सन् 1531 में पुर्तग़ालियों ने वेट्टत्तुनाड के चालियम में जो किला बनवाया था वह सामूतिरि को कडी चुनौती हो गया। सन् 1540 में सामूतिरि और पुर्तग़ालियों के बीच जो संधि हुई थी वह अस्थायी रूप में युद्ध बन्द करने के लिए ही हुई थी। कोच्चि और वडक्कुमकूर के बीच उठे विवादों में पुर्तग़ालियों का जो हस्तक्षेप हुआ उससे पुनः युद्ध (1550) छिड गया। जब मित्र वडक्कुमकूर महाराजा का वध किया गया तब सामूतिरि ने कोच्चि पर आक्रमण किया। पुर्तग़ाली सैनिकों ने कोच्चि का पक्ष लिया। सामूतिरि के प्रदेशों पर भी आक्रमण हुआ। यद्यपि 1555 में पुनः शान्ति कायम हुई थी तो भी अगले वर्ष कोलत्तिरि ने सामूतिरि की सहायता से पुर्तग़ालियों के कण्णूर दुर्ग पर कब्ज़ा किया।
सामूतिरि ने बीजापुर और अहमदनगर के सुल्तानों से मैत्री स्थापित कर सन् 1570 में पुर्तग़ालियों पर चढाई की। सन् 1571 में कोष़िक्कोड सेना ने कुंजालियों के नेतृत्व में चालियम दुर्ग को अधीन कर लिया। नाविक युद्ध में कुंजालियों ने पुर्तग़ालियों को कई बार हराया। वे अप्रतिम शक्ति हो गए। पराजित पुर्तग़ालियों ने सन् 1571 में पोन्नानि में व्यापार गृह बनवाने की अनुमति सामूतिरि से प्राप्त कर ली। कुंजालियों की बढ़ती शक्ति देखकर सामूतिरि असंतुष्ट हो गया था। सन् 1588 में सामूतिरि की अनुमति से पुर्तग़ालियों ने अपना केन्द्र स्थापित किया। पुर्तग़ालियों से मिलकर सामूतिरि कुंजालियों के विरुद्ध हो गए। सन् 1600 ई. में सामूतिरि के सिपाहियों ने कुंजालि के दुर्ग पर आक्रमण किया। माफी देने का वचन दिया गया तो कुंजालि मराक्कार (चतुर्थ) हार मान गया। सामूतिरि ने वादा का उल्लंघन कर कुंजालि मराक्कार (चौथा) को पुर्तग़ालियों को सुपुर्द कर दिया। कुंजालि (चौथा) और उनके अनुयोययों को पुर्तग़ालियों ने गोवा ले जाकर मार डाला। यद्यपि पुर्तग़ालियों ने कुंजालियों को खात्मा कर दिया तथापि केरल पर पुर्तग़ाली अधीशत्व भी खतम हुआ। डचों ने उन्हें सत्ता से निकाल बाहर कर दिया और अपनी प्रभुता स्थापित की। तदनन्तर डचों से सामूतिरियों की कई लडाइयाँ हुईं। 1755 ई. में सामूतिरि ने डचों के अधीनस्थ कोच्चि प्रदेशों पर अधिकार जमाया।
कोष़िक्कोड राज्य अत्यंत शक्तिशाली हो चुका था। किन्तु 18 वीं शताब्दी में मैसूर के आक्रमणों से कोष़िक्कोड राज्य धराशायी हो गया। हैदर अली और पुत्र टीपू सुल्तान के आक्रमण के आगे सामूतिरि टिक नहीं सका। 1766 में हैदर के सिपाही उत्तरी केरल में प्रवेश कर कटत्तनाट और कुरुम्बनाट को अधीन कर लिया। जब मैसूर सैनिक कोष़िक्कोड की ओर गए तब सामूतिरि ने परिजनों को पोन्नानि भेजकर आत्महत्या कर ली। तत्पश्चात् टीपू सुल्तान के हाथ में कोष़िक्कोड आया। जब टीपू को श्रीरंग पट्टणम् संधि (1792) के तहत ब्रिटिशों के सामने हथियार डालना पडा तब कोष़िक्कोड समेत संपूर्ण मलाबार क्षेत्र ब्रिटिशों के अधीन हो गया। सन् 1956 तक मलाबार ब्रिटिश मद्रास राज्य का एक ज़िला मात्र रह गया। सन् 1956 ई. में जब केरल राज्य का गठन हुआ तब मलाबार केरल राज्य में मिलाया गया।
कोलत्तुनाड
उत्तरी मलाबार को ही कोलत्तुनाड कहलाता था। संघमकाल में यह प्रदेश नन्ना राजवंश के अधीन था जिसकी राजधानी एष़िमला थी। नौवीं शती से बारहवीं शती तक उत्तरी मलाबार के वयनाड, तलश्शेरि आदि क्षेत्र जब कुलशेखर राजाओं के अधीन थे तब कासरकोड और चिराक्कल क्षेत्र मूषक वंश द्वारा शासित था जिसकी राजधानी एष़िमला के समीप थी। नन्ना राजवंश को मूषक वंश का उत्तराधिकारी कहलाता है। कतिपय इतिहासकारों के अनुसार मूषक राज्य कुलशेखरों के राज्यकाल में ही एक स्वतंत्र राज्य रहा होगा। बताया जाता है कि कुलशेखर साम्राज्य के पतन के बाद ही मूषक स्वतंत्र राज्य बना था। 14 वीं शताब्दी में कोलत्तुनाड नाम से जो भूभाग विख्यात हुआ वह मूषक राज्य था। राजाओं को कोलत्तिरि (यूरोपीयों के अनुसार कोलस्त्री) पुकारा जाता था। संस्कृत में कोलम से तात्पर्य है नाव। कोलत्तिरियों ने नाव को अपना राज्य चिह्न बनाया था।
मारको पोलो ने (13 वीं शती) अपने यात्रावृत्त में कोलत्तुनाड को एलि राज्य नाम से पुकारा है। बाद में कोलत्तुनाड उत्तर में नेत्रावती नदी से दक्षिण में कोराप्पुष़ा (नदी) तक तथा पूर्व में कुटक पहाडी से पश्चिम में अरब सागर तक फैल गया। कुम्बला, नीलेश्वरम्, वटक्कन कोट्टयम, कटत्तनाड इत्यादि क्षेत्र कोलत्तुनाड का अंग हो गया।
1498 में वास्को दि गामा जब पहले कोष़िक्कोड पहुँचकर वापस जाने लगा था तब कोलत्तिरि से मिलकर उसने क्षेत्र में व्यापार का एकाधिकार प्राप्त कर लिया। 1502 में वास्को दि गामा जब दुबारा पहुँचा तब कोलत्तिरि ने उसे कण्णूर में भण्डार गृह बनवाने की अनुमति दी। सन् 1505 में पुर्तग़ालियों ने कोलत्तिरि से अनुमति लेकर कण्णूर दुर्ग (सेन्ट अंजलो दुर्ग) का निर्माण किया। सामूतिरि के प्रति कोलत्तिरि की जो दुश्मनी थी उसने पुर्तग़ालियों से कोलत्तिरि को स्नेह सम्बन्ध जोडने को प्रेरित किया। फलतः कोलत्तिरि का अरबों के साथ जो व्यापारिक सम्बन्ध था वह टूट गया। किन्तु पुर्तग़ालियों के अत्याचार और लोगों को धर्म परिवर्तन के लिए विवश करना आदि देखकर कोलत्तिरि सामूतिरि और कुंजालिमराक्कारों से मिलकर पुर्तग़ालियों के विरुद्ध लडने को तैयार हुए (1564)। डचों ने सन् 1663 में कन्नूर दुर्ग को अधीन कर कोलत्तुनाड के साथ स्नेह सम्बन्ध स्थापित किया।
नई रियासतों का उदय
17 वीं शती के अंत तक कोलत्तुनाड के अन्तर्गत कई रियासतों का उदय हुआ। कडत्तुनाड, (वडक्कन) कोट्टयम, अराक्कल, नीलेश्वरम, रण्डुतरा आदि प्रमुख रहे। कतिपय कोलत्तिरि शासकों ने मातृ सत्तात्मक प्रथा का पालन न कर के देश को बाँटकर अपनी पत्नी तथा संतानों को दे दिया। कई रियासतों के उद्गम का यही कारण था। कोलत्तिरि राजवंश का विभाजन निम्नलिखित शाखाओं में हो गया - पल्लिक्कोविलकम, उदयमंगलम कोविलकम, चिरक्कल कोविलकम आदि। सन् 1725 में फिरंगियों ने मय्यष़ि (माहि) को अधीन कर लिया। 1732 में जब कर्नाटक के इक्कोरिनायकों ने कोलत्तुनाड पर आक्रमण किया तो ब्रिटिशों ने धर्मपट्टणम पर अधिकार जमा कर ही किया था। अरक्कल आलि राजा का निमंत्रण पाकर हैदर अली सेना समेत पहुँचा और सन् 1766 में हैदर अली की सेना ने कोलत्तुनाड पर चढाई की। राजा मारा गया। राज परिवार ने पहले तलश्शेरि (जहाँ ब्रिटिशों का कारखाना और दुर्ग है) में और बाद में तिरुवितांकूर में शरण ली। सन् 1766 में कर देने की व्यवस्था में हैदर अली निकटस्थ उत्तराधिकारी को कोलत्तिरि पद पर बिठाया। कोलत्तिरि ने ब्रिटिशों के अधीनस्थ धर्मटम पर आक्रमण (1788) किया और आक्रमण के दौरान वह मारा गया। 18 मार्च 1792 को जब मलाबार ब्रिटिशों के अधीन हो गया तब ब्रिटिशों ने कोलत्तिरि को अटुत्तूण (पेंशन) प्रदान किया। कोलत्तुनाड के राजाओं का क्रमबद्ध इतिहास प्राप्त नहीं हुआ है। कुछ प्रसिद्ध कोलत्तिरियों के जो नाम साहित्यिक कृतियों में आये हैं वे इस प्रकार हैं - राघवन (14 वीं शती), केरल वर्मा (1423 - 1446), रामवर्मा (1443 में मृत्यु), उदयवर्मन (1446 - 1475), रवि वर्मा (16 वीं शती)।
कृष्णगाथा के रचयिता चेरुश्शेरि उदयवर्मन के आश्रित कवि थे। चेरुश्शेरि ने लिखा है कि उदयवर्मन के आदेशानुसार ही उन्होंने कृष्णगाथा की रचना की थी। 16 वीं शती में जब पुर्तग़ालियों का अधिकार केरल में जमने लगा था तब कोलत्तिरि राजवंश सामूतिरि के अधीन था।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
बाहरी कड़ियाँ
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