रत्ना की बात -रांगेय राघव
रत्ना की बात -रांगेय राघव
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लेखक | रांगेय राघव |
प्रकाशक | राजपाल एंड संस |
ISBN | 9788170283997 |
देश | भारत |
पृष्ठ: | 135 |
भाषा | हिन्दी |
प्रकार | उपन्यास |
रत्ना की बात एक उपन्यास है, जो भारत के प्रसिद्ध साहित्यकारों में गिने जाने वाले रांगेय राघव द्वारा लिखा गया था। इसका प्रकाशन 'राजपाल एंड संस' द्वारा हुआ था। उपन्यास 'रत्ना की बात' मध्यकालीन हिन्दी कविता के अग्रणी भक्त कवि और 'रामचरितमानस' के अमर गायक गोस्वामी तुलसीदास के जीवन पर आधारित है, जिसमें महाकवि की लोक मंगल की भावना को केन्द्र में रखने के साथ-साथ तुलसीदास के घरबार और उनके जीवन संघर्ष को फ्लैशबैक तकनीक से इस तरह उभारा गया है कि उस समय का समूचा समाज, युगीन प्रश्न और उस सबके बीच कवि की सामाजिक-सांस्कृतिक भूमिका का एक जीवंत चित्र पाठक के मानसपटल पर सजीव हो उठता है।
- सबसे दिलचस्प बात यह भी है कि इस उपन्यास के केन्द्र में तुलसीदास तो हैं ही, उनकी पत्नी रत्नावली का स्थान भी कुछ कम नहीं है, अर्थात पुरुष और प्रकृति का ठीक सन्तुलन।
- न केवल 'रत्ना की बात' अपितु इस श्रृंखला के अधिकांश उपन्यासों का महत्त्व इतिहास समाज और संस्कृति के विकास में पुरुष के साथ-साथ स्त्री का महत्त्व निरूपित करने के लिए भी है।
- रांगेय राघव का यह उपन्यास तुलसीदास और रत्नावली के माध्यम से मध्यकालीन हिन्दी भक्ति काव्य का एक जीवन्त और हार्दिक चित्र प्रस्तुत करता है, जो पाठक को अन्त तक बांधे रहता है।[1]
भूमिका
'रत्ना की बात' उपन्यास में तुलसीदास का जीवन वर्णित है। उनका जीवनवृत्त ठीक से नहीं मिलता। जो भी है, वह विद्वानों द्वारा पूर्णतया नहीं माना गया है। अत: जो उन्होंने अपने बारे में कहा है, जो बाह्य साक्ष्य हैं, जो दो श्रुतियाँ हैं, उन सबने मिलकर ही महाकवि का वर्णन पूरा कर सकना सम्भव किया है। तुलसी और कबीर भारतीय इतिहास की दो महान् विभूतियाँ हैं। दोनों ने भिन्न-भिन्न कार्य किए हैं। उन्होंने इतिहास की विभिन्न विचारधाराओं का प्रतिनिधित्व किया है। दोनों के विचारों का निर्माण वर्गों अर्थात वर्णों के दृष्टिकोण से हुआ था।
गोस्वामी तुलसीदास की पत्नी 'रत्ना' थीं, जो स्वयं भी एक कवयित्री थीं। तुलसीदास प्रकाण्ड विद्वान् थे। उन्हें जीवन के अन्तिम काल में अपने युग के सम्मानित व्यक्तियों द्वारा आदर प्राप्त हो गया था। कबीर को केवल जनता का आदर मिल सका था। तुलसीदास अपनी कविताएँ लिखते थे। परन्तु उनके कुछ ऐसे पद, दोहे आदि हैं जो इतने मुखर हैं कि सम्भवतः लिखे बाद में गए होंगे और कहे पहले गए होंगे। वे बहुत चुभते हुए हैं और अधिकांशतः उनमें आत्म परिचय आदि हैं। इसीलिए मैंने उनको उद्धृत कर दिया है। बाकी उद्धरणों में दो प्रकार की रचनाएँ हैं। एक वे उद्घरण हैं जो कवि के जीवन के साथ-साथ यत्र-तत्र उनकी रचना का भी अल्पाभास देते हैं। दूसरे वे उद्घारण हैं जो यह प्रकट करते हैं कि वे केवल कवि नहीं थे, वे मूलतः भक्त थे। अतः लिखकर रख देना ही उनका काम नहीं था। वे उस विचार को बाद में, लिखते समय, या पहले भी अनुभव करते थे। उनकी जीवन भक्ति था, लेखन भक्ति था। अतः भक्ति के पक्ष को दिखलाने के लिए भी उनकी रचनाओं का ही सहारा लिया गया है।
तुलसी ने कई काव्य ग्रन्थ लिखे हैं। कई प्रकार से राम की कथा लिखी है। कभी कविता में कभी मानस में कभी बरवै में, कभी रामाज्ञा-प्रश्न आदि में। उनका भी यत्र-तत्र मैंने आभास दिया है कि वे रचनाएँ एक ही राम के भक्त ने विभिन्न समयों पर विभिन्न कारणों और दृष्टिकोणों से लिखी हैं। तुलसी एक समर्थ प्रचारक थे। उन्होंने एक धर्मगुरु का काम किया है, इसे मैंने स्पष्ट किया है। तुलसी के लक्ष्य, कार्य, प्रभाव आदि को मैंने विस्तार से लिखा है। कबीर भी विचारक थे। उन्होंने अपने दृष्टिकोण को लेकर लिखवाया था। तुलसी ने अपने विचार को लेकर समाज को अपनी रचनाएँ दी थीं। तत्कालीन धर्म में राजनीति किस प्रकार निहित थी, यह दोनों पुस्तकों को पढ़कर निस्संदेह प्रकट होगा।[1]
द्वितीय संस्करण
भक्तिकालीन सगुण परंपरा के श्रेष्ठ कवि तुलसीदास पर हिन्दी साहित्य में दो उपन्यास लिखे गये। रांगेय राघव द्वारा 'रत्ना की बात' और अमृतलाल नागर द्वारा लिखित 'मानस का हंस'। इन उपन्यासों की जीवनी एक है, लेकिन दो अलग उपन्यासकारों ने अपनी भिन्न-भिन्न कल्पना के अलग दृष्टिकोण से दो भिन्न उपन्यासों की रचना की है। 'रत्ना की बात' शीर्षक तुलसीदास की पत्नी 'रत्नावली' से संबंधित है। यह एक लोक प्रचलित कथा है कि रत्नावली के प्रति आकर्षित के कारण तुलसीदास अनेक कठिनाइयों का सामना करते हुए रत्नावली के मायके पहुँचते है, जहाँ वह कुछ दिनों के लिए रहने गयी थी। इस बात के लिए रत्नावली को बहुत खेद हुआ कि उसका पति उसके क्षणभंगुर शरीर के प्रति इतना आसक्त क्यों है? इसलिए वह तुलसीदास को दुत्कार देती है, जिसके कारण तुलसी वैराग्य ग्रहण कर राम के प्रति समर्पित हो जाते हैं।[2]
रांगेय राघव ने 1950 के पश्चात् कई जीवनी प्रधान उपन्यास लिखे हैं। इनका पहला उपन्यास 1951-1953 के बीच प्रकाशित हुआ था। 'भारती का सपूत' जो भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की जीवनी पर आधारित है, तत्पश्चात् विद्यापति के जीवन पर 'लखिमा के आँखेंं', बिहारी के जीवन पर 'मेरी भव बाधा हरो', तुलसीदास के जीवन पर 'रत्ना की बात', कबीर के जीवन पर 'लोई का ताना' और 'धूनी का धुंआँ' गोरखनाथ के जीवन पर कृति है। 'यशोधरा जीत गई', गौतम बुद्ध पर लिखा गया है। 'देवकी का बेटा' भगवान श्रीकृष्ण के जीवन पर आधारित है।[2]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 रत्ना की बात (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 24 जनवरी, 2013।
- ↑ 2.0 2.1 जीवनीपरक साहित्यकारों में रांगेय राघव (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 24 जनवरी, 2013।
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