रेबीज़
रेबीज़
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विवरण | रेबीज़ एक ख़तरनाक रोग है। यह पशुओं से फैलने वाला वायरस जूनोटिक इन्फेक्शन है। इससे इनकैफोलाइटिस जैसा उपद्रव होता है, जो कि निश्चित रूप से चिकित्सा न किये जाने पर घातक होता है। |
अन्य नाम | जलांतक या हाईड्रोफोबिया |
लक्षण | बुख़ार, मतली, सिर दर्द, मांसपेशियों का एक दम से सिकुड़ना (जिस पर मरीज़ का कोई नियंत्रण नहीं रहता), स्नायु और पेशी में पीड़ा, भूख न लगना, बेचैनी, कभी-कभी बेहद उत्तेजित और चिड़-चिड़ा हो जाना, प्रकाश और आवाज़ दोनों ही आकस्मिक दौरे की वजह बन सकते हैं, स्पर्श भी बेहद सीज़र्स (अनैच्छिक छटके) की वजह बन सकता है। |
रेबीज़ के टीके | पहले रेबीज़ के टीके मरीज़ के पेट में लगते थे, जो बेहद तकलीफ देते थे, इन्हें बकरे के दिमाग से तैयार किया जाता था। ये टीके उतने असरदार भी नहीं थे। अब टिश्यु कल्चर वेक्सींस उपलब्ध हैं। यह वेक्सीनें बेशक महंगी हैं, लेकिन एक दम से सुरक्षित, पीड़ारहित एवं कारगर रहती हैं। |
बचाव | रेबिड जानवरों के काटे जाने के बाद कोशिश यह रहनी चाहिए कि विषाणु नर्व टिश्यु तक ना पहुँच पाए, इसके बाद वेक्सीन या कोई और चिकित्सा बेअसर ही सिद्ध होती है। |
संबंधित लेख | ऑटिज़्म, हिस्टीरिया, प्रोजेरिया |
अन्य जानकारी | काटने के दस दिन बाद से तीन साल तक भी यह रोग आदमी को अपनी चपेट में ले सकता है। आम तौर पर यह अवधि एक से तीन माह ही होती है। बच्चों में यह अवधि (इन्क्यूबेशन पीरियड और भी कम रहता है)। रेबीज़ के विषाणु लार के अलावा रेबीज़ ग्रस्त मरीज़ के अन्य स्रावों में भी आ जाते हैं, इसलिए तीमारदार को भी पूरी एहतियात के साथ खुद को बचाए रहना पड़ता है। |
अद्यतन | 18:45, 9 मई 2017 (IST)
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रेबीज़ (अंग्रेज़ी: Rabies) एक ख़तरनाक रोग है। रेबीज़ जिसे जलांतक (जल भीती या हाईड्रोफोबिया) भी कहा जाता है क्योंकि इस रोग में मरीज़ पानी भी नहीं पी पाता है। पानी के देखने से भी उसे आकस्मिक तौर पर दौरा पड़ जाता है। यह पशुओं से फैलने वाला वायरस जूनोटिक इन्फेक्शन है। इससे इनकैफोलाइटिस जैसा उपद्रव होता है, जो कि निश्चित रूप से चिकित्सा न किये जाने पर घातक होता है। इसका प्रमुख कारण किसी पागल कुत्ते का काटना होता है।[1]
फैलाव और संक्रमण
रेबीज़ ग्रस्त जानवरों के काटने या फिर खुले घाव को चाटने से भी यह रोग आदमी को अपनी चपेट में ले लेता है। ऐसे जानवर को इसीलिये रेबिड एनीमल कहा जाता है। यह इन्फेक्शन पशुओं में लड़ने या काटने से फैलता है। जब ऐसे संक्रमित पशु आदमी के संपर्क में आते हैं तो इसे आदमी में भी फैलाते हैं। आदमी से आदमी में यह इन्फेक्शन नहीं फैलता। आम तौर पर स्ट्रीट डॉग्स जैसे कुत्ते, बिल्ली, बन्दर, कभी-कभार रीछ, भेड़िया, अफ्रीका और एशिया में पाए जाने वाली जंगली कुत्तों की एक नस्ल, जो मरे हुए पशुओं पर ही ज़िंदा रहती है (हयेना) को भी यह रोग हो जाता है। तक़रीबन 30 लाख लोग हर साल इन जानवरों के काटे जाने पर रेबीज़ के टीके लगवाते हैं। बुनियादी तौर पर यह पशुओं का ही रोग है। जंगली पशुओं और गली मोहल्ले के कुत्तों में यह अकसर देखा जाता है। इन रेबिड जानवरों की लार में ही इसका वायरस (विषाणु) पाया जाता है। इसीलिए इनके काटने के अलावा वायरस इसके चाटने से भी कटी फटी त्वचा में दाखिल हो सकता है। दाखिल होते ही यह मनुष्य के कनेक्तिव टिश्युज (आबन्धी ऊतकों) में द्विगुणित होने लगता है, मल्टीप्लाई करता है, पेशियों में पहुंचता है। स्नायु में दाखिल होकर यह हमारे दिमाग तक अपनी पहुँच बनाता है और यहाँ पर एक बार फिर अपनी ज़रूरत पूरी करता है, मल्टीप्लाई करता है और एनसेफलाइटिस उत्पन्न करता है जो कि घातक होती है। दिमाग से इसके विषाणु नर्व्ज़ से होते हुए, अन्य अंगों तक पहुंचते हैं। लार ग्रंथियों तक भी आखिरकार आ ही जाते हैं। काटने के दस दिन बाद से तीन साल तक भी यह रोग आदमी को अपनी चपेट में ले सकता है। आम तौर पर यह अवधि एक से तीन माह ही होती है। बच्चों में यह अवधि (इन्क्यूबेशन पीरियड और भी कम रहता है)। रेबीज़ के विषाणु लार के अलावा रेबीज़ ग्रस्त मरीज़ के अन्य स्रावों में भी आ जाते हैं, इसलिए तीमारदार को भी पूरी एहतियात के साथ खुद को बचाए रहना पड़ता है।[2]
लक्षण
रेबीज़ एक ख़तरनाक रोग है। आदमी में इस रोग के कई चरण दिखलाई देते हैं। प्रारंभिक लक्षण हैं - बुख़ार, मतली और सिर दर्द। धीरे-धीरे इन्फेक्शन इन्द्रिय संस्थान में फैलता है और मसल्स की आकस्मिक ट्विचिंग (एक दम से पेशी का सिकुड़ना जिस पर मरीज़ का कोई बस नहीं रहता), नर्व्ज़ (स्नायु) और पेशी में पीड़ा, बेहद हो सकती है। ज्वर, सिरदर्द के अलावा जनरल मेलिस दिखलाई देगी भूख गायब हो जायेगी। मरीज़ एक दम से बेचैनी अनुभव करेगा, बेहद उत्तेजित और चिड़-चिड़ा हो जाएगा। हाइपर एक्टिव होने के अलवा ज़्यादातर मामलों में मरीज़ का व्यवहार अजीबोग़रीब और फ्यूरियस दिखलाई देगा। प्रकाश और आवाज़ दोनों ही आकस्मिक दौरे (रोग के बेहद बढ़ने की वजह बन सकते हैं)। स्पर्श भी बेहद सीज़र्स (अनैच्छिक छटके) की वजह बन सकता है। एक साथ मिलकर भी ये कारक सीज़र्स की वजह बन सकते हैं। पानी पीने से लेरिंक्स (स्वर पेटी, जहां स्वर-तंत्री यानी वोकल कोर्ड्स होती है) की एंठन पैदा होती है और रुद्धता होकर सांस लेने में तकलीफ होने लगती है। इसीलिए मरीज़ पानी से खौफ खाने लगता है। यहाँ तक की पानी की आवाज़ और पानी को देखना भी उसमें खौफ पैदा करता है। मरीज़ हाईड्रोफोबिया से ग्रस्त हो जाता है। रेबीज़ के पीड़ित पशु भी पानी से डरते हैं। एक बार यह लक्षण प्रकट होने पर सामान्यता इसका कोई इलाज नहीं है और रोगी श्वासावरोध (रिस्पायरेटरी अरेस्ट) से मर जाता है। कुछ मरीज़ लकवा ग्रस्त हो जाते हैं, फ़ालिज या पेरेलेसिस की चपेट में आ जाते हैं। बेशक जीवन के आख़िरी क्षण तक यह चेतन्य बने रहते हैं। जो बच जाते हैं, वह कोमा में चले जाते हैं। गहन देखरेख के अभाव में सभी मरीज़ 1-3 सप्ताह में शरीर छोड़ जाते हैं।[2]
बचाव
रेबिड जानवरों के काटे जाने के बाद हर चंद कोशिश यह रहनी चाहिए कि विषाणु नर्व टिश्यु तक ना पहुँच पाए, इसके बाद वेक्सीन या कोई और चिकित्सा बेअसर ही सिद्ध होती है। जख्म को संभालना बेहद ज़रूरी है। काटे जाने के बाद उस स्थान को कम से कम दस मिनट तक साबुन रगड़ रगड़ कर बहते कुनकुने पानी से साफ़ करते रहना चाहिए। उसके बाद खुले पानी से जख्म को फ्लश करते रहिये। अब 1% सोल्यूशन बेन्ज़ल-कोनियमक्लोराइड से जख्म को इर्रिगेट करते रहिये। ऐसा करने से रेबीज़ के वायरस आम तौर पर मर जाते हैं। इसके बाद टेटनस का टीका मरीज़ को लगना ही चाहिए। एंटी-बायोटिक्स भी डॉ की सलाह पर सही दिए जाने चाहिए। घाव के गिर्द के डेड या बेहद विक्षत ऊतकों को काटकर साफ़ कर देना चाहिए। घाव को खभी भी ढकें नहीं, इसकी पट्टी न करें और टाँके किसी भी हाल में नहीं लगाने हैं। नजदीकी दवाखाने में या सरकारी अस्पताल में जायें, जहाँ ए.आर.वी. उपलब्ध होती है। यदि कुत्ता पालतू है तो जाने कि उसे टीका दिलाया गया अथवा नहीं और जाने की उसे घुमाने ले जाया जाता है या नहीं। उस क्षेत्र के अन्य घूमंतु पशुओं की जानकारी प्राप्त करें। इसका निदान लाक्षणिक है। कुत्ते काटने का वृत्तान्त और कुत्ते काटने के निशान देखे जाते हैं। रक्त और लार की परीक्षा करने पर वायरस देखे जाते हैं। किन्तु इसका कोई सारांश नहीं होता। प्रायः मरणोपरान्त मस्तिष्क के नमूने लेने पर इसमें लाक्षणिक नेग्री बॉडिज देखी जाती है, जो कि वायरस के इन्फेक्शन के कारण होती है।[2]
रेबीज़ के टीके
पहले रेबीज़ के टीके मरीज़ के पेट में लगते थे, जो बेहद तकलीफ देते थे, इन्हें बकरे के दिमाग से तैयार किया जाता था। ये टीके उतने असरदार भी नहीं थे। अब टिश्यु कल्चर वेक्सींस उपलब्ध हैं। यह वेक्सीनें बेशक महंगी हैं, लेकिन एक दम से सुरक्षित, पीड़ारहित एवं कारगर रहती हैं। कुत्ता काटने पर प्रत्येक को एंटी रैबीज लगाया जाता है। इससे रोग निवारण और कुत्ता संक्रमित हो तो रोग से रक्षा होती है। रैबिज रोकथाम की मुख्यधारा चिकित्सा है कि कुत्ता काटते ही तुरन्त 6 से 8 घंटे या अधिक से अधिक 24 घंटों में एंटी बायोटिक का टीका या इम्यूनोग्लोबलिन लगवा लेना चाहिए। जो एंटी बॉडीज होती है। यह इन्फेक्शन को रोक सकता है। इस टीका के 3, 5 या 7 इन्जेक्शन दिये जाते हैं। यह रोगी के शरीर पर कुत्ता काटने और कुत्ते में रैबिज होने पर आधारित होता है। यदि कुत्ता काटने के 10 दिन के बाद तक भी स्वस्थ है तो सावधानी के लिए 3 इन्जेक्शन ही पर्याप्त है।[2]
टीका लगवाने का समय
जब कुत्ते में रोग के लक्षण दिखलाई दें (ज़ाहिर है नज़र रखनी पड़ेगी कुत्ते पर, उस रेबिड एनीमल पर जिसने काटा है)। यदि कुत्ता असामान्य व्यवहार करता है जैसे कई अन्य लोगों को काटता है, बिना छेड़छाड़ के काटता है, इधर-उधर भागता है, क्रोधित घूरता है और लगातार लार टपकती है या किसी कोने में निढ़ाल पड़े रहता है, पानी नहीं पीता या आपको काटने के बाद 10 दिन में मर जाता है, तो यह समझना चाहिए कि कुत्ता रैबिड है। ऐसी स्थिति में इन्जेक्शन का पूरा कोर्स लेना चाहिए। निश्चित रूप से रैबिड कुत्ते ने काटा हो तो एंटीबॉडिज की अतिरिक्त चिकित्सा और इम्यूनोग्लोबिन लेना चाहिए। इससे रोग का निवारण होने में सहायता मिलती है। आप उसके बारे में कुछ भी ना जान सकें और वह गायब हो जाए। बिना उकसाए जब वह आपको काट ले। जब वह खुद रेबीज़ से ग्रस्त (पाजिटिव) पाया जाए। उसके मारे जाने के बाद या खुद मरने के बाद परीक्षणों से रेबीज़ की शिनाख्त हो जाए। टीका लगवाने के एक माह बाद तक भी शराब (किसी भी रूप में एल्कोहल) का सेवन ना किया जाए। बिना वजह बेहद मानसिक और शारीरिक श्रम से बचा जाए। देर रात के बाद ना सोया जाए (समय से सोना ज़रूरी है)। स्टीरोइड्स तथा इम्यूनो-सप्रेसर ड्रग्स का इस्तेमाल ना किया जाए। टीकों का कोर्स हर हाल में पूरा किया जाए। बीच में छोड़ना ख़तरनाक हो सकता है। मरीज़ रोग ग्रस्त हो सकता है।[2]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
बाहरी कड़ियाँ
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