लॉर्ड रिपन का पूरा नाम 'जॉर्ज फ़्रेडरिक सैमुअल राबिन्सन' था। यह 1880 ई. में लॉर्ड लिटन प्रथम के बाद भारत के वायसराय बनकर आये थे। अपने से पहले आये सभी वायसरायों की तुलना में यह अधिक उदार थे। लॉर्ड रिपन के समय में भारत एक तरफ धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक जागरण की स्थिति से गुज़र रहा था, वहीं दूसरी ओर लिटन प्रथम के कार्यो से भारतीय जनता कराह रही थी। ग्लैडस्टोन की भाँति रिपन का भी राजनीतिक दृष्टिकोण उदार था, जिसके कारण वह लोकप्रिय शासक सिद्ध हुए।
सुधार कार्य
अपने सुधार कार्यों के अन्तर्गत लॉर्ड रिपन ने सर्वप्रथम समाचार-पत्रों की स्वतन्त्रता को बहाल करते हुए 1882 ई. में 'वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट' को समाप्त कर दिया। इनके सुधार कार्यों में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कार्य था- 'स्थानीय स्वशासन' की शुरुआत। इसके अन्तर्गत ग्रामीण क्षेत्रों में स्थानीय बोर्ड बनाये गये, ज़िले में ज़िला उपविभाग, तहसील बोर्ड बनाने की योजना बनी। नगरों में नगरपालिका का गठन किया गया एवं इन्हें कार्य करने की स्वतन्त्रता एवं आय प्राप्त करने के साधन उपलब्ध कराये गये। इन संस्थाओं में गैर सरकारी लोगों की अधिक भागीदारी निश्चित की गई।
जनगणना कार्यक्रम
प्रथम जनगणना 1872 ई. में मेयो के शासन काल में शुरू हुई, किन्तु रिपन के शासन काल में 1881 ई. में नियमित जनगणना की शुरुआत हुई। तब से लेकर अब तक प्रत्येक दस वर्ष के अन्तराल पर जनगणना की जाती है।
फ़ैस्ट्री अधिनियम
प्रथम फ़ैक्ट्री अधिनियम, 1881 ई. रिपन द्वारा ही लाया गया। अधिनियम के अन्तर्गत यह व्यवस्था की गई कि, जिस कारखाने में सौ से अधिक श्रमिक कार्य करते हैं, वहाँ पर 7 वर्ष से कम आयु के बच्चे काम नहीं कर सकेंगे। 12 वर्ष से कम आयु के बच्चों के लिए काम करने के लिए घण्टे तय कर दिये गये और इस क़ानून के पालन के लिए एक निरीक्षक को नियुक्त कर दिया गया। रिपन ने उन्हीं आर्थिक नीतियों को प्रोत्साहन दिया, जिसे लॉर्ड मेयो अपने शास काल में लाये थे। उन्होंने प्रान्तीय आर्थिक उत्तरदायित्व को बढ़ाया तथा कर के साधनों को शाही मदों, प्रान्तीय मदों एवं बटी हुई मदों में विभाजित किया।
शिक्षा नीति
लॉर्ड रिपन के शैक्षिक सुधारों के अन्तर्गत 'विलियम हण्टर' के नेतृत्व में एक आयोग को गठित किया गया। आयोग ने 1882 ई. में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की। आयोग की रिपोर्ट में कहा गया था कि, भारत में प्राइमरी और माध्यमिक स्कूल शिक्षा की सर्वथा अपेक्षा की गई है, परन्तु विश्वविद्यालय की शिक्षा पर अपेक्षाकृत अधिक ध्यान दिया गया है। रिपोर्ट में व्यवस्था की गई कि प्राइमरी स्तर की शिक्षा का अधिकार लोकल बोर्डों एवं म्यूनिसिपल बोर्डों को दिया जाय तथा शिक्षा संस्थाओं पर से सरकारी नियंत्रण हटा दिया जाय। रिपन की सरकार ने इस रिपोर्ट को उसकी शर्तों के साथ स्वीकार कर क्रियान्वियत करने का प्रयत्न किया।
इल्बर्ट बिल
1881 ई. में ही भारतीय कारख़ानों के श्रमिकों की स्थिति सुधारने के लिए एक क़ानून बना, जिसके द्वारा नाबालिग बालकों की सुरक्षा हेतु अनेक कार्य के घण्टों के निर्धारण एवं ख़तरनाक मशीनों के चारों ओर बचाव हेतु समुचित रक्षा व्यवस्था तथा निरीक्षकों की नियुक्ति का प्रावधान किया गया। किन्तु सुधारों की दृष्टि से उसका सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य 1883 ई. का इल्बर्ट बिल था। जिसके द्वारा न्याय के क्षेत्र में रंगभेद को दूर करने का प्रयास किया गया था। इस बिल के द्वारा भारतीय न्यायधीशों को भी यूरोपीय न्यायाधीशों की भाँति यूरोपियनों के फ़ौजदारी वादों की सुनवाई का अधिकार दिये जाने का सुझाव था। किन्तु इस बिल (प्रस्ताव) का यूरोपियन तथा एंग्लोइण्डियन समुदाय के द्वारा इतना अधिक विरोध किया गया कि बिल की धाराओं में विशेष परिवर्तन करके ही उसे पारित किया गया और रंगभेद बना ही रहा। फिर भी ऐसा प्रस्ताव रखने मात्र से भारतीय जनता में लॉर्ड रिपन की लोकप्रियता काफ़ी बढ़ गई।
श्वेत विद्रोह
इल्बर्ट बिल में फ़ौजदारी दण्ड व्यवस्था में प्रचलित भेदभाव को समाप्त करने का प्रयत्न किया गया था। इल्बर्ट बिल में भारतीय न्यायाधीशों को यूरोपीय मुकदमों को सुनने का अधिकार दिया गया। भारत में रहने वाले अंग्रेज़ों ने इस बिल का विरोध किया। परिणामस्वरूप रिपन को इस विधेयक को वापस लेकर संशोधन करके पुनः प्रस्तुत करना पड़ा। संशोधन के बाद इस अधिनियम में यह व्यवस्था की गई कि, भारतीय न्यायाधीश यूरोपीय न्यायाधीश के सहयोग से मुकदमों का निर्णय करेंगे। इस विधेयक के विरोध में अंग्रेज़ों द्वारा किये गये विद्रोह को ‘श्वेत विद्रोह’ के नाम से जाना जाता है। इस विधेयक पर हुए वाद-विवाद का भारतीय जनमानस पर गहरा प्रभाव पड़ा।
रिपन का कथन
लॉर्ड रिपन ने नमक कर को कम करते हुए 1882 ई. में 'टैरिफ़' में से मूल्य के अनुसार 5 प्रतिशत आयात शुल्क को कम कर दिया। रिपन ने इल्बर्ट बिल पर हुए वाद-विवाद के कारण कार्यकाल पूरा होने से पूर्व ही त्यागपत्र दे दिया। 'फ़्लोरेंस नाइटिंगेल' ने लॉर्ड रिपन को 'भारत के उद्धारक' की संज्ञा दी है। भारतीय लोग रिपन को 'सज्जन रिपन' के रूप में याद करते हैं। रिपन के शासन काल को भारत में स्वर्णयुग का आरम्भ कहा जाता है। रिपन ने अपने बारे में कलकत्ता (आधुनिक कोलकाता) के अपने प्रथम व्यक्तव्य में ही कहा था कि, मेरा मूल्यांकन मेरे कार्यों से करना शब्दों से नहीं।
त्यागपत्र
1884 ई. में त्यागपत्र देकर प्रस्थान करते समय भारतीयों ने लॉर्ड रिपन को सैकड़ों अभिनन्दन पत्र देकर सम्मानित किया और शिमला से बम्बई (वर्तमान मुम्बई) तक की यात्रा के दौरान स्थान-स्थान पर उन्हें भावभीनी विदाई दी गई।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
(पुस्तक 'भारतीय इतिहास कोश') पृष्ठ संख्या-411
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