वाममार्ग
वाममार्ग शाक्तवाद का ही एक रूप माना जाता है। किसी काल में लघु एशिया से लेकर चीन तक, मध्य एशिया और भारत आदि दक्षिणी एशिया में शाक्तमत का एक न एक रूप में प्रचार रहा। कनिष्क के समय में महायान और वज्रयान मत का विकास हुआ था और बौद्ध शाक्तों के द्वारा पंचमकार की उपासना इनकी विशेषता थी। वामाचार अथवा वाममार्ग का प्रचार बंगाल में अधिक व्यापक रहा। दक्षिणामार्गी शाक्त वाममार्ग को हेय मानते हैं। उनके तंत्रों में वामाचार की निन्दा हुई है।
तांत्रिक सम्प्रदाय
वाममार्ग में मद्य, मांस, मत्स्य, मुद्रा, व्यभिचार आदि निषिद्ध बातों का विधान रहता है। तांत्रिक मत की दक्षिण मार्ग शाखा भी है, जिसमें दक्षिणकाली, शिव, विष्णु आदि की उपासना का विशिष्ट विधान है। 'वाम' का अर्थ है कि सुन्दर, सरस और रोचक उपासनामार्ग। शाक्तों के दो मार्ग हैं- दक्षिण (सरल) और वाम (मधुर)। पहला वैदिक तांत्रिक तथा दूसरा अवैदिक तांत्रिक सम्प्रदाय है। भारत ने जैसे अपना वैदिक शाक्तमत औरों को दिया, वैसे ही जान पड़ता है कि उसने वामाचार औरों से ग्रहण भी किया। आगमों में वामाचार और शक्ति की उपासना की अद्भुत विधियों का विस्तार से वर्णन हुआ है।
इतिहास
'चीनाचार' आदि तंत्रों में लिखा है कि वसिष्ठ देव ने चीन में जाकर बुद्ध के उपदेश से तारा का दर्शन किया था। इससे दो बातें स्पष्ट होती हैं। एक तो यह कि चीन के शाक्त तारा के उपासक थे और दूसरे यह कि तारा कि उपासना भारत में चीन से आयी। इसी तरह 'कुलाकिकाम्नायतंत्र' में मगों को ब्राह्मण स्वीकार किया गया है। भविष्यपुराण में भी मगों का भारत में लाया जाना और सूर्योपासना में साम्ब की पुरोहिताई करना वर्णित है। पारसी साहित्य में भी 'पीरे-मगाँ' अर्थात् मगाचार्यों की चर्चा है। मगों की उपासनाविधि में मद्य मांसादि के सेवन की विशेषता थी। प्राचीन हिन्दू और बौद्ध तंत्रों में शिव-शक्ति अथवा बोधिसत्व-शक्ति के साधन प्रसंग में पहले सूर्यमूर्ति की भावना का भी प्रसंग है।
सुधारक दल
वैदिक दक्षिणमार्गी वर्णाश्रम धर्म का पालन करने वाले थे। अवैदिक बौद्ध आदि वामाचारी चक्र के भीतर बैठकर सभी एक जाति के, सभी द्विज या ब्राह्मण हो जाते थे। वामाचार प्रच्छन्न रूप से वैदिक दक्षिणाचार पर जब आक्रमण करने लगा तो दक्षिणाचारी वर्णाश्रम धर्म के नियम टूटने लगे, वैदिक सम्प्रदायों में भी जाति-पाति का सम्प्रदाय, पाशुपतों में लकुलीश सम्प्रदाय, शैवों में कापालिक, वैष्णवों में बैरागी और गुसाँई इसी प्रकार के सुधारक दल पैदा हो गये। वैरागियों और वसवेश्वर पंथियों के सिवा सुधारक दल मद्य-मांसादि सेवन करने लगे। कोई गृहस्थ ऐसा नहीं रह गया, जिसके गृहदेवता या कुल देवताओं में किसी देवी की पूजा न होती हो। वामार्ग बाहर से आया सही, परन्तु शाक्तमत और समान संस्कृति होने के कारण यहाँ खूब घुल-मिलकर फैल गया।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
हिन्दू धर्मकोश |लेखक: डॉ. राजबली पाण्डेय |प्रकाशक: उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान |पृष्ठ संख्या: 584 |
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