काशी में संन्यासी होय वासी हों उजार हुँ को,
निरगुन उपासी होय जोग साध रहे बन में।
तापते चौरासी धुनी केते वह सिद्ध मुनि,
शिवदीन कहे सुनी यही भस्म लगा तन में।
एते सब प्रपंच केते बने हुए परमहंस,
ग्यान के बिना से जांको ध्यान जाय धन में।
जब लग है स्वांग सकल सांचा से राच्यो नहिं,
कैसे हो उमंग राम बस्यो नांहीं मन में।
सांची-सांची कह रह्यो सुण न कोई बात,
अंत फेर पछिताय स्यो खा खा मरस्यो मात।
खा खा मरस्यो मात संग धन जावे कोना,
आवे केही काम बताओ चांदी सोना।
मरते ही घर के सभी धन कर लेवे हाथ,
शिवदीन चार कांधे चले दिन होवे चाहे रात।
राम गुण गायरे।।
जग की क्या परतीत रीत जग की है न्यारी,
सुणे न सच्ची बात सुणे तो देवें गारी।
झूंठ कपट से खुशी अकर्मी लोग दुनि के,
सत संगत की बात आजतक दुनि सुनी के।
शिवदीन बात सब समझ की समझदार के संग,
बात जगत से ना करो फीका पडि है रंग।
राम गुण गायरे।।