वाराणसी का इतिहास

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वाराणसी विषय सूची

वाराणसी विश्व के प्राचीनतम सतत आवासीय शहरों में से एक है। मध्य गंगा घाटी में पहली आर्य बस्ती यहाँ का आरम्भिक इतिहास है। दूसरी सहस्राब्दी तक वाराणसी आर्य धर्म एवं दर्शन का एक प्रमुख स्थल रहा। ऐतिहासिक आलेखों से प्रमाणित होता है कि ईसा पूर्व की छठी शताब्दी में वाराणसी भारतवर्ष का बड़ा ही समृद्धशाली और महत्त्वपूर्ण राज्य था। मध्य युग में यह कन्नौज राज्य का अंग था और बाद में बंगाल के पाल नरेशों का इस पर अधिकार हो गया था। सन् 1194 में शहाबुद्दीन ग़ोरी ने इस नगर को लूटा और क्षति पहुँचायी। मुग़ल काल में इसका नाम बदल कर मुहम्मदाबाद रखा गया। बाद में इसे अवध दरबार के प्रत्यक्ष नियंत्रण में रखा गया। बलवंत सिंह ने बक्सर की लड़ाई में अंग्रेज़ों का साथ दिया और इसके उपलक्ष्य में वाराणसी को अवध दरबार से स्वतंत्र कराया। सन् 1911 में अंग्रेज़ों ने महाराज प्रभुनारायण सिंह को वाराणसी का राजा बना दिया। सन् 1950 में यह राज्य स्वेच्छा से भारतीय गणराज्य में शामिल हो गया। वाराणसी विभिन्न मत-मतान्तरों की संगम स्थली रही है। विद्या के इस पुरातन और शाश्वत नगर ने सदियों से धार्मिक गुरुओं, सुधारकों और प्रचारकों को अपनी ओर आकृष्ट किया है। भगवान बुद्ध और शंकराचार्य के अलावा रामानुज, वल्लभाचार्य, संत कबीर, गुरु नानक, तुलसीदास, चैतन्य महाप्रभु, रैदास आदि अनेक संत इस नगरी में आये।

भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन

भारतीय स्वातंत्रता आंदोलन में भी वाराणसी सदैव अग्रणी रही है। राष्ट्रीय आंदोलन में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के छात्रों का योगदान स्मरणीय है। इस नगरी को क्रांतिकारी सुशील कुमार लाहिड़ी, अमर शहीद चंद्रशेखर आज़ाद तथा जितेद्रनाथ सान्याल सरीखे वीर सपूतों को जन्म देने का गौरव प्राप्त है। महामना पंडित मदनमोहन मालवीय जैसे विलक्षण महापुरुष के अतिरिक्त राजा शिव प्रसाद गुप्त, बाबूराव विष्णु पराड़कर, श्री प्रकाश, डॉ. भगवान दास, लाल बहादुर शास्त्री, डॉ. संपूर्णानंद, कमलेश्वर प्रसाद, मन्मथनाथ गुप्त, मुकुटबिहारी लाल जैसे महापुरुषों का स्वतंत्रता संग्राम में योगदान इतिहास में स्वर्णाक्षरों में अंकित रहेगा।

वैदिक साहित्य में वाराणसी

विश्वनाथ मन्दिर, वाराणसी
Vishwanath Temple, Varanasi

वाराणसी (काशी) की प्राचीनता का इतिहास वैदिक साहित्य में भी उपलब्ध होता है। वैदिक साहित्य के तीनों स्तरों (संहिता, ब्राह्मण एवं उपनिषद) में वाराणसी का विवरण मिलता है।

  • वैदिक साहित्य[1] में कहा है कि आर्यों का एक काफिला विदेध माथव के नेतृत्व में आधुनिक उत्तर प्रदेश के मध्य से सदानीरा अथवा गंडक के किनारे जा पहुँचा और वहाँ कोशल जनपद की नींव पड़ी। जब आर्यों ने उत्तर भारत पर अधिकार कर लिया तो आर्यों की एक जाति कासिस ने वाराणसी के समीप 1400 से 1000 ई. पू. के मध्य अपने को स्थापित किया।[2]
  • वाराणसी का सर्वप्रथम उल्लेख अथर्ववेद की पैप्पलाद शाखा[3] में हुआ है। एक मंत्र में मंत्रकार एक रोगी से कहता है कि उसका ‘तक्मा’ (ज्वर) दूर हो जाए और ज्वर का प्रसार काशी, कोशल और मगध जनपदों में हो। इससे स्पष्ट है कि इस काल में ये तीनों जनपद पार्श्ववर्ती थे।
  • शतपथ ब्राह्मण[4] के एक उद्धरण के अनुसार भरत ने सत्वत लोगों के साथ व्यवहार किया था उसी प्रकार सत्राजित के पुत्र शतानिक ने काशीवासियों के पवित्र यज्ञीय अश्व को पकड़ लिया था। शतानिक ने इसी अश्व द्वारा अपना अश्वमेध यज्ञ पूरा किया। इस घटना के परिणामस्वरूप काशीवासियों ने अग्निकर्म और अग्निहोत्र करना ही छोड़ दिया था।[5]
  • मोतीचंद्र[6] काशीवासियों में वैदिक प्रक्रियायों के प्रति तिरस्कार की भावना है। वे तीसरी सदी ई.पू. के पहले वाराणसी के धार्मिक महत्त्व की बात स्वीकार नहीं करते।

परस्पर संबंधों पर प्रकाश

वैदिक साहित्य में वाराणसी और अन्य जनपदों के परस्पर संबंधों पर भी प्रकाश पड़ता है। कौषीतकी उपनिषद[7] में काश्यों और विदेहों के नाम का एक स्थान पर उल्लेख है। वृहदारण्यक उपनिषद्[8] में अजातशत्रु[9] इसको काशी अथवा विदेह का शासक कहा गया है। इसके अतिरिक्त शांखायन[10] और बौधायन श्रोतसूत्र[11] में भी काशी तथा विदेह का पास-पास उल्लेख हुआ है। स्वतंत्र राज्यसत्ता नष्ट हो जाने के पश्चात् काशी के कोशल राज्य में सम्मिलित हो जाने का भी उल्लेख मिलता है। काशी, कोशल का सर्वप्रथम उल्लेख गोपथ ब्राह्मण[12] में आया है। पतंजलि के महाभाष्य[13] में काशीकोशलीया (काशी कोशल संबंधी) उदाहरण के रूप में उद्धृत है।

वाराणसी के संबंध में उपर्युक्त उल्लेखों से यह सुस्पष्ट है कि वैदिक साहित्य में इसका उल्लेख अपेक्षाकृत बाद में मिलता है। लेकिन हम यह निश्चयपूर्वक कह सकते हैं कि वाराणसी एक प्राचीन नगरी है क्योंकि अथर्ववेद[14] में वरणावती नदी का उद्धरण है और इसी के नाम पर वाराणसी का नामकरण हुआ। वैदिक साहित्य में उल्लेखित वाराणसी का कोशल और विदेह से संबंध तथा कुरु और पांचाल से शत्रुता, संभवत: राजनीतिक और सांस्कृतिक दोनों अंतर्विरोधों का परिणाम था।

महाकाव्यों में वर्णित वाराणसी

महाभारत

महाकाव्यों में वाराणसी के संदर्भ में कई उल्लेख मिलते हैं। महाभारत में वाराणसी का उल्लेख अनेक स्थलों पर हुआ है। महाभारत से इस तथ्य की पुष्टि होती है कि बरना का ही प्राचीन नाम वाराणसी था।[15] आदिपर्व में काशिराज की पुत्री सार्वसेनी का विवाह दुष्यंत के पुत्र भरत के साथ होने का विवरण मिलता है।[16] एक अन्य स्थल पर भीष्म द्वारा काशिराज की तीन पुत्रियों- अंबा, अंबिका और अम्बालिका के स्वयंवर में जीते जाने का उल्लेख है।[17] काशी के शासक प्रतर्दन तथा मिथिला के शासक जनक के मध्य युद्ध की चर्चा भी महाभारत में मिलती है।[18] व्यास की सतसाहस्त्री संहिता में काशी का उल्लेख दो प्रसंगों में हुआ है-

  1. तीर्थ के रूप में।
  2. महाभारत के युद्ध में पांडवों की ओर से लड़ने के प्रसंग में।
वाराणसी में गंगा नदी के घाट

रोचक है कि वाराणसी का तीर्थरूप में वर्णन सबसे पहले महाभारत में ही हुआ है। वनपर्व में पांडवों के अज्ञातवास के अवसर पर उनके काशी आने का उल्लेख मिलता है। इसी पर्व में उल्लेखित है कि उस समय काशी में ‘कपिलाहद’ नामक तीर्थ बड़ा प्रसिद्ध था।[19] यही तीर्थ आजकल कपिलधारा के नाम से विख्यात है और नगर के भीतर न होकर पंचक्रोशी के प्रदक्षिणा मार्ग में अवस्थित है। महाभारत युद्ध में काशिराज का पांडवों की ओर लड़ने का प्रसंग आता है। काशिराज का युद्धक्षेत्र में सुवर्ण्य माल विभूषित घोड़ों पर चढ़ने का[20] तथा पांडव सेना के बीच तीन हज़ार रथों के साथ स्थित रहने का उल्लेख मिलता है।[21] उल्लेखनीय है कि यहाँ काशी के राजा का उल्लेख ‘काशिराज’ अथवा ‘काश्य’ शब्दों से किया गया है। परंतु काशी का कौन-सा राजा महाभारत युद्ध में लड़ने गया था, उसके नाम का उल्लेख नहीं मिलता। महाभारत में एक जगह कृष्ण द्वारा वाराणसी के जलाए जाने का वर्णन है।[22] जिसकी पुष्टि विष्णुपुराण से भी होती है।[23]

वाल्मीकि रामायण

वाल्मीकि रामायण में वाराणसी से संबंधित प्रकरण अपेक्षाकृत कम मिलते हैं। उत्तरकांड में काशिराज पुरुरवा का नाम आया है।[24] इसी कांड में यह भी आया है कि ययाति का पुत्र पुरु प्रतिष्ठान के साथ ही वाराणसी का भी शासक था।[25] रामायण के एक अन्य स्थल पर काशी-कोशल जनपद का एक साथ उल्लेख मिलता है।[26] दशरथ ने अपने अश्वमेध यज्ञ में काशिराज को भी आमंत्रित किया था।[27] अयोध्याकांड के अनुसार कैकेयी के क्रोध को शांत करने के लिए राजा दशरथ ने इस देश (काशी राज्य) से उत्पन्न होने वाली वस्तुओं को भी प्राप्त करने का आदेश दिया था।[28] किष्किंधाकांड के अनुसार सुग्रीव ने इस देश में सीता को खोजने के लिए विनत को भेजा था।[29] वाल्मीकि ने यहाँ की अन्य घटनाओं का भी उल्लेख किया है।[30]

पुराणों में वाराणसी

पुराणों में वाराणसी की धार्मिक समृद्धि की चर्चा है। इस नगर को शिवपुरी के नाम से संबोधित किया गया है[31] तथा इसकी गणना भारत की सात मोक्षदायिनी पुरियों में की गई है[32]

शिवपुराण

शिवपुराण में वाराणसी को भारतवर्ष में स्थित प्रमुख बारह स्थानों में एक बताया गया है। मान्यता थी कि जो व्यक्ति प्रतिदिन प्रात:काल उठकर इन बारह नामों का पाठ करता है, वह सब पापों से मुक्त हो जाता है, और संपूर्ण सिद्धियों को प्राप्त कर लेता है।[33]

साधु, वाराणसी

ब्रह्मपुराण

ब्रह्मपुराण में शिव पार्वती से कहते है ‘हे सुखवल्लभे, वरुणा और असी इन दोनों नदियों के बीच में ही वाराणसी क्षेत्र है और उससे बाहर किसी को नहीं बसना चाहिए।’’[34] लोगों का ऐसा विश्वास था कि शिव के भक्तों के वाराणसी में रहने के कारण लौकिक एवं पारलौकिक आनंद की प्राप्ति होती है।[35] उल्लेखनीय है कि ह्वेन त्सांग ने भी यहाँ निवास करने वाले शैव समर्थकों का उल्लेख किया है, जो लंबे केशों को धारण करते थे तथा शरीर पर भस्म लगाते थे।[36]

पुराणों में अनेक स्थलों पर ऐसा वर्णन मिलता है कि वाराणसी में जो निवास करता है उसके सभी कष्ट दूर हो जाते हैं। पद्मपुराण,[37] कूर्मपुराण[38] तथा लिंग पुराण[39] में इस तथ्य का स्पष्ट उल्लेख है। वाराणसी में गंगा नदी पश्चिमवाहिनी हो जाती है,[40] संभवत: इसीलिए इस नगर की धार्मिक महत्ता बढ़ जाती है। वाराणसी नगर की सीमाओं के विषय में भी पुराणों में महत्त्वपूर्ण सूचनाएँ मिलती हैं।

अग्निपुराण

अग्निपुराण में 'वरणा' और 'असी' नदियों के बीच स्थित वाराणसी का विस्तार पूर्व से पश्चिम दो योजन और दूसरी जगह आधा योजन दिया है।[41]

मत्स्यपुराण

मत्स्यपुराण में इसकी लंबाई-चौड़ाई का स्पष्ट विस्तार[42] में मिलता है, जहाँ इसका विस्तार पूर्व से पश्चिम दो योजन तथा दक्षिण से उत्तर अर्द्धयोजन कहा गया है। यहीं इसका विस्तार वाराणसी नदी से लेकर शुक्ल नदी तक एवं भीष्मचंडी से लेकर पर्वतेश्वर तक विस्तृत था।[43]

  • कृत्यकल्पतरु[44] में वाराणसी को 'वरणा' बताया गया है।
  • पद्मपुराण के एक अन्य स्थल पर वाराणसी के चतुर्दिक सीमाओं का उल्लेख मिलता है।
गंगा नदी, वाराणसी
  • इस नगर की सीमाएँ उत्तर में वरणा नदी, दक्षिण में असी, पूर्व में गंगा तथा पश्चिम में पाशपाणिगणेश निश्चित की गई हैं।[45]

इसके अतिरिक्त पुराणों में उस नगर के शासकों के वंशानुक्रम का भी उल्लेख मिलता है। इस वंश परंपरा में दिवोदास प्रथम, अष्टारथ, हर्यश्व, सुदेव, दिवोदास द्वितीय एवं प्रतर्दन के नाम उल्लेखनीय हैं।[46] लेकिन पुराणों की रचना और संकलन का निश्चित तिथिक्रम नहीं मिलता, जिससे उपयोगी सूचनाएँ भी संदर्भरहित हो जाती हैं। मत्स्यपुराण में अलर्क राजा का उल्लेख मिलता है। इन्हीं के नाम के आधार पर वाराणसी को अलर्कपुरी कहा गया है।[47] वाराणसी का धार्मिक महत्त्व परवर्ती कालों में और बढ़ता गया और यह नगर दान, जप, तप, अध्ययन तथा अध्यापन की धार्मिक दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण समझा जाने लगा।[48] यहाँ पर वैदिक यज्ञों का अनुष्ठान भी होता था। काशी के एक अभिलेख से विदित होता है कि भारशिव नरेशों ने दस अश्वेमेघ यज्ञों का अनुष्ठान इस नगर में किया था।[49]

जैन साहित्य में वाराणसी

जैन साहित्य में भी वाराणसी के संबंध में प्रचुर विवरण मिलते हैं।

पार्श्वनाथ के जन्म के अनुसार

जैन तीर्थंकर पार्श्वनाथ का जन्म (ईसा पूर्व 8वीं शताब्दी) वाराणसी में महावीर से 250 वर्ष पूर्व हुआ था। जैन अनुश्रुति के अनुसार इनके पिता अश्वसेन बनारस के राजा थे।[50] पार्श्वनाथ को जैन साहित्य में पुरिसादानीय[51] और पालि साहित्य में पुरिसाजानीय[52] कहा गया है। संभवत: इन शब्दों का प्रयोग असाधारण व्यक्तित्व के निमित्त किया गया है।

महाकवि अश्वघोष के अनुसार

आरती, गंगा नदी, वाराणसी

महाकवि अश्वघोष ने बुद्धचरित में ‘वाराणसी’ और ‘काशी’ को एक ही नगर माना है।[53] एक स्थान पर उल्लेखित[54] है कि बुद्ध वणारा के पास एक वृक्ष की छाया में पहुँचे। संभवत: अश्वघोष द्वारा वर्णित वणारा आधुनिक बरना नदी हे। इससे यह विदित होता है कि कम से कम पहली शताब्दी में वाराणसी और काशी समानार्थक थे। जैन साहित्य से हमें पता चलता है कि ई. पू. की शताब्दियों में यहाँ यक्ष पूजा बहुत प्रचलित थी और उत्तर भारत के प्रमुख नगरों में यक्षों के चैत्य होते थे। वाराणसी में गंडि-तिदुंग नाम के यक्ष का उल्लेख मिलता है।[55] ये यक्ष लोगों की रक्षा करते थे।[56] उल्लेखनीय है कि सारनाथ के समीप 'अकथा' नामक पुरास्थल से द्वितीय शताब्दी ईसा पूर्व की एक यक्ष प्रस्तर प्रतिमा मिली थी जो अब सारनाथ संग्रहालय में सुरक्षित है।

भगवतीसूत्र में उल्लेख

  • जैन ग्रंथ भगवतीसूत्र[57] में सोलह जनपदों की सूची में वाराणसी का भी नाम मिलता है। उस समय भारत की मुख्य राजधानियों में वाराणसी एक थी।[58] प्राचीन जैन सूत्रों में काशी और कोशल में अट्ठारह गणराज्यों का उल्लेख है। मोतीचंद्र के अनुसार यह अट्ठारह उपराज्य थे, जो काशी-कोशल के राजा प्रसेनजित के अधीन थे। जब तीर्थंकर महावीर की मृत्यु हुई थी, तब काशी और कोशल के 10 संयुक्त राजाओं ने लिच्छवियों और मल्लों के साथ प्रकाश किया था।[59]
विश्वनाथ मन्दिर, वाराणसी

बौद्ध साहित्य में वाराणसी

बौद्ध ग्रंथों में वाराणसी का उल्लेख काशी जनपद की राजधानी के रूप में हुआ है।[60] बुद्ध पूर्व काल में काशी एक समृद्ध एवं स्वतंत्र राज्य था। इसका साक्ष्य देते हुए स्वयं बुद्ध ने इसकी प्रशंसा की है।[61] वाराणसी को वरुणा नदी पर स्थित बतलाया गया है।[62] यह नगर विस्तृत, समृद्ध और जनाकीर्ण था। [63] महापरिनिब्बानसुत्त [64] में तत्कालीन छ: प्रसिद्ध नगरों में वाराणसी का उल्लेख किया गया है। बौद्ध साहित्य से पता चलता है कि बुद्ध इस नगर में कई बार ठहरे थे। ऋषिपतन मृगदाव (आधुनिक सारनाथ) का भी उल्लेख बौद्ध साहित्य में आया है। जातकों में इसे मिगाचीर कहा गया है।[65] जिसे मललसेकर ने इसिपतन मिगदाय का प्राचीन नाम माना है।[66] बोध गया में ज्ञान प्राप्त करने के पश्चात् बुद्ध ने अपना पहला उपदेश इसिपतन मिगदाय (मृगदाव) में ही दिया था। इस स्थान का ऋषिपतन मृगदाव नाम संभवत: ऋषियों के वायु मार्ग से उतरने के कारण पड़ा था और इसीलिए इसे ऋषिपतन भी कहा जाता था।[67] मृगों के स्वच्छंदता से घूमने के कारण इसे मृगदाव कहा जाने लगा।[68]

बुद्ध के काल में वाराणसी उत्तरी भारत में शिक्षा के एक प्रमुख केंद्र के रूप में विख्यात था।[69] बनारस की कुछ शिक्षा संस्थाएँ तक्षशिक्षा से भी पुरानी थीं।[70] तक्षशिक्ष के शंख नामक एक ब्राह्मण ने अपने पुत्र सुसीम को शिक्षा के लिए बनारस भेजा था।[71] यह उत्तर भारत के उन छ: महानगरों में एक था जिन्हें आनंद ने भगवान् बुद्ध की अंतिम यात्रा के योग्य चुना था।[72]

जातकों में वर्णित वाराणसी

जातकों में वाराणसी नगर के संदर्भ में विशद विवरण मिलता है। इस नगर को सुदर्शन,[73] सुरुद्धन,[74] ब्रह्मवर्द्धन,[75] रम्मनगर (रम्यनगर),[76] तथा मोलिनी[77] जैसे अन्य उपनामों से समीकृत किया गया है। वाराणसी के विभिन्न नामों के संबंध में यह कहना कठिन है कि ये इस नगर के अलग-अलग उपनगरों के नाम थे, अथवा पूरे वाराणसी नगर के भिन्न-भिन्न नाम थे। संभव है कि लोग नगरों की सुंदरता तथा आर्थिक समृद्धि से आकर्षिक होकर उसे भिन्न-भिन्न नामों से पुकारते रहे होंगे। बुद्ध पूर्व महाजनपद युग में वाराणसी काशी की राजधानी थी। काशी जनपद के विस्तार के संदर्भ में जातकों में अनेक स्थलों पर अतिशयोक्तिपूर्ण विवरण मिलते हैं। तंडुनालि जातक के अनुसार वाराणसी का परकोटा 12 योजन लंबा था[78] और उसका आंतरिक और बाह्म विस्तार तीन सौ योजन था। [79] काशी जनपद के उत्तर में कोशल, पूर्व में मगध और पश्चिम में वत्स जनपद था।[80] जातकों के आधार पर अल्तेकर ने काशी जनपद का विस्तार बलिया से कानपुर तक माना है।[81] पर ऐसी संभावना है कि आधुनिक गोरखपुर कमिश्नरी तक ही प्राचीन काशी जनपद सीमित रहा होगा। संभवत: आधुनिक गोरखपुर कमिश्नरी तक ही प्राचीन काशी जनपद सीमित रहा होगा। संभवत: आधुनिक गोरखपुर कमिश्नरी तक ही प्राचीन काशी जनपद सीमित रहा होगा। संभवत: आधुनिक गोरखपुर कमिश्नरी का भी कुछ भाग काशी जनपद में सम्मिलित था। नगर के चतुर्दिक प्राकार[82] एवं परिखा[83] के विवरण भी जातकों में मिलते हैं, जिससे इसके समृद्ध होने तथा सुरक्षा की उत्तम व्यवस्था का ज्ञान होता है।

चीनी यात्रियों का इतिवृत

ह्वेन त्सांग
Xuanzang

चीनी यात्री फ़ाह्यान ने एक जनपद के रूप में काशी का उल्लेख किया है, जबकि ह्वेन त्सांग ने वाराणसी का उल्लेख किया है। फ़ाह्यान ने इस नगर के संदर्भ में संक्षिप्त विवरण दिया हे। वह स्वयं पाटलिपुत्र में 22 योजन पश्चिम चलकर वाराणसी नगर में पहुँचा था। उसने नगर के उत्तर-पूर्व 10 लीटर् में ऋषियों के ‘मृग-उद्यान’ (सारनाथ) के पास विहारों को देखा था।[84] सातवीं शताब्दी के आरंभ में बनारस की धार्मिक और सामाजिक स्थिति पर चीनी यात्री ह्वेन त्सांग के वर्णन से पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। कुशीनगर से 500 ली (100 मील) दक्षिण-पश्चिम चलकर यह चीनी यात्री वाराणसी जनपद पहुँचा था।[85] इसके अनुसार बनारस 4000 ली (667 मील) की परिधि में विस्तृत था। नगर (राजधानी) के पश्चिमी किनारे पर गंगा नदी बहती थी। नगर 18 या 19 ली लंबा और 5 या 6 ली चौड़ा था। [86] यहाँ की आबादी घनी थी। लोग हुत धनवान थे और उनके घरों में बहुमूल्य वस्तुओं का संग्रह था। यहाँ की जलवायु सूखकर थी और फ़सलें अच्छी होती थी। यहाँ 30 संघाराम थे, जिनमें सम्मितिय निकाय के 3000 भिक्षु निवास करते थे। नगर में 100 से अधिक देवमंदिर थे जिनमें इनके धर्मी के अनुयायियों की संख्या 1000 से ऊपर थी। इनमें शैवों की संख्या अधिक थी। मुख्य राजधानी में 20 देव-मंदिर थे। इन मंदिरों में महेश्वरदेव की काँसे की बनी सौ फुट ऊँची एवं मूर्ति स्थापित थी, जो अपनी सजीवता और प्रभावपूर्ण कांति से सजीव-सी प्रतीत होती थी।[87]

राजधानी के पूर्वोतर बरना नदी के पश्चिमी तट पर अशोक निर्मित 100 फुट ऊँचा स्तूप था। उसके सामने एक पालिसदार स्तंभ था।[88] बरना नदी के 10 ली उत्तरपूर्व संघाराम थे।[89] इसमें आठ भाग थे, जो एक ऊँची चहारदीवारी से आवृत् थे।[90] इस विहार में सम्मितिय निकाय के 1500 भिक्षु रहते थे। इस चहारदीवारी के अंदर 200 फुट ऊँचा एक विहार था। जिसकी छत स्वर्ग मंडित आम्र फलों से ढकी थी। मंदिर की नींव और सीढ़ियाँ पत्थर की बनी थीं। ईंटों के बने गवाक्षों (आलों) में बुद्ध की सुवर्णमंडित प्रतिमाएँ स्थापित थीं। विहार के मध्य में काँसे की धर्मचक्र प्रवर्तन मुद्रा में बुद्ध की एक प्रतिमा थी।[91]

विहार के दक्षिण-पश्चिम भाग में अशोक निर्मित एक पत्थर का स्तूप था। इस स्तूप के उपर का लगभग सौ फुट ऊँचा भाग, उस समय भी शेष था। इसके सम्मुख ठीक उस जगह, जहाँ बुद्ध ने धर्मचक्र प्रवर्तन किया था, 70 फुट ऊँचा एक प्रस्तर स्तंभ था।[92]

इस प्रस्तर स्तंभ के समीप ही एक स्तूप था। जो अज्ञात कौडिंय और उनके चार शिष्यों के तपस्या के उपलक्ष्य में बना था। यह स्तूप उसी जगह निर्मित था, जहाँ 500 प्रत्येक बुद्ध एक ही समय में निर्वाण को प्राप्त हुए थे। इसके अतिरिक्त तीन विगत बुद्धों के बैठने और घूमने के स्थानों पर भी तीन स्तूप बने थे। ह्वेन त्सांग ने तीन तालाबों का भी उल्लेख किया है। इसमें एक तो विहार के पश्चिम में, दूसरा उसके पश्चिम में और तीसरा दूसरे के उत्तर में था।[93] मृगदाव स्थित बौद्ध विहार के दक्षिण-पश्चिम दो या तीन ली पर एक स्तूप था जो 300 फुट ऊँचा था इस स्तूप के पास ही एक दूसरा स्तूप था जो उस घटना की याद दिलाता था, जब अज्ञात कौडिन्य ने बुद्ध का अनादर करने का अपना पूर्व निश्चय त्याग दिया था।[94] ह्वेन त्सांग ने यह भी लिखा है कि बनारस में देवमंदिर बड़ी संख्या में थे जिनमें शैवों की संख्या अधिक थी।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. शतपथ ब्राह्मण, 1/4/1/10-17: मोतीचंद्र, काशी का इतिहास, पृष्ठ 19
  2. ई.बी.हैवेल, बनारस, दि सेक्रेड सिटी, (कलकत्ता पुनर्मुदित, 1968 ई.),पृष्ठ 2
  3. शतपथ ब्राह्मण, 5/12/14
  4. शतानीक: समत्तासु, मेध्यं सात्राजितो हयम्। आयत यज्ञं काशीनां, भरत: सत्वतामिव॥ - शतपथ ब्राह्मण, 13/5/4/21
  5. सात्राजित ईजे काश्यस्याश्वमादाय ततो हैतदर्वाक् काशयोऽग्नीन्नादधात्। आत्सोमपोथा: स्म इति वदंत:। देखें, शतपथ ब्राह्मण, 13/5/4/19
  6. काशी का इतिहास, पृष्ठ 20
  7. कौषीतकी उपनिषद, 4/1
  8. वृहदारण्यक उपनिषद, 3/8/2: मोतीचंद्र, काशी का इतिहास, पृष्ठ 21
  9. उल्लेखनीय है कि यह अजातशत्रु सुप्रसिद्ध ऐतिहासिक मगध नरेश नहीं था।
  10. शांखायन श्रोतसूत्र 16/9/5
  11. बौधायन श्रोतसूत्र 21/13
  12. गोपथ ब्राह्मण (पूर्व भाग), 1, 29
  13. अष्टाध्यायी, 4/8/45: कीलहार्न, 2/280
  14. अथर्ववेद, 4/7/71
  15. महाभारत, 6/10/30
  16. तत्रेव, आदिपर्व, अध्याय 95
  17. तत्रेव, उद्योगपर्व, 72/74
  18. तत्रैव, 12/99/1-2
  19. अविमुक्तं समासाद्य, तीर्थसेवी कुरुदह। दर्शानात् देवदेवस्यमुच्यते अह्महत्यया।
    ततो वाराणसी गत्वा देवकर्यय वृषध्वजम्। कपिला-हृदमुपस्पृश्य, राजसूय फलं लाभेत्॥
  20. महाभारत, द्रोणपर्व, 22/38
  21. तत्रैव, भीष्मपर्व, अध्याय 50
  22. तत्रैव, उद्योगपर्व, 47/40
  23. विष्णुपुराण, 5/34: देखें, मोतीचंद्र, काशी का इतिहास, पृष्ठ 25
  24. वाल्मीकि रामायण, उत्तरकांड 56/25
  25. तत्रैव, 59/19
  26. महीकाल मही चापि शैल कानन शोभिताम्। ब्रह्ममालांविदेहाश्च मालवान काशि कोशलान्॥ बाल्मीकिरामायण, किष्किंधाकांड, 20,22
  27. तत्रैव, बालकांड, 2/13/23
  28. तत्रैव, 2/10/37-38
  29. तत्रैव, किष्किंधाकांड, 40/22
  30. वद् भवान च काशेय। पुरी वाराणसी व्रज रमणीया त्वया गुप्त, सुप्रकारां सुतोरणाम्॥
    राधवेण कृतानुज्ञ: काशेयो हयकुतोभय:। वाराणसी यर्या तूर्ण राधवेण विसर्जित:॥ वाल्मीकि रामायण, 7/38/17, 29
  31. ‘‘यत्र नारायणो देवो महादेवी दिवीश्वर:।’’ वायु पुराण, अध्याय 34, पंक्ति 100
  32. ‘‘अयोध्या मथुरा माया काशी कांची अवंतिका। पुरी द्वारावती चैव सपैते मोक्षदायिका:।’’ पद्मपुराण, अध्याय 33, पंक्ति 102
  33. ‘‘सौराष्ट्रे सोमनाथ च श्रीशैले मल्लिकार्जुनम्।
    उज्जयिन्याँ महाकालमोकारे परमेश्वरम्॥
    केदार हिमवत्पृष्ठे डाकिन्या भीमशंकरम्।
    वाराणस्या च विश्वेशं त्रम्व्यकं गौतमीतटे॥
    वैद्यनाथ चिताभूमौ नागेशं दारुकावने।
    सेतुबंधे च रामेशं घुश्मेशं तु शिवालये॥
    द्वादशैतानि नामानि प्रातरुत्थान य: पठेत्।
    सर्वपापैविनिर्युक्त: सर्वसिद्धिफलं लभेत्। शिवपुराण, कोटि रुद्रसंहिता, संख्या 1/21-24
  34. मोतीचंद्र, काशी का इतिहास, पृष्ठ 5
  35. ‘‘मद्भक्तास्तत्र गच्छन्ति मामेब प्रविशन्ति च’’ पद्मपुराण, अध्याय 33, पंक्ति 102
  36. वाटर्स, भाग 2, पृष्ठ 47
  37. यदि पापी यदि शठो यदि वाधार्मिणो नर:। वाराणसीं समासाद्य पुनाति सकलं भुवम्॥ - अध्याय 33, पृष्ठ 38
  38. कूर्मपुराण, अध्याय 31, पृष्ठ 321
  39. कुत्वा पापसहस्त्राणि पिशाचत्वं वरं नृणाम्। जैगीषव्य: परां सिद्धिं गतो यत्र महातपा:॥ लिंगपुराण, अध्याय 92, पृष्ठ 53
  40. ‘‘वाराणस्यां विशेषेण गंगाविपथगामिनी’’ पद्मपुराण, अध्याय 33, पंक्ति 69
  41. द्वियोजन तु पर्व स्याद्योजनार्द्ध तदन्यथा। वरुणा च नदी चासी मध्ये वाराणसी तयो॥ अग्निपुराण, अध्याय 11, पृष्ठ 6
  42. मत्स्यपुराणद्वियोजनम् तु तत्क्षेत्रं पूर्वपश्चिमत: स्मृतम:।
    अर्द्धयोजन विस्तीर्ण तत्क्षेत्रं दक्षिणोत्तरम्॥
    वाराणसी तदीया च यावतछुल्कनदीतु वै॥
    भीष्मचण्डीकमारभ्य पर्वतेश्वर मत्रिके॥ मत्स्यपुराण, 183/61-62
  43. संभवत: वाराणसी नदी आधुनिक वरणा है। शुक्ल नदी गंगा है और भीष्मचंडी आधुनिक भीमचंडी है जो पंचक्रोशी के रास्ते पर पड़ता है। पर्वतेश्वर की निश्चित जानकारी नहीं हो पाई है लेकिन यह संभवत: राजघाट के आसपास कहीं रहा होगा।
  44. कृत्यकल्पतरु, पृष्ठ 39
  45. दक्षिणोत्त रर्योन धौ वरणासिश्च पूर्वत:। जाह्नवी पश्चिमे चापि पाशपाणिर्गणेश्वर:॥ पद्मपुराण उद्धृत, त्रिस्थली सेतु, पृष्ठ 100
  46. एफ. ई. पार्जिटर, ऐंश्येंट इंडियन हिस्टारिकल ट्रेडिशन, पृष्ठ 155
  47. मत्स्यपुराण 180/68
  48. दप्तं जप्तं हुतं चेष्टं तपस्तप्तं कृतं च यत्। ध्यानमध्ययनं ज्ञासं सर्वत्राक्षयं भवेत्॥ पद्मपुराण, अध्याय 26, पृष्ठ 16
  49. ‘दशाश्वमेघावभृथस्नातकानां भी गीरथ्याममलजभूर्द्धाभिषिक्तानां भारशिवानाम्। (संभवत: दश अश्वमेध यज्ञ होने के कारण यहाँ के एक घाट दशाश्वमेध का नाम पड़ा।) एपिग्राफिया इंडिका 8, 269
  50. कल्पसूत्र, 6/149-169: मोतीचंद्र, काशी का इतिहास, पृष्ठ 38
  51. कल्पसूत्र, 6/149
  52. अंगुत्तरनिकाय, जिल्द 1, पृष्ठ 290
  53. वाराणसी प्रविश्याथ भासा संभासयन्जिन:। चकार काशिदेशीयान् कौतुकाक्रांतचेतस:। बुद्धचरित, 15/101
  54. हरमन जैकोबी, सेक्रेड बुक ऑफ़ दि ईस्ट, जिल्द 49, भाग 1, पृष्ठ 169
  55. उत्तराध्ययन, 16/16
  56. जगदीशचंद्र जैन, लाइफ इन ऐंश्येंट इंडिया, पृष्ठ 220-221
  57. भगवती सूत्र, पृष्ठ 15
  58. स्थानांगसूत्र 10, 717 निशीरथ सूत्र 9, 19
  59. हरमन जैकोबी, सेक्रेड बुक ऑफ़ दि ईस्ट, जिल्द 22, पृष्ठ 266 और 271
  60. सुमंगलविलासिनी, जिल्द 2, पृष्ठ 383
  61. ‘‘भूतपुब्बं भिक्खवे ब्रह्मदत्ते नाम काशिराजा अहोसि अड्ढो महद्धनो महब्बलो, महाबाहनो, महाविजितो, परिपुण्णकोसकोट्ठामारो।’’
    महाबग्गो (विनयपिटक), दुतियो भागो, पृष्ठ 262
  62. महावस्तु, भाग 3, पृष्ठ 402
  63. दिव्यावदान, पृष्ठ 73 : देखें, विमलचरण लाहा, प्राचीन भारत का ऐतिहासिक भूगोल
  64. दीघनिकाय, भाग। (सलक्खंधसुत्त), पृष्ठ 84 (हिन्दी
  65. जातक, जिल्द पाँचवीं पृष्ठ 64, 476, 536
  66. मललसेकर, डिक्शनरी ऑफ़ पालि प्रापर नेम्स, भाग दो, पृष्ठ 626
  67. पपंचसूदनी, जिल्द दूसरी, पृष्ठ 188
  68. तत्रैव, पृष्ठ 65: देखें, ललितविस्तर, पृष्ठ 19
  69. ए.एस. अल्तेकर, एजूकेशन इन ऐंश्येंट इंडिया, (1934), पृष्ठ 257
  70. खुद्दकपाठ, अट्ठकथा, पृष्ठ 198
  71. धम्मपद अट्ठकथा, 3/445
  72. दीघनिकाय, भाग दो, पृष्ठ 146
  73. जातक, (भदंत आनंद कौसल्यायन संस्करण), जिल्द पाँचवीं, पृष्ठ 177 (सुतसोम जातक
  74. 111- तत्रैव, जिल्द चौथी, पृष्ठ 104 (उदय जातक
  75. 112- तत्रैव, जिल्द चौथी, पृष्ठ 119 (सोणदंड जातक
  76. तत्रैव, जिल्द चौथी, पृष्ठ 119 (युवंजय जातक
  77. तत्रैव, जिल्द चौथी, पृष्ठ 15 (शंख जातक
  78. द्वादशयोजनिकं सकल वाराणसी नगरं। तत्रैव, खंड 5, पृष्ठ 209
  79. जातक, भाग 1, (तंडुनालि जातक), पृष्ठ 208 (यह विवरण अतिशयोक्तिपूर्ण लगता है। जातक, खंड 3, पृष्ठ 454 (भदंत आनंद कौसल्यायन संस्करण
  80. कैम्ब्रिज हिस्ट्री ऑफ़ इंडिया, भाग 1, पृष्ठ 14
  81. ए. एव. अल्तेकर, हिस्ट्री ऑफ़ बनारस (बनारस, 19337), पृष्ठ 12
  82. जातक, भाग 1, संख्या 5, पृष्ठ 162
  83. जातक, भाग 4, संख्या 458, पृष्ठ 308: उल्लेखनीय है कि राजघाट के उत्खनन से प्राचीरों, प्राकारों, एवं परिखाओं के अवशेषों का पता चला है, जो साहित्य की सूचना के स्पष्ट प्रमाण हैं।
  84. जेम्स लेग्गे, दि ट्रेवेल्स ऑफ़ फ़ाह्यान् (ओरियंटल पब्लिशर्स, नई दिल्ली, द्वितीय संस्करण, 1972 ई.) पृष्ठ 94-96
  85. थामस वार्ट्स, आन युवॉन च्वांग्स ट्रेवेल्स इन इंडिया, (लंदन, रायल एशियाटिक सोसायटी, 1905 ई.), भाग 2, पृष्ठ 46
  86. ए. कनिंघम, दि ऐंश्येंट् ज्योग्राफी ऑफ़ इंडिया (इंडोलाजिकल बुक हाउस, वाराणसी, 1963), पृष्ठ 367
  87. यात्रा विवरण के मूल को इकट्ठा करने वाले फाङ्चि का कहना है कि इस देव मंदिर में 100 फीट ऊंचे शिवलिंग की पूजा की जाती थी।
  88. उल्लेखनीय है इस स्तंभ पर संघ में भेद पैदा करने वालों के विरुद्ध राजाज्ञा का उल्लेख था।
  89. यह प्राचीन काल में ‘मृगदाव-विहार’ के नाम से जाता था। उत्खननों से आधुनिक सारनाथ से इसकी समता में अब कोई संदेह नहीं रह जाता।
  90. संभवत: यह आवृत्ति-स्थल अष्टकोणीय था। जैसा कि धमेक स्तूप था। देखें- आर्कियोलाजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया, भाग 1, पृष्ठ 111
  91. थामस वाटर्स, आन, युवान-च्वांग्स ट्रेवेल्स इन इंडिया, भाग दो, पृष्ठ 48 उल्लेखनीय है उत्खनन से भी विहार एवं धर्मचक्र प्रवर्तन मुद्रा में मूर्ति मिली है। देखें, आर्कियोलाजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया, भाग 1, पृष्ठ 107 और आगे।
  92. सेमुअल बील, चाइनीज एकाउंट्स ऑफ़ इंडिया, भाग 3, पृष्ठ 297 थामस वाटर्स, आन् युवॉन्-च्वांग्स ट्रैवेल्स इन इंडिया, भाग 2, पृष्ठ 50
  93. थामस वाटर्स, आन् युवॉन्-च्वांग्स ट्रैवेल्स इन इंडिया, भाग 2, पृष्ठ 53
  94. सेमुअल बील, चाइनीज एकाउंट्स ऑफ़ इंडिया, भाग 2 पृष्ठ 297

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