सामाजिक सुधार अधिनियम
सामाजिक सुधार अधिनियम मुख्यत: 19वीं शताब्दी में लाये गए। इस शताब्दी के सुधार आन्दोलन ने केवल धार्मिक सुधार के क्षेत्र को ही नहीं, बल्कि समाज सुधार को भी अपना लक्ष्य बनाया। तत्कालीन समाज में व्याप्त ऐसी कई कुप्रथाओं, जैसे- सती प्रथा, बाल विवाह, बाल हत्या, जातीय भेदभाव आदि को इन आंदोलनों ने अपना निशाना बनाया। भारतीय समाज में बसी हुई अनेकों कुरीतियों तथा कुप्रथाओं को इसके माध्यम से समाप्त करने काफ़ी मदद मिली।
सती प्रथा
भारतीय, मुख्य रूप से हिन्दू समाज में सती प्रथा का उद्भव यद्यपि प्राचीन काल से माना जाता है, परन्तु इसका भीषण रूप आधुनिक काल में देखने को मिलता है। सती प्रथा का पहला अभिलेखीय साक्ष्य 510 ई. एरण के अभिलेख में मिलता है। 15वीं शताब्दी में कश्मीर के शासक सिकन्दर ने इस प्रथा को बन्द करवा दिया था। बाद में पुर्तग़ाली गर्वनर अल्बुकर्क ने इस प्रथा को बन्द करवा दिया। भारत मे मुग़ल बादशाह अकबर व पेशवाओं के अलावा ईस्ट इण्डिया कम्पनी के कुछ गर्वनर-जनरलों जैसे लॉर्ड कॉर्नवॉलिस एवं लॉर्ड हेस्टिंग्स ने इस दिशा में कुछ प्रयत्न किये, परन्तु इस क्रूर प्रथा को क़ानूनी रूप से बन्द करने का श्रेय लॉर्ड विलियम बैंटिक को जाता है। राजा राममोहन राय ने बैंटिक के इस कार्य में सहयोग किया। राजा राममोहन राय ने अपने पत्र ‘संवाद कौमुदी’ के माध्यम से इस प्रथा का व्यापक विरोध किया। राधाकान्त देव तथा महाराजा बालकृष्ण बहादुर ने राजा राममोहन राय की नीतियों का विरोध किया। 1829 ई. के 17वें नियम के अनुसार विधवाओं को जीवित ज़िन्दा जलाना अपराध घोषित कर दिया गया। पहले यह नियम 'बंगाल प्रेसीडेंसी' में लागू हुआ, परन्तु बाद में 1830 ई. के लगभग इसे बम्बई और मद्रास में भी लागू कर दिया गया।
संस्था | स्थापना वर्ष | संस्थापक |
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ब्रह्म समाज | 1828 ई. | राजा राममोहन राय |
तत्वबोधिनी | 1839 ई. | देवेन्द्रनाथ टैगोर |
देवबंद स्कूल | 1866-1867 ई. | मोहम्मद कासिम ननौतवी व रशीद अहमद गंगोही |
प्रार्थना समाज | 1867 ई. | आत्माराम पांडुरंग व महादेव गोविन्द रानाडे |
आर्य समाज | 1875 ई. | दयानन्द सरस्वती |
थियोसोफ़िकल सोसाइटी | 1875 ई. (न्यूयार्क) | मैडम एच.पी. ब्लावात्सकी व एच.एस. अल्काट |
इण्डियन एसोसिएशन | 1876 ई. | सुरेन्द्रनाथ बनर्जी |
दीनबंधु सार्वजनिक सभा | 1884 ई. | ज्योतिबा फुले |
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस | 1885 ई. | ए.ओ. ह्मूम |
देव समाज | 1887 ई. | शिवनारायण अग्निहोत्री |
अहमदिया आन्दोलन | 1889 ई. | मिर्ज़ा ग़ुलाम अहमद |
थियोसोफ़िकल सोसाइटी | 1886 ई.(भारत) | मैडम एच.पी. ब्लावात्सकी व एच.एस. अल्काट |
रामकृष्ण मिशन वेद समाज | 1897 ई. | स्वामी विवेकानन्द के.के. श्रीधरालु नायडू |
सर्वेन्ट्स ऑफ़ इण्डिया सोसयटी | 1905 ई. | गोपाल कृष्ण गोखले |
मुस्लिम लीग | 1906 ई. | सलीमउल्ला व आगा ख़ाँ |
ग़दर पार्टी | 1913 ई. | लाला हरदयाल, भाई परमानंद, (अमेरिका) काशीराम |
होमरूल लीग | 1916 ई. | बाल गंगाधर तिलक |
अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस | 1920 ई. | एन.एम. जोशी |
स्वराज्य पार्टी | 1923 ई. | मोती लाल नेहरू व चितरंजन दास |
हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसियेशन | 1928 ई. | चन्द्रशेखर आज़ाद व भगत सिंह |
ख़ुदाई खिदमतगार | 1931 ई. | अब्दुल गफ़्फ़ार ख़ाँ |
फ़ारवर्ड ब्लॉक | 1939 ई. | सुभाषचन्द्र बोस |
बाल हत्या
बाल हत्या की प्रथा राजपूतों में सर्वाधिक प्रचलित थी। वे कन्या के जन्म को अशुभ मानते थे, अतः इनके यहाँ नशीली दवाओं एवं भूखा रखकर कन्याओं को मार दिया जाता था। लॉर्ड हार्डिंग ने 1795 ई. के 'बंगाल नियम' एवं 1804 ई. के नियम-3 से बाल हत्या को साधारण हत्या मान लिया। 1870 ई. में इस दिशा में कुछ क़ानून बने, जिसके अन्तर्गत बालक-बालिकाओं की सूचना देना अनिवार्य कर दिया गया।
दास प्रथा
भारतीय समाज में दास प्रथा का प्रचलन प्राचीन काल से था। 18 जनवरी, 1823 ई. को लिस्टर स्टैनहोप ने इंग्लैण्ड के ड्यूक ऑफ़ ग्लोस्टर को दास प्रथा की समाप्ति के लिए एक पत्र लिखा। 1789 ई. की घोषणा द्वारा दासों का निर्यात बन्द कर दिया गया। 1811 ई. एवं 1823 ई. में दासों के सम्बन्ध में क़ानून बनाए गये। 1833 में अंग्रेज़ी साम्राज्य में दासता समाप्त कर दी गयी। 1833 ई. में चार्टर एक्ट में दासता को शीघ्र-अतिशीघ्र समाप्त करने के लिए गर्वनर को क़ानून बनाने को कहा गया। 1843 ई. में समस्त भाग में दासता को अवैध घोषित कर दिया गया। 1860 ई. में 'भारतीय दण्ड संहिता' के अन्तर्गत दासता को अपराध घोषित कर दिया गया।
विधवा पुनर्विवाह
कलकत्ता के 'संस्कृत कॉलेज' के आचार्य ईश्वरचन्द्र विद्यासागर ने इस दिशा में उल्लेखनीय कार्य किया। उन्होंने विधवा विवाह के समर्थन में लगभग एक सहस्र हस्ताक्षरों वाला प्रार्थना पत्र तत्कालीन गर्वनर डलहौज़ी को दिया, जिसके परिणामस्वरूप 1856 ई. में ‘हिन्दू विधवा पुनर्विवाह अधिनियम’ द्वारा विधवा विवाह को मान्यता दे दी गई। इस क्षेत्र में धोंडो केशव कर्वे एवं वीरेसलिंगम पुण्टलु ने भी उल्लेखनीय कार्य किया। कर्वे महोदय ने पूना में 1899 ई. में एक ‘विधवा आश्रम’ स्थापित किया। उनके प्रयास से ही 1906 ई. में बम्बई में 'भारतीय महिला विश्वविद्यालय' की स्थापना की गई। धोंडो केशव कर्वे विधवा पुनर्विवाह संघ के सचिव थे।
बाल विवाह
इस क्षेत्र में केशवचन्द्र सेन के प्रयासों से 1872 ई. में देशी बाल विवाह अधिनियम पास हुआ, जिसमें बाल विवाह पर प्रतिबन्ध लगाने की व्यवस्था की गई। सिविल मैरिज एक्ट (1872 ई.) के अन्तर्गत 14 वर्ष से कम आयु की कन्याओं तथा 18 वर्ष से कम आयु के लड़कों का विवाह वर्जित कर दिया गया। इस अधिनियम के द्वारा बहुपत्नी प्रथा भी समाप्त कर दी गयी। 1891 ई. में ब्रिटिश सरकार ने एस.एस. बंगाली के सहयोग से ‘एज ऑफ़ कंसेट एक्ट’ पारित किया। एक्ट के अनुसार 12 वर्ष से कम आयु की कन्याओं के विवाह पर रोक लगा दी गई। इस एक्ट का लोकमान्य तिलक ने इस आधार पर विरोध किया कि वे इसे भारतीय मामले में विदेशी हस्तक्षेप मानते थे। 1930 ई. में ‘शारदा अधिनियम’ द्वारा विवाह के लिए लड़की की आयु कम से कम 14 वर्ष और लड़के की 18 वर्ष निश्चित की गई।
स्त्री शिक्षा
हिन्दू शास्त्रों में दी हुई व्यवस्था के आधार पर 19वीं सदी के लोगों में एक ग़लत मान्यता का प्रचार था कि स्त्रियों को अध्ययन का अधिकार नहीं है, परन्तु सुधार आन्दोलनों के द्वारा इस क्षेत्र में फैली भ्रांति को दूर किया गया। सर्वप्रथम ईसाई धर्म प्रचारकों ने इस क्षेत्र में कार्य करते हुए 1819 ई. में स्त्री शिक्षा के लिए कलकत्ता में एक ‘तरुण सभा’ की स्थापना की। जेडी. बेथुन ने 1849 ई. में कलकत्ता में एक बालिका विद्यालय की स्थापना की। ईश्वरचन्द्र विद्यासागर ने भी इस क्षेत्र में भी उल्लेखनीय योगदान कार्य किया। वे बंगाल के लगभग 35 विद्यालयों से जुड़े थे। 1854 ई. के 'चार्ल्स वुड पत्र' में स्त्री शिक्षा की आवश्यकता पर ध्यान दिया गया।
महिलाओं के उत्थान के क्षेत्र में पुरुषों ने प्रयत्न किये, परन्तु 20वीं शताब्दी तक अपने अधिकारों के लिए महिलायें खुद आगे आने लगीं। 1926 ई. में ‘अखिल भारतीय महिला संघ’ की स्थापना हुई। देश के आज़ाद होने के बाद 1956 ई. के 'हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम' में यह व्यवस्था की गई कि पिता की सम्पत्ति में पुत्र के साथ पुत्री भी बराबर की हकदार होगी और इसके साथ ही बहुविवाह, दहेज प्रथा आदि को भी प्रतिबन्धित किया गया। इस तरह 20वीं सदी में महिलाओं की स्थिति में काफ़ी सुधार हुआ।
जातीय वैकल्प निराकरण अधिनियम
उच्च वर्ग के सम्पन हिन्दू व्यक्तियों की ईसाई धर्म में परिवर्तित करने में बड़ी बाधा यह थी कि धर्म परिवर्तन से व्यक्ति अपने सम्पत्ति के अधिकारों से वंचित हो जाता था। कालान्तर में ब्रिटिश सरकार ने इस बाधा को समाप्त कर दिया, जिससे हिन्दुओं को धर्म परिवर्तन के लिए प्रोत्साहन मिला, परन्तु इस अधिनियम का हिन्दुओं ने जमकर विरोध किया। 20वीं शताब्दी में सामाजिक सुधार के लिए चलाये गये कुछ अन्य आंदोलनों में 1887 ई. में महादेव गोविन्द रानाडे द्वारा ‘भारतीय राष्ट्रीय सामजिक सम्मेलन, 1903 ई. में ‘बम्बई समाज सुधारक सभा’ एवं एनी बेसेन्ट द्वारा हिन्दू सम्मेलन की स्थापना की गई।
जाति प्रथा का विरोध एवं अछूतोद्धार आन्दोलन
प्राचीन काल से ही भारतीय समाज में व्याप्त इस कुप्रथा में सुधार के लिए आधुनिक काल में कुछ प्रयास अवश्य किये गये। गांधी जी ने इस क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण कार्य किया। उन्होंने अछूतों के लिए ‘हरिजन’ (भगवान का जन) शब्द प्रयोग किया और ‘हरिजन’ नामक साप्ताहिक पत्र का संपादन किया। उन्होंने हरिजनों के कल्याण के लिए 1932 ई. में ‘हरिजन सेवक संघ’ नामक संस्था की स्थापना की। संभवतः गांधीजी पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने हरिजन समस्या की ओर जनसाधारण का ध्यान खीचा। निम्न जाति या कुल में पैदा हुए डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर जीवन भर जाति प्रथा तथा छुआछूत से लड़ते रहे। इन्होंने ‘ऑल इंडिया डिप्रेस्ड क्लास एसोसिएशन’ (अखिल भारतीय दलित वर्ग संघ) की स्थापना की। 1906 ई. में बी.आर.शिंदे के नेतृत्व में बम्बई में ‘डिप्रेस्ड क्लास मिशन सोसइटी’ की स्थापना की गई। मद्रास में 'डिप्रेस्ड क्लासेज मिशन सोसाइटी' की स्थापना 1909 ई. में की गई। दक्षिण भारत में 1920 ई. में ई.वी. रामास्वामी नायकर के नेतृत्व में ‘आत्मसम्मान आंदोलन’ चलाया गया। मद्रास के ब्राह्मण विरोधी संगठन प्रजा मित्र मंडली के संस्थापक सी.आर. रेड्डी थे। दक्षिण भारत के ‘आत्मसम्मान आंदोलन' ने 1925 ई. में बिना ब्राह्मण के सहयोग से शादी, जबरन मंदिर प्रवेश, नास्तिकवाद एवं मनुस्मृति को जलाने का तर्क दिया। सी.एन. मुदालियार, टी.एम. नायर एवं पी.टी. चेट्टी के नेतृत्व में दक्षिण में ‘जस्टिस पार्टी’ की स्थापना की गई। पहले इस पार्टी को ‘साउथ इंडियन लिबरल एसोसिएशन’ के नाम से जाना जाता था। बंगाल में 1899 ई. में जाति निर्धारण सभा की स्थापना की गई। केरल में एझवा आंदोलन के अन्तर्गत इस आंदोलन के नेताओं द्वारा 1903 ई. में ‘श्रीनारायण धर्म परिपाल योगम’ की स्थापना की गई।
आन्दोलनों का परिणाम
आधुनिक भारत में सुधारवादी धार्मिक आंदोलनों के परिणामस्वरूप भारत के लोगों में आत्म-सम्मान, आत्म-विश्वास एवं राष्ट्रीय भावना का विकास हुआ। धर्म के क्षेत्र में व्याप्त अंध विश्वास को दूर करने में सहयोग मिला और साथ ही भारतीय समाज में मानवीय गुण एवं नैतिकता का लोगों में विकास हुआ। सुधारवादी धार्मिक आंदोलनों का एक प्रभाव यह रहा कि भारतीयों में पश्चिमी चमक-दमक के प्रति आकर्षण एवं आधुनिकीकरण की प्रकृति को प्रोत्साहन मिला। इन सुधारवादी आंदोलनों में सर्वाधिक महत्व स्त्री मुक्ति, शिक्षा एवं सम्मान के अधिकारों में वृद्धि एवं छुआछूत की परम्परा को समाप्त करने को दिया गया। 19वीं-20वीं सदी में चले इन सुधारवादी धार्मिक आंदोलनों ने शहरी उच्च एवं मध्यम वर्ग को सर्वाधिक प्रभावित किया। आधुनिक भारत का यह आंदोलन अपनी व्यापकता के बाद भी कुछ निश्चित सीमा में ही रहा गया। उसे अतीत को देखने, अतीत की उत्कृष्टता की दुहाई देने तथा धर्म ग्रंथों के प्रमाण पर जाने की आदत सी थी। अतीत में ‘स्वर्ण युग’ खोजने की भावना से आधुनिक विज्ञान को पूर्ण रूप से स्वीकार करने में बाधा उत्पन्न हुई। इन प्रवृत्तियों ने हिन्दु, मुसलमान, सिक्ख तथा ईसाई को आपस में बांट दिया। ऊंची जाति के हिन्दू निम्न जाति के हिन्दू से अलग-थलग पड़ गये। सुधारकों ने भारत के मध्यकालीन इतिहास को अवनति के काल के रूप में देखा।
इन्हें भी देखें: सामाजिक-धार्मिक सुधार आन्दोलन
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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