भारत के उत्तर प्रदेश प्रदेश में मथुरा, जो भारत की राजधानी दिल्ली और आगरा जाने वाली सड़क पर (आगरा से लगभग 65 कि.मी. पहले) स्थित है। वृन्दावन मथुरा से होकर पहुँचा जा सकता है। मथुरा कृष्ण की जन्म भूमि है। मथुरा नगरी इस महान् विभूति का जन्मस्थान होने के कारण धन्य हो गई। मथुरा ही नहीं, सारा शूरसेन या ब्रज जनपद आनंदकंद कृष्ण की मनोहर लीलाओं की क्रीड़ाभूमि होने के कारण गौरवान्वित हो गया। मथुरा और ब्रज को कालांतर में जो असाधारण महत्त्व प्राप्त हुआ वह इस महापुरुष की जन्मभूमि और क्रीड़ाभूमि होने के कारण ही श्रीकृष्ण भागवत धर्म के महान् स्रोत हुए। इस धर्म ने कोटि-कोटि भारतीय जन का अनुरंजन तो किया ही,साथ ही कितने ही विदेशी इसके द्वारा प्रभावित हुए। प्राचीन और अर्वाचीन साहित्य का एक बड़ा भाग कृष्ण की मनोहर लीलाओं से ओत-प्रोत है। उनके लोकरंजक रूप ने भारतीय जनता के मानस-पटली पर जो छाप लगा दी है, वह अमिट है।
राधा दामोदर मंदिर में गौड़ीय संप्रदाय का ही नहीं अपितु अन्य संप्रदायों के भक्तों और अनुयाईयों का आस्था का केंद्र रहा है। इसी मंदिर को इस्कॉन मन्दिर के संस्थापक प्रभुपाद महाराज ने अपने वृन्दावन प्रवास के दौरान सर्वप्रथम आराधना का केंद्र बनाया था।
वृन्दावन नगर के सेवाकुंज और लोई बाज़ार क्षेत्र में स्थित राधा दामोदर मंदिर की स्थापना रूप गोस्वामी के शिष्य जीव गोस्वामी ने संवत 1599 माघ शुक्ला दशमी तिथि को की थी। इसी मंदिर में छह गोस्वामियों, रूप गोस्वामी, सनातन गोस्वामी, भक्त रघुनाथ, जीव गोस्वामी, गोपाल भट्ट, रघुनाथ दास ने अपनी साधना स्थली बनाया। श्री रूपगोस्वामी जी सेवाकुंज के अन्तर्गत यहीं भजन कुटी में वास करते थे। यहीं पर तत्कालीन गोस्वामीगण एवं भक्तजन सम्मिलित होकर इष्टगोष्ठी करते थे तथा श्री रघुनाथभट्ट जी अपने मधुर कंठ से उस वैष्णव सभा में श्रीमद्भागवत की व्याख्या करते। यहीं पर श्री रूप गोस्वामी ने श्रीभक्तिरसामृतसिन्धु, उज्ज्वलनीलमणि एवं अन्यान्य भक्ति ग्रन्थों का संकलन किया। युवक श्री जीव गोस्वामी श्री रूप गोस्वामी की सब प्रकार से सेवा में नियुक्त थे। श्रील रूप गोस्वामी ने स्वयं अपने हाथों से श्री राधादामोदर विग्रह को प्रकाश कर श्री जीव को सेवापूजा के लिए अर्पण किया था। सेवाप्राकट्य ग्रन्थ के अनुसार 1599 सम्वत में माघ शुक्ल दशमी तिथि में श्रीराधादामोदर की प्रतिष्ठा हुई। मूल श्री राधादामोदर विग्रह जयपुर में विराजमान हैं। उनकी प्रतिभू विग्रह स्वरूप वृन्दावन में विराजमान है। इनके साथ सिंहासन में श्री वृन्दावनचन्द्र, श्री छैलचिकनिया, श्री राधाविनोद और श्री राधामाधव आदि विग्रह विराजमान हैं। मन्दिर के पीछे श्री जीवगोस्वामी तथा श्री कृष्णदास गोस्वामी की समाधियाँ प्रतिष्ठित हैं। मन्दिर के उत्तर भाग में श्रीपाद रूपगोस्वामी की भजन-कुटी और समाधि मन्दिर स्थित हैं। पास ही श्रीभूगर्भ गोस्वामी की समाधि है।
इस मंदिर के संबंध में कहावत है कि गौड़ीय संप्रदाय के संत सनातन गोस्वामी इस मंदिर में निवास के दौरान प्रतिदिन श्री गिरिराज जी की परिक्रमा करने यहाँ से गोवर्धन जाते थे। जब वे काफ़ी वृद्ध हो गए तो एक दिन गिरिराज जी की परिक्रमा करने नहीं जा सके। तब भगवान श्री कृष्ण ने एक बालक के रूप में आकर उन्हें एक डेढ़ हाथ लम्बी वट पत्राकार श्याम रंग की गिरिराज शिला दी। उस पर भगवान के चरण चिह्न एवं गाय के खुर का निशान अंकित था। बालक रूप भगवान ने सनातन गोस्वामी से कहा कि बाबा अब तुम बहुत वृद्ध हो गए हो। तुमको गिरिराजजी की परिक्रमा करने के नियम को पूरा करने में काफ़ी तक़लीफ़ हो रही है। इस शिला की परिक्रमा करके अपने नियम को पूरा कर लिया करो। बालरूप भगवान की आज्ञा मानकर सनातन गोस्वामी ने इसी शिला की परिक्रमा करे अपना नियम प्रतिदिन पूरा करने लगे। सनातन गोस्वामी द्वारा इस शिला की परिक्रमा लगाने के कारण यहाँ आने वाला हर श्रद्धालु शिला की परिक्रमा करके अपने आप को धन्य महसूस करता है।
कार्तिक मास में नियम सेवा के दिनों में हज़ारों नर-नारी श्रीराधा दामोदर तथा गिरिराजजी की शिला की चार परिक्रमा लगाकर के अति आनंद लाभ प्राप्त करते हैं। वर्तमान काल में इस मंदिर में श्रीवृन्दावन चंद्र तथा दो युगल श्री विग्रह भी यहाँ सेवित है। इस्कॉन संस्था की स्थापना से पूर्व जब स्वामी प्रभुपाद महाराज पश्चिमी बंगाल से यहाँ आए तो उन्होंने इसकी मंदिर को अपनी साधना का प्रमुख केंद्र बनाया। यहीं से उन्होंने पूरे विश्व में श्रीकृष्ण भक्ति का संदेश पहुंचाया और इस्कॉन संस्था की स्थापना की।