निरबैरी निहकामता, साईं सेती नेह ।
विषिया सूं न्यारा रहै, संतनि का अंग एह ॥1॥
संत न छांड़ै संतई, जे कोटिक मिलें असंत ।
चंदन भुवंगा बैठिया, तउ सीतलता न तजंत ॥2॥
गांठी दाम न बांधई, नहिं नारी सों नेह ।
कह `कबीर' ता साध की, हम चरनन की खेह ॥3॥
सिहों के लेहँड़ नहीं, हंसों की नहीं पाँत ।
लालों की नहि बोरियाँ, साध न चलैं जमात ॥4॥
जाति न पूछौ साध की, पूछ लीजिए ग्यान ।
मोल करौ तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान ॥5॥
`कबीर' हरि का भावता, झीणां पंजर तास ।
रैणि न आवै नींदड़ी, अंगि न चढ़ई मांस ॥6॥
राम बियोगी तन बिकल, ताहि न चीन्हे कोइ ।
तंबोली के पान ज्यूं , दिन-दिन पीला होइ ॥7॥
काम मिलावे राम कूं, जे कोई जाणै राखि ।
`कबीर' बिचारा क्या कहै, जाकी सुखदेव बोलै साखि ॥8॥
जिहिं हिरदे हरि आइया, सो क्यूं छानां होइ ।
जतन-जतन करि दाबिये, तऊ उजाला सोइ ॥9॥
फाटै दीदै में फिरौं, नजरि न आवै कोइ ।
जिहि घटि मेरा साँईयाँ, सो क्यूं छाना होइ ॥10॥
पावकरूपी राम है, घटि-घटि रह्या समाइ ।
चित चकमक लागै नहीं, ताथै धूवाँ ह्वै-ह्वै जाइ ॥11॥
`कबीर' खालिक जागिया, और न जागै कोइ ।
कै जगै बिषई विष-भर्या, कै दास बंदगी होइ ॥12॥
पुरपाटण सुवस बसा, आनन्द ठांयैं ठांइ ।
राम-सनेही बाहिरा, उलजंड़ मेरे भाइ ॥13॥
जिहिं घरि साध न पूजि, हरि की सेवा नाहिं ।
ते घर मड़हट सारंषे, भूत बसै तिन माहिं ॥14॥
हैवर गैवर सघन धन, छत्रपति की नारि ।
तास पटंतर ना तूलै, हरिजन की पनिहारि ॥15॥
क्यूं नृप-नारी नींदिये, क्यूं पनिहारी कौं मान ।
वा मांग संवारे पीव कौं, या नित उठि सुमिरै राम ॥26॥
`कबीर कुल तौ सो भला, जिहि कुल उपजै दास ।
जिहिं कुल दास न ऊपजै, सो कुल आक-पलास ॥27॥