वी. वी. गिरि
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पूरा नाम | वाराहगिरि वेंकट गिरि |
जन्म | 10 अगस्त, 1894 |
जन्म भूमि | बेहरामपुर, ओड़िशा |
मृत्यु | 23 जून, 1980 |
मृत्यु स्थान | मद्रास |
अभिभावक | पिता- वी.वी. जोगिआह पंतुलु |
नागरिकता | भारतीय |
प्रसिद्धि | भारत के चौथे राष्ट्रपति |
पार्टी | कांग्रेस |
पद | राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, राज्यपाल (उत्तर प्रदेश, केरल, कर्नाटक) |
शिक्षा | विधि स्नातक |
विद्यालय | डब्लिन यूनिवर्सिटी |
भाषा | तेलुगु, अंग्रेज़ी |
पुरस्कार-उपाधि | भारत रत्न |
विशेष योगदान | 1916 में भारत लौटने के बाद वी. वी. गिरि 'श्रमिक आन्दोलन' का आवश्यक हिस्सा बन गए थे। उन्होंने रेलवे कर्मचारियों के हितों की रक्षा करने के उद्देश्य से 'बंगाल-नागपुर रेलवे एसोसिएशन' की भी स्थापना की थी। |
संबंधित लेख | राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, राज्यपाल, इन्दिरा गाँधी |
अन्य जानकारी | 'डाक विभाग' ने वी. वी. गिरि के सम्मान में एक 25 पैसे का नया डाक टिकट जारी किया था। वी. वी. गिरि ने "औद्योगिक संबंध और भारतीय उद्योगों में श्रमिकों की समस्याएँ" जैसी किताबें भी लिखी थीं। उनमें लेखन क्षमता बहुत अधिक और उच्च कोटि की थी। |
वाराहगिरि वेंकट गिरि (अंग्रेज़ी: Varahagiri Venkata Giri, जन्म- 10 अगस्त, 1894; मृत्यु- 23 जून, 1980) भारत के चौथे राष्ट्रपति थे। 'भारत रत्न' से सम्मानित वी. वी. गिरि भारत के कार्यवाहक राष्ट्रपति (कार्यकाल- 3 मई, 1969 – 20 जुलाई, 1969) के अतिरिक्त उपराष्ट्रपति (कार्यकाल- 13 मई, 1967 – 3 मई, 1969), उत्तर प्रदेश के राज्यपाल (कार्यकाल- 10 जून, 1956 – 30 जून, 1960), केरल के राज्यपाल (कार्यकाल- 1 जुलाई, 1960 – 2 अप्रैल, 1965) और कर्नाटक के राज्यपाल (कार्यकाल- 2 अप्रैल, 1965 – 13 मई, 1967) भी रहे।
जीवन परिचय
वी. वी. गिरि के नाम से विख्यात भारत के चौथे राष्ट्रपति 'वाराहगिरि वेंकट गिरि' का जन्म 10 अगस्त, 1894 को बेहरामपुर, ओड़िशा में हुआ था। इनका संबंध एक तेलुगु भाषी ब्राह्मण परिवार से था। वी. वी. गिरि के पिता वी. वी. जोगिआह पंतुलु, बेहरामपुर के एक लोकप्रिय वकील और स्थानीय बार काउंसिल के नेता भी थे। वी. वी. गिरि की प्रारंभिक शिक्षा इनके गृहनगर बेहरामपुर में ही संपन्न हुई। इसके बाद यह 'डब्लिन यूनिवर्सिटी' में क़ानून की पढ़ाई करने के लिए आयरलैंड चले गए। वहाँ वह डी वलेरा जैसे प्रसिद्ध ब्रिटिश विद्रोही के संपर्क में आने और उनसे प्रभावित होने के बाद आयरलैंड की स्वतंत्रता के लिए चल रहे 'सिन फीन आंदोलन' से जुड़ गए। परिणामस्वरूप आयरलैंड से उन्हें निष्कासित कर दिया गया। प्रथम विश्व युद्ध के समय सन 1916 में वी. वी. गिरि वापस भारत लौट आए। भारत लौटने के तुरंत बाद वह 'श्रमिक आन्दोलन' से जुड़ गए। इतना ही नहीं रेलवे कर्मचारियों के हितों की रक्षा करने के उद्देश्य से उन्होंने बंगाल-नागपुर रेलवे एसोसिएशन की भी स्थापना की।[1]
राजनीतिक परिचय
सन 1916 में भारत लौटने के बाद वी. वी. गिरि श्रमिक और मज़दूरों के चल रहे आंदोलन का हिस्सा बन गए थे। हालांकि उनका राजनीतिक सफ़र आयरलैंड में पढ़ाई के दौरान ही शुरू हो गया था, लेकिन 'भारतीय स्वतंत्रता संग्राम' का हिस्सा बनकर वह पूर्ण रूप से स्वतंत्रता के लिए सक्रिय हो गए। वी. वी. गिरि 'अखिल भारतीय रेलवे कर्मचारी संघ' और 'अखिल भारतीय व्यापार संघ' (कांग्रेस) के अध्यक्ष भी रहे। सन 1934 में वह इम्पीरियल विधानसभा के भी सदस्य नियुक्त हुए। सन 1937 में मद्रास (वर्तमान चेन्नई) के आम चुनावों में वी. वी. गिरि को कॉग्रेस प्रत्याशी के रूप में बोबली में स्थानीय राजा के विरुद्ध उतारा गया, जिसमें उन्हें विजय प्राप्त हुई। सन 1937 में मद्रास प्रेसिडेंसी में कांग्रेस पार्टी के लिए बनाए गए 'श्रम एवं उद्योग मंत्रालय' में मंत्री नियुक्त किए गए। सन 1942 में जब कांग्रेस ने इस मंत्रालय से इस्तीफा दे दिया, तो वी. वी. गिरि भी वापस श्रमिकों के लिए चल रहे आंदोलनों में लौट आए।
अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ चल रहे 'भारत छोड़ो आंदोलन' में सक्रिय भूमिका निभाने के लिए, अंग्रेज़ों द्वारा इन्हें जेल भेज दिया गया। 1947 में भारत को स्वतंत्रता मिलने के बाद वह सिलोन में भारत के उच्चायुक्त नियुक्त किए गए। सन 1952 में वह पाठापटनम सीट से लोकसभा का चुनाव जीत संसद पहुंचे। सन 1954 तक वह श्रममंत्री के तौर पर अपनी सेवाएँ देते रहे। वी. वी. गिरि उत्तर प्रदेश, केरल, मैसूर में राज्यपाल भी नियुक्त किए गए थे। वी. वी. गिरि सन 1967 में ज़ाकिर हुसैन के काल में भारत के उपराष्ट्रपति भी रह चुके थे। इसके अलावा जब ज़ाकिर हुसैन के निधन के समय भारत के राष्ट्रपति का पद ख़ाली रह गया, तो वाराहगिरि वेंकटगिरि को कार्यवाहक राष्ट्रपति का स्थान दिया गया। सन 1969 में जब राष्ट्रपति के चुनाव आए तो इन्दिरा गांधी के समर्थन से वी. वी. गिरि देश के चौथे राष्ट्रपति बनाए गए।[1]
राष्ट्रपति पद
24 अगस्त, 1969 को वी. वी. गिरि ने भारत के चौथे राष्ट्रपति के रूप में प्रात: नौ बजे पद और गोपनीयता की शपथ ली। प्रसिद्ध इतिहासकार और पत्रकार डॉ. खुशवंत सिंह ने इन्हें तब तक के सारे राष्ट्रपतियों में सर्वाधिक दुर्बल राष्ट्रपति कहकर उल्लेखित किया है। लेकिन यहाँ राष्ट्रपतियों की तुलना करना उचित नहीं होगा। इतना अवश्य था कि कांग्रेस की अंतर्कलह के कारण गिरि की निष्ठा प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के प्रति थी और वही उन्होंने बनाये भी रखी। उन्होंने अपने पहले संबोधन में इंदिरा गांधी को अपनी पुत्री के रूप में संबोधित किया था, जिस पर कई लोगों ने आपत्ति और आश्चर्य व्यक्त किया था। लेकिन वी. वी. गिरि ने यह भली-भांति स्पष्ट कर दिया था कि संवैधानिक परंपराएँ अलग हैं और उनका निर्वाह करना भी एक अलग पक्ष है। जबकि व्यक्तिगत संबंध और मर्यादाएँ एक अलग चीज है। इंदिरा गांधी ने वी. वी. गिरि के निर्वाचन के लिए तब कांग्रेसियों को अपनी अंतरात्मा की आवाज पर वोट करने के लिए कहा था। वी. वी गिरि को 50.2 प्रतिशत वोट मिले थे और लगभग नगण्य अंतर से ही वह जीत पाये थे। उनके विरुद्ध नीलम संजीवा रेड्डी चुनाव मैदान में थे। यदि रेड्डी जीते गये होते तो इंदिरा गांधी और वी. वी. गिरि की तकदीर की तस्वीर ही दूसरी हो सकती थी। इसलिए वस्तुस्थिति को समझकर गिरि इंदिरा गांधी के प्रति आभारी रहे तो इसमें गलत तो कुछ हो सकता है, पर निंदनीय नहीं। 24 अगस्त, 1974 को इन्होंने राष्ट्रपति पद छोड़ा। उसी दिन डाक विभाग ने इनके सम्मान में एक 25 पैसे का नया डाक टिकट जारी किया था। वे एक विदेशी शिक्षा प्राप्त विधिवेत्ता, सफल छात्र नेता, एक अतुलनीय श्रमिक नेता, निर्भीक स्वतंत्रता सैनानी, एक जेल यात्री, एक प्रमुख वक्ता, एक त्यागी पुरुष थे, जिसने केन्द्रीय मंत्री पद को त्याग दिया था, अपने सिद्घांतों पर अडिग रहने वाले वे नैष्ठिक पुरुष थे।[2]
राष्ट्रपति चुनाव में विवाद
डॉ. ज़ाकिर हुसैन के निधन के कारण 24 अगस्त, 1969 में वाराहगिरि वेंकट गिरि भारत के चौथे राष्ट्रपति चुने गए। इन्होंने इससे पहले 3 मई, 1969 से 20 जुलाई, 1969 तक कार्यवाहक राष्ट्रपति के रूप में यह पद संभाला। तत्कालीन प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री के आकस्मिक निधन के बाद उस समय के कांग्रेस पार्टी अध्यक्ष के. कामराज ने अहम भूमिका निभाई और इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री पद तक पहुँचा दिया। इंदिरा गांधी ने शीघ्र ही चुनाव जीतने के साथ-साथ जनप्रियता के माध्यम से विरोधियों के ऊपर हावी होने की योग्यता दर्शायी। इसी बीच राष्ट्रपति के चुनाव आ गए। इंदिरा ने इस पद के लिए पहले नीलम संजीव रेड्डी का नाम सुझाया। पर बाद में उन्हें लगा कि रेड्डी स्वतंत्र विचार के व्यक्ति हैं और उनकी हर बात नहीं मानेंगे, इसलिए निर्दलीय उम्मीदवार वी. वी. गिरि का समर्थन कर दिया। इंदिरा गांधी ने अपने दल के सांसदों और विधायकों यानी मतदाताओं से अपील कर दी कि वे अपनी अंतरात्मा की आवाज़ पर वोट दें। इस सवाल पर कांग्रेस में फूट पड़ गयी और कुछ अन्य दलों की मदद से इंदिरा गांधी ने गिरि को जीत दिला दी। मामला इतना बढ़ा कि गिरि के चुनाव को चुनौती देते हुए याचिका दायर कर दी गयी।
मामले की सुनवाई
याचिका में मुख्य आरोप यह लगा कि राष्ट्रपति के चुनाव प्रचार के दौरान ऐसे परचे छापे और वितरित किए गए, जो रेड्डी के चरित्र को लांछित करते थे। विवादित ढंग से चुने जाने के बावजूद गिरि के समय तक राष्ट्रपति वाकई देश के पहले नागरिक हुआ करते थे। इस मामले की सुनवाई के लिए सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति एस.एम. सिकरी की अध्यक्षता में पांच सदस्यीय पीठ का गठन किया गया। मुकदमा सोलह सप्ताह तक चला। सी.के. दफ्तरी गिरि के वकील थे। मुकदमे में 116 गवाहों के बयान हुए। इक्कीस दस्तावेज पेश किये गये। अंतत: सुप्रीम कोर्ट ने गिरि के ख़िलाफ़ पेश याचिकाएँ खारिज कर दीं। इससे पहले सुप्रीम कोर्ट राष्ट्रपति का बयान दर्ज करने के लिए कमिश्नर बहाल कर दिया था, पर श्री गिरि ने खुद हाजिर होकर बयान देना उचित समझा। सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रपति के बैठने की सम्मानजनक व्यवस्था कर दी थी। सी.के. दफ्तरी गिरि के वकील थे। इस केस में सुप्रीम कोर्ट के सामने जो मुद्दे थे, उनमें मुख्यत वह विवादास्पद पर्चा था, जो रेड्डी के ख़िलाफ़ विधायकों व सांसदों के बीच वितरित किये गये थे।
- सवाल उठा कि क्या गिरि या किसी अन्य व्यक्ति ने उनकी सहमति से वे परचे प्रकाशित, मुद्रित और वितरित किये थे?
- क्या उस परचे में ऐसे झूठे तथ्य और कुतथ्य थे, जिससे रेड्डी का निजी चरित्र लांछित होता है?
- क्या उसका प्रकाशन कांग्रेस के राष्ट्रपति के अधिकारिक उम्मीदवार को पराजित करने के लिए किया गया था?
- क्या परचे को प्रकाशित करने के जिम्मेदार व्यक्ति यह विश्वास करते हैं कि उसमें लिखी गयी बातें सच हैं?
- क्या गिरि या अन्य व्यक्ति ने उनकी सहमति से घूस देने का अपराध किया जिसका चुनाव पर बुरा असर पड़ा?
- क्या राष्ट्रपति पद के अन्य उम्मीदवार शिव कृपाल सिंह, चरणलाल साहू या योगीराज के नामांकन पत्र गलत तरीके से खारिज कर दिये गये?
- क्या गिरि और पीएन भोगराज के नामांकन पत्र गलत तरीके से स्वीकृत किये गये?
- क्या याचिका में लगाये गये आरोप यह सिद्ध करते हैं कि धारा-18/1 ए/के अंतर्गत चुनाव में अनुचित प्रभाव का इस्तेमाल किया गया था?
- क्या गिरि के कार्यकर्ताओं ने अनुचित प्रभाव डालने का अपराध किया था? यदि हां, तो क्या उसके लिए गिरि ने अपनी सहमति दी थी?
- क्या अन्य लोगों द्वारा अनुचित प्रभाव डालने के कारण चुनाव नतीजे पर कोई असर पड़ा?
सुप्रीम कोर्ट का निर्णय
सीके दफ्तरी ने कहा कि यह सही है कि रेड्डी के ख़िलाफ़ परचा छापा गया था, पर उस परचे में यह नहीं बताया गया था कि इसे किसने छापा। दूसरी ओर याचिकाकर्ता के वकील सुयश मलिक ने कहा कि गिरि पर आरोप बनता है। एक अन्य वकील एम.सी. शर्मा ने कहा कि संसदीय चुनाव और राष्ट्रपति के चुनाव में भ्रष्ट कार्रवाई के अंतर को ध्यान में रखा जाना चाहिए। चुनाव में भ्रष्ट आचरण सिद्ध करने के लिए केवल यह सिद्ध करना ज़रूरी है कि विजयी प्रत्याशी ने भ्रष्ट आचरण के बारे में जानबूझ कर खामोशी बरती। सुप्रीम कोर्ट ने दोनों पक्षों को सुनने के बाद गिरि के चुनाव को सही ठहराया और इस संबंध में दायर चारों याचिकाओं को खारिज करते हुए न्यायमूर्ति सिकरी ने कहा कि हम सभी न्यायाधीश इस निर्णय पर एकमत हैं।
फ़ैसले के वक्त सुप्रीम कोर्ट में भारी भीड़ थी। लोगों में निर्णय सुनने की उत्सुकता थी। यह अपने ढंग का पहला चुनाव मुकदमा था। जब फ़ैसला आया, उस समय गिरि दक्षिण भारत के दौरे पर थे। उन्हें तत्काल इसकी सूचना दे दी गयी। इस निर्णय पर कोई टिप्पणी करने से उन्होंने इनकार कर दिया। राष्ट्रपति पद के पराजित उम्मीदवार रेड्डी ने भी इस पर तत्काल कुछ कहने से इनकार कर दिया था, पर कुछ दूसरे नेताओं ने इस पर अपनी प्रतिक्रियाएँ ज़रूर दीं। इंदिरा कांग्रेस के अध्यक्ष जगजीवन राम ने कहा कि- "सच्चाई की जीत हुई है"। भाकपा के प्रमुख नेता भूपेश गुप्त ने कहा कि- "यह फ़ैसला न केवल संसद बल्कि पूरे देश के प्रगतिशील व्यक्तियों की नैतिक और राजनीतिक दोनों तरह की विजय की प्रतीक है।" संगठन कांग्रेस के अध्यक्ष निजलिंगप्पा ने कहा कि- "हमें न्यायिक फ़ैसलों को स्वीकार करने और उसकी प्रशंसा करने की सीख लेनी चाहिए।"[3]
- सम्मान और पुरस्कार
वाराहगिरि वेंकटगिरि को श्रमिकों के उत्थान और देश के स्वतंत्रता संग्राम में अपने उत्कृष्ट योगदान के लिए देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ से नवाजा गया।
निधन
85 वर्ष की आयु में वाराहगिरि वेंकट गिरि का 23 जून, 1980 को मद्रास में निधन हो गया। वी. वी. गिरि एक अच्छे वक्ता होने के साथ-साथ एक कुशल राजनीतिज्ञ भी थे। उनमें लेखन क्षमता भी बहुत अधिक और उच्च कोटि की थी। वी. वी. गिरि ने "औद्योगिक संबंध और भारतीय उद्योगों में श्रमिकों की समस्याएँ" जैसी किताबें भी लिखी थीं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 वाराहगिरि वेंकटगिरि (हिंदी) (एच.टी.एम.एल) जागरण जंक्शन। अभिगमन तिथि: 7 फ़रवरी, 2013।
- ↑ वाराहगिरि वेंकट गिरि (हिंदी) (एच.टी.एम.एल) हिंदी इन डॉट कॉम। अभिगमन तिथि: 7 फ़रवरी, 2013।
- ↑ राष्ट्रपति पदः विवादों की अंतहीन कथा (हिंदी) (एच.टी.एम.एल) पत्रकार अनिल दीक्षित। अभिगमन तिथि: 7 फ़रवरी, 2013।
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