बावरीपंथ

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'बावरी' शब्द का सामान्य अर्थ होता है- 'पगली' अथवा 'बावली'। इस पंथ में व्यक्तिगत सदाचार और नैतिकता की ओर अधिक ध्यान दिया गया है। इसी कारण इस पंथ में आचार और आचरण की शुद्धता अपना विशेष महत्त्व रखती है। पंथ के प्रचार और प्रसार में साधकों तथा शिष्यों ने विशेष ध्यान नहीं दिया। इसी कारण इस पंथ का विशेष प्रसार नहीं हो सका।[1]

स्थापना

इस पंथ की संस्थापिका बावरी साहिबा थीं। इनसे पहले इस सम्प्रदाय या पंथ की संघटन रूपरेखा क्या थी, इस विषय में अधिक ज्ञात नहीं है। बावरीपंथ के विषय में लिखने वाले, कवयित्री बावरी साहिबा का निम्नलिखित सवैया उद्धृत करते हैं। इस सवैया से बावरी शब्द का अर्थ कुछ अधिक स्पष्ट हो जाता हैं-

"बावरी रावरी का कहिये, मन ह्वैके पतंग भरै नित भाँवरी। भाँवरी जानहिं संत सुजान, जिन्हें हरि रूप हिये दरसावरी। साँवरी सूरत मोहिनी मूरत, दै करि ज्ञान अनंत लखावरी। खाँव री सौंह तेहारी प्रभू, गति रावरी देखि भई मति बावरी।"

कवयित्रि निवेदन करती है कि "प्रभु! आपकी लीला के सम्बन्ध मैं क्या कहूँ? मेरा मन तो आपके चारों ओर पतंग के सदृश भाँवरें, चक्कर लगाया करता है। इस भाँवर लगाने का रहस्य केवल उसी को उद्भासित है, जिसने आपकी रूप-माधुरी का पान किया है। सौगन्ध खाकर कहती हूँ कि आपकी गतिविधि देखकर मैं तो बावली हो गयी हूँ।" अत: बावली या बावरी शब्द का यहाँ पर अर्थ होता है, ब्रह्म की अद्भुत लीला देखकर चकित रह जाने वाली स्थिति।[1]

साधक

बावरी साहिबा से पहले इस विचारधारा का पोषण करने वाले तीन साधक हुए, परंतु इन साधकों ने न तो संघटन की ओर ध्यान दिया और न ही प्रचार की ओर। बावरी साहिबा का आविर्भाव इन साधकों के अनंतर चतुर्थ स्थान पर आता है। ये साधना के क्षेत्र में बड़ी कुशल थीं। इसीलिए इनके अनंतर होने वाले साधकों ने इस पंथ का नाम बावरीपंथ रखा। पंथ के छठे व्यक्ति यारी साहब ने पंथ को सुव्यवस्थित रूप प्रदान किया और इसके प्रचार के लिए भी प्रशंसनीय प्रयत्न किया।

शिष्य परम्परा

बावरी साहिबा की परम्परा का प्रारम्भ गाज़ीपुर ज़िले के पटना गाँव के निवासी रामानन्द से माना जाता है। रामानन्द के शिष्य दयानन्द हुए और दयानन्द के शिष्य मायानन्द। मायानन्द के अनंतर बावरी साहिबा का स्थान है। बावरी की प्रेरणा और दीक्षा से बीरू साहब ने साधना में ख्याति प्राप्ति की। बीरू साहब के बाद यारी साहब या यार मुहम्मद, केसोदास, बूला साहब (1632 से 1709 ई.), गुलाल साहब (मृत्यु 1759 ई.), भीखा साहब (मृत्यु 1791 ई.), चतुर्भुज साहब (मृत्यु 1818 ई.), नरसिंह साहब (मृत्यु 1892 ई.), जै नारायण साहब (मृत्यु 1924 ई.) आदि प्रसिद्ध विचारक और संत हुए। इन्होंने बावरीपंथ की परम्पराओं को बल दिया।[1]

प्रचार-प्रसार

बावरी पंथ में व्यक्तिगत सदाचार और नैतिकता की ओर अधिक ध्यान दिया गया है। इसी कारण इस पंथ में आचार और आचरण की शुद्धता अपना विशेष महत्त्व रखती है। इस पंथ के प्रचार और प्रसार में साधकों तथा शिष्यों ने विशेष ध्यान नहीं दिया। इसी कारण इस पंथ का विशेष प्रसार नहीं हो सका। परंतु इतना अवश्य है कि इस पंथ ने अच्छे विचारक और कवियों को जन्म दिया, जिनमें यारी साहब, बूला साहब, जगजीवन साहब, गुलाल साहब, पलटू साहब तथा भीखा साहब का नाम विशेष आदर के साथ लिया जाता है। इस पंथ के कवियों पर वेदांत और सूफ़ी दर्शन का काफ़ी प्रभाव पड़ा।

अजपाजाप की क्रिया

बावरी पंथ में अजपाजाप की स्वाभिक क्रिया के बहुत महत्त्व दिया गया है। सद्गुरु की कृपा से अगम्य ज्योति तथा परम तत्त्व की उपलब्धि होती है। स्वानुभूति, सुरति-शब्दयोग या चतुर्थ पद की प्राप्ति सद्गुरु की कृपा और निर्देश के द्वारा हो सकती है। सुरति का सम्बन्ध काल या शब्दतत्त्व के साथ जोड़ रखना नितांत आवश्य है। ब्रह्म का साक्षात्कार नाम-जप से होता है। सुरति-शब्दयोग, इस प्रकार के साक्षात्कार में बड़ा सहायक है। योग का सच्चा ज्ञाता ही इस सुरति-शब्दयोग के रहस्य को समझ सकता है। आत्म-विचार ज्ञानयोग की आधारशिला है। आत्मानुभूति एवं एकतानता आत्म-विचार के बिना सम्भव नहीं है। सत्संग की महिमा अवर्णनीय है। ब्रह्म ही अविनाशी दूल्हा है। वह चेतन एवं निरंतर शून्य है। एक ही तत्त्व की अनेकरूपता सर्वत्र प्रतिभासित है। सोना एक ही होता है, परंतु उससे निर्मित आभूषणों के आकार-प्रकार में विभिन्नता होती है। उसी प्रकार एक ही सर्वात्मा समस्त सृष्टि का मूल स्त्रोत है। बावरी पंथ के उज्ज्वल रत्न पलटू साहब ने ब्रह्म की अद्वैत सत्ता स्पष्ट करते हुए कहा है कि, "जोई जीव सोई ब्रह्म एक है"। संक्षेप में बावरी साहिबा में आध्यात्मिक दीवानापन, यारी साहब में सूफ़ी संस्कार, गुलास एवं भीखा साहब में वेदांती तत्त्व तथा पलटू साहब में ये सभी तत्त्व समंवित होकर अभिव्यक्त हुए हैं।[1]

कवि

बावरी पंथ में प्राय: डेढ़ दर्जन उत्कृष्ट कवि हुए। इनमें विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं-

  1. बीरू साहब
  2. यारी साहब
  3. केशवदास
  4. बूला साहब
  5. गुलाल साहब
  6. भीखा साहब
  7. पलटू साहब

रचनाएँ

यारी साहब की कविताओं का संग्रह 'रत्नावली' और केशवदास का 'अमीघूँट' प्रयाग (इलाहाबाद) से प्रकाशित हो चुका है। बूला साहब का 'शब्दसागर', गुलाल साहबकी बानी भी उक्त प्रेस से प्रकाशित हुई है। गुलाल साहब की दो और पुस्तकों 'ज्ञानगुष्टि' तथा 'राम सहस्त्रनाम' का उल्लेख हुआ है। भीखा की 'राम कुण्डलियाँ', 'राम सहस्त्रनाम', 'रामसबद', 'रामराग', 'रामकवित्त' तथा 'भगतवच्छावली' का प्रकाशन वेलवेडियर प्रेस से 'भीखा साहब की बानी' नाम से हो चुका है। हरलाल साहब के नाम पर चार ग्रंथ 'शब्द', 'चतुरमासा', 'कुण्डलियाँ' तथा 'पदसंग्रह' प्रसिद्ध हैं। पलटू साहब की कविताओं का संग्रह तीन भागों में प्रयाग के वेलवेडियर प्रेस से प्रकाशित हुआ है। इसमें लगभग 1000 पद संग्रहीत हैं। नेवलदास, खेमदास, देवीदास, पहलवानदास, देवकीनन्दन आदि की रचनाएँ अप्रकाशित हैं। इनमें से पलटू साहब सबसे सामर्थ्यवान कवि थे। इनमें प्रचुर काव्य प्रतिभा थी। विचारों की स्पष्टता और भावों की सुष्ठु अभिव्यंजना इनकी विशेषता है।[2]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 1.3 हिन्दी साहित्य कोश, भाग 1 |प्रकाशक: ज्ञानमण्डल लिमिटेड, वाराणसी |संकलन: भारतकोश पुस्तकालय |संपादन: डॉ. धीरेंद्र वर्मा |पृष्ठ संख्या: 430 |
  2. सहायक ग्रंथ- उत्तरी भारत की संत परम्परा: परशुराम चतुर्वेदी

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