वन पर्व महाभारत

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महाभारत के पर्व

वन पर्व में पाण्डवों का वनवास, भीमसेन द्वारा किर्मीर का वध, वन में श्रीकृष्ण का पाण्डवों से मिलना, शाल्यवधोपाख्यान, पाण्डवों का द्वैतवन में जाना, द्रौपदी और भीम द्वारा युधिष्ठिर को उत्साहित करना, इन्द्रकीलपर्वत पर अर्जुन की तपस्या, अर्जुन का किरातवेशधारी शंकर से युद्ध, पाशुपतास्त्र की प्राप्ति, अर्जुन का इन्द्रलोक में जाना, नल-दमयन्ती-आख्यान, नाना तीर्थों की महिमा और युधिष्ठिर की तीर्थयात्रा, सौगन्धिक कमल-आहरण, जटासुर-वध, यक्षों से युद्ध, पाण्डवों की अर्जुन विषयक चिन्ता, निवातकवचों के साथ अर्जुन का युद्ध और निवातकवचसंहार, अजगररूपधारी नहुष द्वारा भीम को पकड़ना, युधिष्टिर से वार्तालाप के कारण नहुष की सर्पयोनि से मुक्ति, पाण्डवों का काम्यकवन में निवास और मार्कण्डेय ऋषि से संवाद, द्रौपदी का सत्यभामा से संवाद, घोषयात्रा के बहाने दुर्योधन आदि का द्वैतवन में जाना, गन्धर्वों द्वारा कौरवों से युद्ध करके उन्हें पराजित कर बन्दी बनाना, पाण्डवों द्वारा गन्धर्वों को हटाकर दुर्योधनादि को छुड़ाना, दुर्योधन की ग्लानी, जयद्रथ द्वारा द्रौपदी का हरण, भीम द्वारा जयद्रथ को बन्दी बनाना और युधिष्ठिर द्वारा छुड़ा देना, रामोपाख्यान, पतिव्रता की महिमा, सावित्री सत्यवान की कथा, दुर्वासा की कुन्ती द्वारा सेवा और उनसे वर प्राप्ति, इन्द्र द्वारा कर्ण से कवच-कुण्डल लेना, यक्ष-युधिष्ठिर-संवाद और अन्त में अज्ञातवास के लिए परामर्श का वर्णन है।

पांडवों का वनवास

जुए की शर्त के अनुसार युधिष्ठिर को अपने भाइयों के साथ बारह वर्ष का वनवास तथा एक वर्ष का अज्ञातवास बिताना था। युधिष्ठिर ने माता कुंती को विदुर के घर पहुँचा दिया तथा सुभद्रा अपने पुत्र अभिमन्यु और द्रौपदी के पाँचों पुत्रों को लेकर अपने मायके चली गई। पांडव द्रौपदी तथा अपने पुरोहित धौम्य के साथ वन को चल दिए। अनेक ब्राह्मण उनके साथ चल दिए। ब्राह्मणों को साथ देखकर पुरोहित धौम्य की सलाह पर युधिष्ठिर ने सूर्य की उपासना की और सूर्यदेव ने उन्हें एक अक्षयपात्र दिया जिसका भोजन कभी समाप्त नहीं होगा। उस अक्षयपात्र द्रौपदी ब्राह्मणों को तथा पांडवों को भोजन खिलाती तथा अंत में खुद खाती।

इस बीच विदुर द्वारा पांडवों की प्रशंसा करने पर धृतराष्ट्र ने विदुर को निकाल दिया, पर कुछ ही दिनों में विदुर की याद आने पर कुछ ही दिनों में विदुर को बुला लिया। पांडव वन में अपना जीवन बिताने लगे। वन में ही व्यासजी पांडवों से मिले तथा सलाह दी कि वन रहकर दिव्यास्त्रों की शिक्षा प्राप्त करो। उन्होंने अर्जुन को सलाह दी कि कैलाश पर्वत पर जाकर भगवान पशुपति से दिव्यास्त्र तथा इंद्र से अमोघ अस्त्र भी प्राप्त करें।

अर्जुन की तपस्या तथा दिव्यास्त्र की प्राप्ति

व्यास की सलाह पर अर्जुन कैलाश जा पहुँचे। रास्ते में उन्होंने देखा कि एक जटाधारी वृद्ध तपस्वी बैठा है। तपस्वी ने अर्जुन से कहा कि यह तपोभूमि है, यहाँ कोई अस्त्र लेकर नहीं चलता। अर्जुन ने विनम्र भाव से कहा में क्षत्रिय हूँ। तपस्वी के रूप में वे इंद्र थे। उन्होंने अर्जुन से वर माँगने को कहा। अर्जुन ने इंद्र से दिव्यास्त्र माँगा। इंद्र ने बताया कि पहले तुम भगवान शंकर से पाशुपत अस्त्र प्राप्त करों, फिर अन्य देवता भी तुम्हें दिव्यास्त्र देंगे। अर्जुन ने तपस्या शुरू की तथा पाँच महीने बीत गये। एक दिन एक जंगली सुअर वन से आ निकला। अर्जुन ने जैसे ही उस पर बाण चलाने की सोची तो देखा कि एक शिकारी भी उस सूअर पर बाण चलाने को तैयार है। दोनों के बाण एक साथ सूअर को लगे। अर्जुन ने व्याध से कहा कि जब मैंने उस पर बाण चला दिया था, तो तुमने उस पर बाण क्यों चलाया। व्याध हँस पड़ा और बोला कि उसे तो मैंने पहले ही निशाना बना लिया था। अर्जुन को व्याध पर क्रोध आ गया तथा उसने व्याध पर तीर चला दिया। पर व्याध पर बाणों का कुछ असर न हुआ। अर्जुन ने धनुष फेंककर तलवार से आक्रमण किया, पर व्याध के शरीर से टकराकर तलवार भी टूट गई। अर्जुन व्याध से मल्ल युद्ध करने लगे, पर थक जाने पर अचेत होकर गिर पड़े। अर्जुन ने सोचा कि पहले इष्टदेव की पूजाकर लूँ फिर व्याध से लडूँगा। व्याध ने भी अर्जुन से कहा-ठीक है, पूजा करके शक्ति बढ़ा लो। अर्जुन ने पूजा करके जैसे ही शिव की मूर्ति पर माला चढ़ाई तो देखा कि वह माला व्याध के गले में पड़ी है। अर्जुन को समझने में देर नहीं लगी कि व्याध के रूप में भगवान शंकर ही खड़े हैं। शंकर ने प्रसन्न होकर अर्जुन को पाशुपत अस्त्र दे दिया और बताया कि मनुष्यों पर इसका प्रयोग वर्जित है।

अर्जुन की इंद्रलोक-यात्रा

रास्ते में अर्जुन को इंद्र के सारथी मालति रथ लेकर प्रतीक्षा करते दिखाई दिए। मालति ने अर्जुन को बताया कि इंद्र ने तुम्हें बुलाया है। वहाँ चलिए और असुरों का संहार कीजिए। इंद्रलोक में सभी देवताओं ने अर्जुन का स्वागत किया तथा अपने दिव्य अस्त्रों की शिक्षा दी। अर्जुन ने असुरों का संहार किया। एक रात अर्जुन अपने भाइयों और द्रौपदी के बारे में सोच रहे थे कि स्वर्ग की अप्सरा उर्वशी उनके पास आकर बैठ गई। अर्जुन ने उर्वशी को माता कहकर संबोधित किया क्योंकि वे उनके गुरु इंद्र की अप्सरा हैं। मैं यहाँ शस्त्र तथा नृत्य-संगीत की शिक्षा के लिए आया हूँ। विद्यार्थी का धर्म भोग नहीं है। उर्वशी ने अपने प्रयोजन में असफल रहने का कारण, अर्जुन को एक वर्ष तक निर्वीर्य रहने का शाप दिया, पर कहा कि यह शाप तुम्हारे लिए वरदान सिद्ध होगा। एक वर्ष के अज्ञातवास में तुम नपुंसक के रूप में अपने को छिपा सकोगे।

अनेक वर्षों तक अर्जुन का समाचार न मिलने पर पांडव चिंतित रहने लगे। तभी नारद ने आकर उन्हें बताया कि वे शीघ्र ही महर्षि लोमश के साथ आकर मुझसे मिलेंगे। तब तक आप देश-भ्रमण तथा तीर्थ-दर्शन कर लीजिए। कुछ दिनों बाद लोमश ऋषि ने आकर अर्जुन का समाचार सुनाया। लोमश ऋषि के साथ पांडव तीर्थों के दर्शन करने चल दिए। उन्होंने प्रयास, वेदतीर्थ, गया, गंगासागर तथा प्रभास तीर्थ के दर्शन किए। प्रभास तीर्थ से वे सिंधु तीर्थ होकर कश्मीर पहुँचे, यहाँ से वे हिमालय के सुबाहु राज्य में पहुँचे। यहाँ से वे बदरिका आश्रम भी गए।

भीम की हनुमान से भेंट

एक दिन सहस्त्र दलों वाला एक कमल हवा से उड़कर द्रौपदी के पास आ गिरा। उसने भीम से ऐसे ही पुष्प लाने को कहा। भीम पुष्प की तलाश में आगे बढ़ते गए। रास्ते में एक-सा बंदर लेटा हुआ था। भीम ने गरजकर उसे रास्ता छोड़ने को कहा, पर बंदर ने कहाअ कि मैं बुड्ढा हूँ। तुम्हीं मेरी पूँछ उठाकर एक ओर रख दो। भीम ने पूँछ उठाने की बहुत कोशिश की, पर भीम से उसकी पूँछ हिली भी नहीं। भीम हाथ जोड़कर उस बंदर के आगे आ खड़े हुए। बूढ़े बंदर कहा कि मैं राम का दास हनुमान हूँ। तुम मेरे छोटे भाई हो। भीम ने हनुमान से माफी माँगी और प्रार्थना की कि आप मेरे भाई अर्जुन के नंदिघोष रथ की ध्वजा पर बैठकर महाभारत का युद्ध देखिए। हनुमान ने भीम की यह प्रार्थना स्वीकार कर ली। हनुमान ने भीम को कमल सरोवर का पता भी बताया। सरोवर पर पहुँचकर भीम ने फूल तोड़ने शुरू कर दिए तो सरोवर के राक्षस यक्षों ने उन्हें रोका। भीम राक्षसों को मारने लगे। जब सरोवर के स्वामी कुबेर को पता चला कि पांडव यहाँ आए हैं, तो प्रसन्नता से वहाँ के फूल-फूल पांडवों के पास भेजे।

यहीं रहकर पांडव अर्जुन की प्रतीक्षा करने लगे। कुछ समय बाद आकाश से एक रथ आया तथा अर्जुन उसमें से उतरे। पांडवों तथा द्रौपदी की प्रसन्नता की सीमा न रही।

दुर्योधन आदि का गर्व हरण

वन में पांडवों को नीचा दिखाने के लिए दुर्योधन ने एक योजना बनाई। कर्ण, शकुनि आदि के साथ अपनी रानियों को लेकर वह वन पहुँचा। एक दिन दुर्योधन की इच्छा रानियों को लेकर सरोवर में स्नान करने की हुई। सरोवर के तट पर गंधर्वों का राजा चित्रसेन ठहरा हुआ था। दुर्योधन ने उस ओर की ज़मीन साफकरने के लिए अपने आदमियों को भेजा, जिन्हें चित्रसेन धमकाकर भगा दिया। दुर्योधन ने सैनिक भेजे, पर चित्रसेन ने उन्हें भी भगा दिया। कर्ण और शकुनि को साथ लेकर दुर्योधन गंधर्वों के सामने आ डटा। चित्रसेन उस समय स्नान कर रहा था। उसने कौरव-सेना पर बाण-वर्षा शुरू कर दी। फिर सम्मोहन अस्त्र का प्रयोग किया, कर्ण का रथ काट दिया, दुर्योधन को पाश में बाँध दिया और कौरवों की रानियों को कैद करके स्वर्ग ले चला। रानियों ने भीम, अर्जुन तथा युधिष्ठिर को सहायता के लिए पुकारा। इसी समय दुर्योधन के मंत्री ने भी आकर युधिष्ठिर से कौरवों की विपत्ति का वर्णन किया तथा सहायता की प्रार्थना की। भीम तो प्रसन्न थे, पर युधिष्ठिर ने कहा कि यह हमारी प्रतिष्ठा का प्रश्न है। उन्हीं के कहने पर भीम और अर्जुन चित्रसेन से भिड़ गए तथा महाकर्षण अस्त्र द्वारा चित्रसेन को आकाश से नीचे उतरने पर विवश किया। भीम ने महिलाओं के साथ दुर्योधन को रथ से उतार लिया। चित्रसेन और अर्जुन मित्रवत मिले। दुर्योधन बहुत लज्जित था। उसने धर्मराज को प्रणाम किया तथा अपनी राजधानी लौट आया।

  • वन पर्व के अन्तर्गत 22 (उप) पर्व और 315 अध्याय हैं। इन 22 पर्वों के नाम हैं-
  1. अरण्य पर्व
  2. किर्मीरवध पर्व
  3. अर्जुनाभिगमन पर्व
  4. कैरात पर्व
  5. इन्द्रलोकाभिगमन पर्व
  6. नलोपाख्यान पर्व
  7. तीर्थयात्रा पर्व
  8. जटासुरवध पर्व
  9. यक्षयुद्ध पर्व
  10. निवातकवचयुद्ध पर्व
  11. अजगर पर्व
  12. मार्कण्डेयसमस्या पर्व
  13. द्रौपदीसत्यभामा पर्व
  14. घोषयात्रा पर्व
  15. मृगस्वप्नोद्भव पर्व
  16. ब्रीहिद्रौणिक पर्व
  17. द्रौपदीहरण पर्व
  18. जयद्रथविमोक्ष पर्व
  19. रामोपाख्यान पर्व
  20. पतिव्रतामाहात्म्य पर्व
  21. कुण्डलाहरण पर्व
  22. आरणेय पर्व


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