पुराणों के क्रम में इसका तेरहवां स्थान है। अपने वर्तमान में इसके खंडात्मक और संहितात्मक दो रूप उपलब्ध हैं और दोनों में से प्रत्येक में 81 हज़ार श्लोक हैं। इस प्रकार यह आकार की दृष्टि से सबसे बड़ा पुराण है। इसमें स्कंद (कार्तकेय) द्वारा शिवतत्व का वर्णन किया गया है। इसीलिए इसका नाम स्कंद पुराण पड़ा। इसमें तीर्थों के उपाख्यानों और उनकी पूजा-पद्धति का भी वर्णन है। 'वैष्णव खंड' में जगन्नाथपुरी की और 'काशीखंड' में काशी के समस्त देवताओं, शिवलिंगों का आविर्भाव और महात्म्य बताया गया है। 'आवन्यखंड' में उज्जैन के महाकलेश्वर का वर्णन है।
हिंदुओं के घर-घर में प्रसिद्ध 'सत्यनारायण व्रत' की कथा 'रेवाखंड' में मिलती है। तीर्थों के वर्णन के माध्यम से यह पुराण पूरे देश का भौगोलिक वर्णन प्रस्तुत करता है। स्कंदपुराण का मूल रचनाकाल सातवीं शताब्दी माना जाता है, पर इसमें समय-समय पर सामग्री जुड़ती गई है। इसके वृहदाकार का यही कारण है।
शिव-पुत्र कार्तिकेय का नाम ही स्कन्द है। स्कन्द का अर्थ होता है- क्षरण अर्थात् विनाश। भगवान शिव संहार के देवता हैं। उनका पुत्र कार्तिकेय संहारक शस्त्र अथवा शक्ति के रूप में जाना जाता है। तारकासुर का वध करने के लिए ही इसका जन्म हुआ था। 'स्कन्द पुराण' शैव सम्प्रदाय का पुराण हैं यह अठारह पुराणों में सबसे बड़ा है। इसके छह खण्ड हैं- माहेश्वर खण्ड, वैष्णव खण्ड, ब्रह्म खण्ड, काशी खण्ड, अवन्तिका खण्ड और रेवा खण्ड।
कुछ विद्वानों ने इसके सात खण्ड बताए हैं। किन्तु अधिकांश विद्वान छह खण्ड ही स्वीकार करते हैं। 'अवन्तिका खण्ड' को ही कुछ लोग 'ताप्ति खण्ड' या 'प्रभास खण्ड' में विभाजित करके सात खण्ड बना देते हैं। एक अन्य 'स्कन्द पुराण' भी है, जिसे इस पुराण का उप-पुराण कहा जा सकता है। यह छह संहिताओं-सनत्कुमार संहिता, सूत संहिता, शंकर संहिता, वैष्णव संहिता, ब्रह्म संहिता तथा सौर संहिता में विभाजित है।
'स्कन्द पुराण' में इक्यासी हज़ार श्लोक हैं। इस पुराण का प्रमुख विषय भारत के शैव और वैष्णव तीर्थों के माहात्म्य का वर्णन करना है। उन्हीं तीर्थों का वर्णन करते समय प्रसंगवश पौराणिक कथाएं भी दी गई हैं। बीच-बीच में अध्यात्म विषयक प्रकरण भी आ गए हैं। शिव के साथ ही इसमें विष्णु और राम की महिमा का भी सुन्दर विवेचन किया गया है। तुलसीदास के 'रामचरित मानस' में इस पुराण का व्यापक प्रभाव दिखाई देता है।
माहेश्वर खण्ड
इस खण्ड में दक्ष-यज्ञ वर्णन, सती दाह, देवताओं और शिव गणों में युद्ध, दक्ष-यज्ञ विध्वंस, लिंग प्रतिष्ठा वर्णन, रावणोपाख्यान, समुद्र मंथन, लक्ष्मी की उत्पत्ति, अमृत विभाजन, शिवलिंग माहात्म्य, राशि-नक्षत्र वर्णन, दान भेद वर्णन, सुतनु-नारद संवाद, शिव पूजन का माहात्म्य, शिव तीर्थों सहित शाक्तिपीठ आदि की प्रशंसा, अरुणाचल स्थान का महत्त्व तथा विष्णु को शिव का ही रूप बताया गया है। विष्णु और शिव में कोई अन्तर नहीं है।
यथा शिवस्तथा विष्णुर्यथा विष्णुस्तथा शिव:।
अन्तरं शिव विष्णोश्च मनागपि न विद्यते ॥ (स्कन्द पुराण)
अर्थात् जिस प्रकार शिव हैं, उसी प्रकार विष्णु हैं और जैसे विष्णु हैं, वैसे ही शिव हैं। इन दोनों में तनिक भी अन्तर नहीं है।
माहेश्वर खण्ड में कहा गया है- यो विष्णु: स शिवोज्ञेय: य: शिवो विष्णुरेव स: अर्थात् जो विष्णु हैं, उन्हीं को शिव जानना चाहिए और जो शिव हैं, उन्हें विष्णु मानना चाहिए। प्रकार दोनों में कोई भेद नहीं है। इसी सद्भावना के कारण 'स्कन्द पुराण' में शैव मत के सिद्धान्त होने के उपरान्त भी वैष्णव मत के प्रति किसी प्रकार की निन्दा या दुर्भावना दृष्टिगोचर नहीं होती।
इस खण्ड में अनेक छोटे-बड़े तीर्थों का वर्णन करते हुए शिव महिमा गाई गई है। इसके अलावा ब्रह्मा, विष्णु, शिव, इन्द्र, गन्धर्व, ऋषि-मुनि, दानव-दैत्य आदि की सुन्दर कथाओं का वर्णन भी किया गया है। इसी खण्ड के 'कौमारिका खण्ड' में एक ऐसी कथा दी गई है, जिसमें सम्प्रदायों के नाम पर संकीर्ण विचार रखने वालों की खुलकर भर्त्सना है। राजा करन्धम अपनी शंका-समाधान के लिए महाकाल से पूछता है कि मोक्ष की प्राप्ति के लिए कोई शिव का, कोई विष्णु का और कोई ब्रह्मा का आश्रय ग्रहण करता है। इस विषय में आपका क्या कहना है?
इस पर महाकाल उत्तर देते हैं कि एक बार पहले भी ऋषि-मुनियों ने नैमिषारण्य में वास करते हुए यह प्रश्न सूत जी से पूछा था। सूत जी ने अपनी दिव्य शक्ति से उन्हें पहले ब्रह्मलोक में, फिर वैकुण्ठ लोक में और फिर कैलास पर भेजा। वहां उन्होंने देखा कि ब्रह्मा जी विष्णु और शिव की उपासना कर रहे हैं। विष्णु जी ब्रह्मा और शिव की उपासना में मगन हैं। शिव जी विष्णु तथा ब्रह्मा के ध्यान में रत दिखाई दिए। तब ऋषियों ने जाना कि ये त्रिदेव एक ही परम शक्ति के रूप हैं, जो परस्पर एक-दूसरे को महान् समझते हैं। पुराणकार द्वारा व्यक्त की गई यह सद्भावना अति सुन्दर और स्तुति करने योग्य है।
अधिकांश पुराणों में 'बुद्धावतार' का नाम देने के अतिरिक्त उनकी कोई भी चर्चा नहीं की गई है। परन्तु 'स्कन्द पुराण' में उनका 'माया-मोह' के नाम से विस्तृत वर्णन किया गया है, जो पुराणकार की निष्पक्ष मनोवृत्ति की परिचायक है। कलियुग प्रसंग में बुद्ध का विस्तार से वर्णन है और उन्हें विष्णु का अवतार माना गया है। उनके माध्यम से 'अहिंसा' और 'सेवा भाव' का मार्ग प्रशस्त किया गया है'
वैष्णव खण्ड
वैष्णव खण्ड में वेंकटाचल माहात्म्य, वराह मन्त्र उपासना विधि, रामानुजाचार्य, भद्रमति ब्राह्मण की महिमा और चरित्र वर्णन वेंकटाचल तीर्थ का वर्णन, ब्रह्मा की प्रार्थना पर विष्णु का आविर्भाव, रथ निर्माण प्रकरण, जगन्नाथपुरी का रथ महोत्सव, बद्रिकाश्रम तीर्थ की महिमा, कार्तिक मास में होने वाले व्रतों की महिमा का वर्णन, स्नान माहात्म्य का उल्लेख, ज्ञान, वैराग्य एवं भक्ति का स्वरूप तथा कर्म योग आदि का निरूपण किया गया है।
वैष्णव खण्ड अत्यन्त उपयोगी है। इसमें विविध ज्ञान, पुण्य और मोक्ष का मार्ग् प्रशस्त करने का प्रयास किया गया है। इस खण्ड के गंगा, यमुना और सरस्वती खण्ड अत्यन्त पवित्र तथा उत्कृष्ट हैं। ये समस्त पापों को हरने वाले हैं। वेंकटाचल या भूमि वराह खण्ड में तिरूपति बालाजी के पावन तीर्थ के प्रादुर्भाव की कथा कही गई है। वहां की यात्रा के महत्त्व का प्रतिपादन किया गया है, जहां भगवान विष्णु निवास करते हैं।
आकाश गंगा तीर्थ का वर्णन करते हुए पुराणकार विष्णु और रामानुजाचार्य की भेंट कराते हैं। रामानुजाचार्य वैष्णव सम्प्रदाय के संस्थापक थे। राम की पूजा सारे भारत में स्थापित करने का श्रेय इन्हें जाता है। भगवान विष्णु रामानुजाचार्य को स्वयं बताते हैं कि सूर्य की मेष राशि में चित्रा नक्षत्र से युक्त पूर्णिमा को जो भी व्यक्ति आकाश गंगा तीर्थ में स्नान करेगा, उसे अनन्त पुण्य प्राप्त होंगे। भगवान के सच्चे भक्तों के लक्षण स्वयं विष्णु भगवान रामानुजाचार्य को बताकर उनका सम्मान करते हैं। यहाँ पुराणकार पूजा-पाठ और कर्मकाण्ड के बजाय सादा जीवन, सदाचार, अहिंसा, जीव-कल्याण, समभाव तथा परोपकार पर अधिक बल देता है।
'स्कन्द पुराण' कहता है कि ममता-मोह त्याग कर निर्मल चित्त से मनुष्य को भगवान के चरणों में मन लगाना चाहिए। तभी वह कर्म के बन्धनों से मुक्त हो सकता है। मन के शान्त हो जाने पर ही व्यक्ति योगी हो पाता है। जो व्यक्ति राग-द्वेष छोड़कर क्रोध और लोभ से दूर रहता है, सभी पर समान दृष्टि रखता है तथा शौच-सदाचार से युक्त रहता है; वही सच्चा योगी है। 'बद्रिकाश्रम' की महिमा का बखान करते हुए स्वयं शंकर जी कहते हैं कि इस तीर्थ में
- नारद शिला,
- मार्कण्डेय शिला,
- गरुड़ शिला,
- वराह शिला और
- नारसिंही शिला- ये पांच शिलाएं सम्पूर्ण मनोरथ सिद्ध करने वाली हैं। बद्रीनाथ प्रसिद्ध ब्रह्मतीर्थ है। यहाँ भगवान विष्णु ने ह्यग्रीव का अवतार लेकर मधु-कैटभ दैत्यों से वेदों को मुक्त कराया था।
इसी खण्ड में श्रावण और कार्तिक मास के माहात्म्य का वर्णन भी प्राप्त होता है। तदुपरान्त वैशाख मास का महात्म्य प्रतिपादित है। इस मास में दान का विशेष महत्त्व दर्शाना गया है। इसी खण्ड में अयोध्या माहात्म्य का वर्णन भी विस्तारपूर्वक किया गया है।
ब्रह्म खण्ड
ब्रह्म खण्ड में रामेश्वर क्षेत्र के सेतु और भगवान राम द्वारा बालुकामय शिवलिंग की स्थापना की महिमा गाई गई है। इस क्षेत्र के अन्य चौबीस प्रधान तीर्थों- चक्र तीर्थ, सीता सरोवर तीर्थ, मंगल तीर्थ, ब्रह्म कुण्ड, हनुमत्कुण्ड, अगस्त्य तीर्थ, राम तीर्थ, लक्ष्मण तीर्थ, लक्ष्मी तीर्थ, शिव तीर्थ, शंख तीर्थ, गंगा तीर्थ, कोटि तीर्थ, मानस तीर्थ, धनुषकोटि तीर्थ आदि की महिमा का वर्णन भी विस्तार से हैं तीर्थ माहात्म्य के उल्लेख के उपरान्त धर्म और सदाचार माहात्म्य का वर्णन भी किया गया है। ह्यग्रीव, कलिधर्म और चातुर्मास स्नान के महत्त्व का भी उल्लेख हुआ है।
अश्वत्थामा द्वारा सोते हुए पाण्डव पुत्रों के वध के पाप से मुक्ति पाने के लिए धनुषकोटि तीर्थ में स्नान करने की कथा कही गई है। इसी खण्ड में पंचाक्षर मन्त्र की महिमा का भी वर्णन है। भगवान शिव ने स्वयं ॐ नम: शिवाय नामक आद्य मन्त्र कहा था। जो व्यक्ति इस मन्त्र का उच्चारण करके शिव का ध्यान करता है; उसे किसी तीर्थ, किसी जप-तप अथवा व्रत आदि करने की आवश्यकता नहीं होतीं उक्त मन्त्र समस्त पापों का नाश करने वाला है। यह मन्त्र कभी भी, कहीं भी और कोई भी जप करता है। यह सभी का कल्याण करने वाला मन्त्र है।
काशी खण्ड
काशी खण्ड में तीर्थों, गायत्री महिमा, वाराणसी के मणिकर्णिका घाट का आख्यान, गंगा महिमा वर्णन, दशहरा स्तोत्र कथन, वाराणसी महिमा, ज्ञानवापी माहात्म्य, योगाख्यान, दशाश्वमेघ घाट का माहात्म्य, त्रिलोचन आविर्भाव वर्णन तथा व्यास भुजस्तम्भ आदि का उल्लेख किया गया है।
काशी के माहात्म्य का वर्णन करते हुए पुराणकार कहता है-
असि सम्भेदतोगेन काशीसंस्थोऽमृतो भवेत्।
देहत्यागोऽत्रवैदानं देहत्यागोऽत्रवैतप:॥ (स्कन्द पुराण-काशी खण्ड)
अर्थात् अनेक जन्मों से प्रसिद्ध, प्राकृत गुणों से युक्त तथा असि सम्भेद के योग से काशीपुरी में निवास करने से विद्वान पुरुष अमृतमय हो जाता है। वहां अपने शरीर का त्याग कर देना ही दान होता है। यही सबसे बड़ा तप है। इस पुरी में अपना शरीर छोड़ना बड़ा भारी योगाभ्यास है, जो मोक्ष तथा सुख देने वाला है। इसी प्रकार योग-साधना के विषय में पुराणकार कहता है-
आत्मक्रीडास्यसततं सदात्म मिथुनस्य च।
आत्मन्येव सुतृप्तस्य योगसिद्धिरदूरत: ॥ (स्कन्द पुराण 2/53/7)
अर्थात् निरन्तर अपनी आत्मा के ही साथ क्रीड़ा करने वाले, सदा आत्मा के ही साथ योग स्थापित रखने वाले तथा अपनी आत्मा में ही संतृप्त रहने वाले व्यक्ति को योग की सिद्धि प्राप्त करने में विलम्ब नहीं लगता। वह सिद्ध उससे कभी दूर नहीं होता।
काशीपुरी में पापकर्म करने वाला व्यक्ति पैशाच (प्रेत) योनि में जन्म लेता है। गाय की हत्या करने वाला, स्त्री का वध करने वाला, शूद्रों को मारने वाला, कथा को दूषित करने वाला, क्रूर, चुगलखोर, धर्म विरूऋ आचरण करने वाला, नास्तिक, पापी और अभक्ष्य को भी खाने वाला व्यक्ति त्रिलोचन भगवान शिव के लिंग का नमन करके पापमुक्त हो जाता है।
अवन्तिका खण्ड
अवन्तिका खण्ड में महाकाल प्रशंसा, अग्नि स्तवन, सिद्याधर तीर्थ, दशाश्वमेघ माहात्म्य, वाल्मीकेश्वर महिमा, गणेश महिमा, सोमवती तीर्थ, रामेश्वर तीर्थ, सौभाग्य तीर्थ, गया तीर्थ, नाग तीर्थ, गंगेश्वर, प्रयागेश्वर तीर्थ आदि का माहात्म्य; क्षिप्रा नदी की महिमा, विष्णु स्तोत्र, कुटुम्बेश्वर वर्णन, अखण्डेश्वर महिमा वर्णन, हनुमत्केश्वर महिमा, शंकरादित्य महिमा, विष्णु महिमा तथा अवन्तिका महिमा आदि का विस्तार से वर्णन है। अवन्तिका उज्जैन नगरी का प्राचीन नाम है।
अवन्तिका खण्ड में पवित्र नदियों- गंगा, यमुना, सरस्वती, नर्मदा, गोदावरी, वितस्ता, चन्द्रभागा आदि की महिमा भी गाई गई है। साथ ही अग्नि तुल्य 'महाकाल' की वन्दना की गई है। इस खण्ड में सनत्कुमार जी क्षिप्रा नदी के तट पर स्थित अवन्तिका तीर्थ की महिमा का वर्णन करते हुए कहते हैं कि इस तीर्थ के दर्शन मात्र से मनुष्य मोक्ष प्राप्त कर लेता है। इसी प्रकार अन्य तीर्थों की महिमा का उल्लेख भी इस खण्ड में प्राप्त होता है।
रेवा खण्ड
'स्कन्द पुराण' का रेवा खण्ड पुराण संहिता का विस्तारपूर्वक वर्णन करता है। इसके अतिरिक्त रेवा माहात्म्य, नर्मदा, कावेरी और संगम की महिमा, शूल भेद प्रशंसा, कालरात्रि कृत जगत् संहार वर्णन, सृष्टि संहार वर्णन, शिव स्तुति निरूपण, वराह वृत्तान्त, सत्यनारायण व्रत कथा वर्णन, रेवा खण्ड पुस्तक का दान महत्त्व तथा विविध तीर्थों, यथा- मेघनाद तीर्थ, भीमेश्वर तीर्थ, नारदेश्वर तीर्थ, दीर्घ स्कन्द और मधुस्कन्द तीर्थ, सुवर्ण शिला तीर्थ, करंज तीर्थ, कामद तीर्थ, भंडारी तीर्थ, स्कन्द तीर्थ, अंगिरस तीर्थ, कोटि तीर्थ, केदारेश्वर तीर्थ, पिशाचेश्वर तीर्थ, अग्नि तीर्थ, सर्प तीर्थ, श्रीकपाल तीर्थ एवं जमदग्नि तीर्थ आदि का विस्तृत वर्णन इस खण्ड में प्राप्त होता है।
स्कन्द तीर्थ के विषय में मार्कण्डेय मुनि कहते हैं कि नर्मदा महानदी के दक्षिण तट पर यह तीर्थ अत्यन्त शोभायमान है। इस तीर्थ की स्थापना भगवान स्कन्द ने घोर तपस्या करने के उपरान्त की थी। मार्कण्डेय ऋषि स्कन्द भगवान की कथा युधिष्ठर को सुनाते हुए उनके जन्म से लेकर तारकासुर के वध तक का वर्णन करते हैं। देवताओं के सेनापति बनने के पूर्व जिस स्थान पर कार्तिकेय ने तप किया था, वह स्थान स्कन्द तीर्थ के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
इसी प्रकार सभी तीर्थों की महिमा के साथ कोई न कोई कथा जुड़ी हुई है। हिमालय से लेकर कन्याकुमारी तक और अटक से लेकर कामाख्या देवी के मन्दिर तक कोई ऐसा प्रदेश इस भारतभूमि में नहीं है, जहां प्राचीनतम भारतीय संस्कृति का प्रतिनिधित्व करने वाला कोई तीर्थ न हो। काशी में शैव तीर्थ, अवन्तिका (उज्जैन नगरी) में महाकालेश्वर शिव की महिमा तथा नर्मदा तटवर्ती तीर्थों का विशद् वर्णन 'स्कन्द पुराण' में प्राप्त होता है। नर्मदा को शिव के पसीने से उत्पन्न माना जाता है। नर्मदा की महिमा गंगा के पावन जल की भांति ही मानी गई है।
इस पुराण में 'निष्काम कर्म योग' पर विशेष रूप से बल दिया गया है। धर्म का मुख्य लक्षण परपीड़ा निवारण होना चाहिए। इसी का उपदेश 'स्कन्द पुराण' देता है। वह बताता है कि 'मोक्ष' मानो एक नगर है, जिसके चार दरवाज़े हैं। शम, सद्विचार, सन्तोष औ सत्संग- इसके चार द्वारपाल हैं। इन्हें सन्तुष्ट करके ही इस नगर में प्रवेश पाया जा सकता है। सांसारिक बन्धनों में जकड़ने से बचे रहें, सम्भवत: इसीलिए कुमार कार्तिकेय जीवन भर वैवाहिक बन्धन में नहीं बंधे- ऐसा यह पुराण मानता है।
'स्कन्द पुराण' के दारूकवन उपाख्यान में शिवलिंग की महिमा का वर्णन है, जिसमें विष्णु और ब्रह्मा शिवलिंग का ओर-छोर सात आकाश तथा सात पाताल पार करने के उपरान्त भी नहीं जान पाते। इस अवसर पर ब्रह्मा का झूठ उन्हें स्तुति से वंचित करा देता है। उनके दो गवाह सुरभि गाय तथा केतकी का फूल अपवित्र हो गया और केतकी का पुष्प शिवलिंग पर चढ़ाने के लिए वर्जित माना गया। इस प्रसंग से विश्व निर्माता शक्ति के अनन्त रूप का भी प्रतिपादन होता है। इस पुराण की रचना के पीछे पुराणकार की यही मंशा रही होगी कि लोकमानस में जटिल कर्मकाण्डों के प्रति झुकाव न होकर सरल रूप से हरि संकीर्तन का मार्ग प्रशस्त हो। इसलिए पुराणकार ने राम नाम महिमा, शिव नाम महिमा और कृष्ण नाम महिमा का उल्लेख विस्तार से किया है। यदि इस पुराण को तीर्थों की निर्देशिका माना जाए तो अनुचित नहीं होगा।
'स्कन्द पुराण' के अरुणाचल रहस्य वर्णन में लगभग एक सौ चालीस महत्त्वपूर्ण और प्रसिद्ध ऋषि-मुनियों के नाम गिनाए गए हैं। ब्रह्मा के मानस पुत्र सनक, नारद, सनातन, सनत्कुमार, पुलह, पुलस्त्य, वसिष्ठ, भृगु, पराशर, व्यास, भारद्वाज, याज्ञवल्क्य, चरक, सुश्रुत आदि हैं। ऐसा लगाता है कि उस समय तक सभी प्रचलित और प्रसिद्ध नामों को यहाँ संकलित कर दिया गया है। इस पुराण मं 'अहिंसा', 'सदाचार' तथा 'परदुख कातरता' पर विशेष बल दिया गया है। दरिद्र, रोगी एवं विकलांग व्यक्तियों के प्रति जिनके मन में करुणा नहीं उत्पन्न होती, वे राक्षस हैं। जो व्यक्ति समर्थ होकर भी प्राण-संकट में पड़े जीव की सहायता नहीं करता, वह पापी है। नर्मदा नदी के तट पर 'आपस्तम्ब' नामक ऋषि और मछेरों द्वारा मछली पकड़ने के प्रसंग में इसी भावना का उत्तम वर्णन किया गया है।
'स्कन्द पुराण' में जितने तीर्थों का उल्लेख है, उतने तीर्थ आज देखने में नहीं आते। उनमें से अधिकांश तीर्थों का तो नामोनिशान तक मिट गया है और कुछ तीर्थ खण्डहरों में परिवर्तित हो चुके हैं। इस कारण समस्त तीर्थों का सही-सही पता लगाना अत्यन्त कठिन है। किन्तु जिन तीर्थों का माहात्म्य प्राचीन काल से चला आ रहा है, उनका अस्तित्व आज भी देखा जा सकता है। अपने माहात्म्य की दृष्टि से ये तीर्थ आज भी भव्य से भव्यतर रूप में देखे जा सकते हैं।
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