एहोल (अंग्रेज़ी: Aihole) कर्नाटक के बीजापुर में स्थित, बादामी के निकट, बहुत प्राचीन स्थान है। इसे एहोड़ और आइहोल के नाम से भी जाना जाता है। यहाँ से चालुक्य नरेश पुलकेशिन द्वितीय का 634 ई. का एक अभिलेख प्राप्त हुआ है। यह प्रशस्ति के रूप में है और संस्कृत काव्य परम्परा में लिखा गया है। इसका रचयिता जैन कवि रविकीर्ति था। इस अभिलेख में पुलकेशी द्वितीय की विजयों का वर्णन है। अभिलेख में पुलकेशी द्वितीय के हाथों हर्षवर्धन की पराजय का भी वर्णन है।
ऐतिहासिक महत्त्व
एहोल से रविकीर्ति द्वारा रचित जो अभिलेख मिला है, उसमें कवि ने कालिदास और भारवि के नामों का भी उल्लेख किया है-
'येनायोजि नवेश्म स्थिरमर्थविधौ विवेकिना जिनेवेश्म स विजयतां रविकीर्तिः कविताश्रित कालिदासभारवि कीर्तिः'।
इस अभिलेख में तिथि इस प्रकार दी हुई है-
'पंचाशत्मुकलौ काले षट्सु पंचशती सु च, समासु समतीतासु शकानामपि भूभुजाम्'।
इससे 556 शक संवत्=634 ई. प्राप्त होता है। इस प्रकर महाकवि कालिदास और भारवि का समय 634 ई. के पूर्व सिद्ध हो जाता है। इस अभिलेख में पुलकेशिन द्वारा अभिभूत लाट, मालव, और गुर्जर देश के राजाओं का उल्लेख है। एहोड़ में गुप्तकालीन कई मंदिरों के भग्नावशेष हैं। दुर्गा के मंदिर में पांचवी शती ई. की नटराज शिव की मूर्ति है। 450 ई. के चार मंदिरों के अवशेष भारत के सर्वप्राचीन मंदिरों के अवशेषों में से हैं। इन पर शिखर नहीं हैं। इनमें से स्तम्भ तीन वर्गों में, जो एक-दूसरे के भीतर बने हैं, विन्यस्त हैं। केंद्रीय चार स्तम्भों के ऊपर आधृत सपाट छत अपने चतुर्दिक् ढालू छत के ऊपर शिखर के ऊपर निकली हुई है, जो सबसे बाहर के वर्ग पर छायी हुई है। मंदिर के एक किनारे पर एक मंडप है और इससे दूसरे किनारे पर मूर्ति-स्थान है।[1]
श्री हेनरी कजिंस आर्क्यिअलॉजिकल रिपोर्ट 1907-1908 में लिखते हैं- "यह मंदिर अपनी विशालता, रचना की सरलता, नक्शे और वास्तुकला के विवरण, इन सब बातों में गुफ़ा मंदिरों से बहुत मिलता-जुलता है।" इस मंदिर की दीवारें साधारण दीवारों के समान नहीं हैं। वे स्तंभों और उनकी योजक जालीदार खिड़कियों सहित पतली भित्तियों से बनी हैं। सपाट छत और उस पर उत्सेध[2] का अभाव गुफ़ाओं की कला से ही संबंधित है। किंतु इससे भी अधिक समानता तो भारी वर्गाकार स्तम्भों और उनके शीर्षों के कारण दिखाई देती है। उपर्युक्त दुर्गा के मंदिर का नक्शा बौद्ध-चैत्य मंदिरों की ही भांति है, केवल धातुगर्भ के बजाय इसमें मूर्तिस्थान बना हुआ है। बौद्ध चैत्यों की भांति ही इसमें भी स्तम्भों की दो पंक्तियों द्वारा मंदिर के भीतर का स्थान मध्यवर्ती शाला तथा दो पार्श्ववर्ती वीथियों द्वारा विभक्त किया गया है। मंदिर पत्थर का बना हुआ है, इसलिये मेहराबों के लिये छतों में स्थान नहीं है; किंतु शिखर का आभास चैत्य संरचना की भांति ही बीच की छत ऊँची तथा पार्श्व की छतें नीची तथा कुछ ढलवां होने से होता है। स्तम्भों के ऊपर छत के भराव पर अनेक मूर्तियां तथा पर्णावलि आदि अंकित हैं, जो गुफ़ा मंदिरों के स्तंभों के ऊपरी भाग पर की गई रचना से बहुत मिलती-जुलती है।[3]
मन्दिरों के अवशेष
यहाँ हमें 70 मन्दिरों के अवशेष मिलते हैं। एहोल का भारतीय मन्दिर वास्तुकला की पाठशाला कहा गया है। इसे 'एहोल का नगर' भी कहा जाता है। एहोल के मन्दिरों से दक्षिण भारत के हिन्दू मन्दिर वास्तुकला के इतिहास को समझने में सहायता मिलती है। एहोल के चालुक्यकालीन तीन मन्दिर विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। उनके नाम लाड़खान मन्दिर, दुर्गा मन्दिर तथा हच्चीमल्लीगुड्डी मन्दिर हैं।
लाद खान मन्दिर
लाद खान मन्दिर 450 ई. में निर्मित माना जाता है। यह वर्गाकार है। नीची तथा सपाट छत वाले इस वर्गाकार भवन की प्रत्येक दीवार 50 फुट लम्बी है। यह मन्दिर अपनी विशालता, रचना की सरलता, नक्शे की वास्तुकला के विवरण, इन सब बातों में गुफा मन्दिरों से मिलता जुलता है।
दुर्गा मन्दिर
दुर्गा मन्दिर सम्भवतः छठी सदी का है। यह मन्दिर बौद्ध चैत्य को ब्राह्मण धर्म के मन्दिर के रूप में उपयोग में लाने का एक प्रयोग है। इस मन्दिर का ढाँचा अर्द्धवृत्ताकार है।
हच्चीमल्लीगुड्डी मन्दिर
हच्चीमल्लीगुड्डी मन्दिर बहुत कुछ दुर्गा मन्दिर से मिलता-जुलता है। यद्यपि यह उससे बनावट में अधिक सरल तथा आकार में छोटा है। भीतरी कक्ष तथा मुख्य हॉल के बीच अन्तराल इसकी एक नई विशेषता है।
जैन मन्दिर
एहोल में सबसे बाद में बनने वाले मन्दिरों में मेगुती जैन मंदिर है, जो कि 634 ई. का है। यह मन्दिर अभी अधूरा है।
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