बलदेव मथुरा
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विवरण | बलदेव मथुरा से 21 कि.मी. की दूरी पर एटा, मथुरा मार्ग के मध्य में स्थित है। मार्ग के बीच में गोकुल एवं महावन पड़ते हैं, जो कि पुराणों में वर्णित 'वृहद्वन' के नाम से विख्यात हैं। यह स्थान पुराणोक्त 'विद्रुमवन' के नाम से निर्दिष्ट है। | ||
राज्य | उत्तर प्रदेश | ||
ज़िला | मथुरा | ||
प्रसिद्धि | हिन्दू धार्मिक स्थल | ||
कब जाएँ | कभी भी | ||
बस, कार, ऑटो आदि | |||
कहाँ ठहरें | गैस्ट हाउस, धर्मशाला आदि | ||
एस.टी.डी. कोड | 05263 | ||
संबंधित लेख | नन्दगाँव, गोकुल, बरसाना, मथुरा, वृन्दावन, काम्यवन, लट्ठमार होली, बलदेव मन्दिर मथुरा | पिन कोड | 281301 |
अन्य जानकारी | मन्दिर के पीछे एक विशाल कुण्ड है, जो कि 'बलभद्र कुण्ड' के नाम से पुराण में वर्णित है। आजकल इसे 'क्षीरसागर' के नाम से पुकारते हैं। | ||
अद्यतन | 13:26, 24 जुलाई 2016 (IST)
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बलदेव स्थान मथुरा जनपद में ब्रजमंडल के पूर्वी छोर पर स्थित है। मथुरा से 21 कि.मी. की दूरी पर एटा-मथुरा मार्ग के मध्य में यह स्थित है। मार्ग के बीच में गोकुल एवं महावन, जो कि पुराणों में वर्णित 'वृहद्वन' के नाम से विख्यात हैं, पड़ते हैं। यह स्थान पुराणोक्त 'विद्रुमवन' के नाम से निर्दिष्ट है।
बलराम प्रतिमा
विद्रुभवन में भगवान श्री बलराम जी की अत्यन्त मनोहारी विशाल प्रतिमा तथा उनकी सहधर्मिणी राजा ककु की पुत्री ज्योतिष्मती रेवती जी का विग्रह है। यह एक विशालकाय देवालय है, जो कि एक दुर्ग की भाँति सुदृढ प्राचीरों से आवेष्ठित है। मन्दिर के चारों ओर सर्प की कुण्डली की भाँति परिक्रमा मार्ग में एक पूर्ण पल्लवित बाज़ार है। इस मन्दिर के चार मुख्य दरवाज़े हैं, जो क्रमश: निम्नलिखित हैं-
- सिंहचौर
- जनानी ड्योढी
- गोशाला द्वार
- बड़वाले दरवाज़ा
मन्दिर के पीछे एक विशाल कुण्ड है, जो कि 'बलभद्र कुण्ड' के नाम से पुराण में वर्णित है। आजकल इसे 'क्षीरसागर' के नाम से पुकारते हैं।
ऐतिहासिक तथ्य
मगधराज जरासंध के राज्य की पश्चिमी सीमा यहाँ लगती थी, अत: यह क्षेत्र कंस के आतंक से प्राय: सुरक्षित था। इसी निमित्त नन्दबाबा ने बलदेव जी की माता रोहिणी को बलदेव जी के प्रसव के निमित इसी विद्रुमवन में रखा था और यहीं बलदेव जी का जन्म हुआ, जिसके प्रतीक रूप रीढ़ा[1] दोनों ग्राम आज तक मौजूद हैं।
औरंगज़ेब की कुदृष्टि
धीरे-धीरे समय बीतता रहा और बलदेव जी की ख्याति एवं वैभव भी निरन्तर बढ़ता गया। एक समय वह भी आ गया, जब धर्माद्वेषी मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब का हिंदुस्तान पर शासन रहा, जिसका मात्र संकल्प समस्त हिन्दू देवी-देवताओं की मूर्ति भंजन एवं देवस्थान को नष्ट-भ्रष्ट करना था। मथुरा के केशवदेव मन्दिर एवं महावन के प्राचीनतम देवस्थानों को नष्ट-भ्रष्ट करता आगे बढ़ा तो उसने बलदेव जी की ख्याति सुनी व निश्चय किया कि क्यों न इस मूर्ति को तोड़ दिया जाय। फलत: मूर्ति भंजनी सेना को लेकर वह आगे बढ़ा। कहते हैं कि सेना निरन्तर चलती रही, जहाँ भी पहुँचते बलदेव की दूरी पूछने पर दो कोस ही बताई जाती, जिससे उसने समझा कि निश्चय ही बल्देव कोई चमत्कारी देव विग्रह है, किन्तु वह अधमोन्मार्द्ध सेना लेकर बढ़ता ही चला गया, जिसके परिणामस्वरूप कहते हैं कि भौरों और ततइयों (बर्र) का एक भारी झुण्ड उसकी सेना पर टूट पड़ा, जिससे सैकड़ों सैनिक एवं घोड़े उनके देश के आहत होकर काल कवलित हो गये। औरंगजेब के अंत:मन ने देवालय का प्रभाव पहचान लिया और उसने शाही फ़रमान ज़ारी किया, जिसके द्वारा मंदिर को 5 गाँव की माफी एवं एक विशाल नक्कारख़ाना निर्मित कराकर प्रभु को भेंट किया एवं नक्कारख़ाना की व्यवस्था हेतु धन प्रतिवर्ष राजकोष से देने के आदेश प्रसारित किया। वहीं नक्कारख़ाना आज भी मौजूद है और यवन शासक की पराजय का मूक साक्षी है।
इसी फरमान-नामे का नवीनीकरण उसके पौत्र शाहआलम ने सन 1196 फ़सली की ख़रीफ़ में दो गाँव और बढ़ाकर यानि 7 गाँव कर दिया, जिनमें खड़ेरा, छवरऊ, नूरपुर, अरतौनी, रीढ़ा आदि, जिसको तत्कालीन क्षेत्रीय प्रशासक (वज़ीर) नज़फ ख़ाँ बहादुर के हस्ताक्षर से शाही मुहर द्वारा प्रसारित किया गया तथा स्वयं शाहआलम ने एक पृथक् से आदेश चैत सुदी 3 संवत 1840 को अपनी मुहर एवं हस्ताक्षर से जारी किया। शाहआलम के बाद इस क्षेत्र पर सिंधिया राजवंश का अधिकार हुआ। उन्होंने सम्पूर्ण जागीर को यथास्थान रखा एवं पृथक् से 'भोगराग माखन मिश्री' एवं मंदिर के रख-रखाव के लिये राजकोष से धन देने की स्वीकृति दिनांक भाद्रपद-वदी चौथ संवत 1845 को गोस्वामी कल्याण देवजी के पौत्र गोस्वामी हंसराजजी, जगन्नाथजी को दी। यह सारी जमींदारी आज भी मंदिर श्री दाऊ जी महाराज एवं उनके मालिक कल्याण वंशज, जो कि मंदिर के पण्डा पुरोहित कहलाते हैं, उनके अधिकार में है। मुग़ल काल में एक विशिष्ट मान्यता यह थी कि सम्पूर्ण महावन तहसील के समस्त गाँवों में से श्री दाऊजी महाराज के नाम से पृथक् देव स्थान खाते की माल गुजारी शासन द्वारा वसूल कर मंदिर को भेंट की जाती थी, जो मुग़लकाल से आज तक शाही ग्रांट के नाम से जानी जाती है, सरकारी ख़ज़ाने से आज तक भी मंदिर को प्रतिवर्ष भेंट की जाती है।
ब्रिटिश शासन
इसके बाद अंग्रेज़ों का ज़माना आया। मन्दिर सदैव से देश भक्तों के जमावड़े का केन्द्र रहा। उनकी सहायता एवं शरण-स्थल का एक मान्य-स्रोत भी। जब ब्रिटिश शासन को पता चला तो उन्होंने मन्दिर के मालिकान पण्डों को आगाह किया कि वे किसी भी स्वतन्त्रता प्रेमी को अपने यहाँ शरण न दें परन्तु आत्मीय सम्बन्ध एवं देश के स्वतन्त्रता प्रेमी मन्दिर के मालिकों ने यह हिदायत नहीं मानी, जिससे चिढ़कर अंग्रेज़ शासकों ने मन्दिर के लिये जो जागीरें भूमि एवं व्यवस्थाएं पूर्व शाही परिवारों से प्रदत्त थी उन्हें दिनांक 31 दिसम्बर सन 1841 को स्पेशल कमिश्नर के आदेश से कुर्की कर जब्त कर लिया गया और मन्दिर के ऊपर पहरा बिठा दिया जिससे कोई भी स्वतन्त्रता प्रेमी मन्दिर में न आ सके, परन्तु क़िले जैसे प्राचीरों से आवेष्ठित मन्दिर में किसी दर्शनार्थी को कैसे रोक लेते? अत: स्वतन्त्रता संग्रामी दर्शनार्थी के रूप में आते तथा मन्दिर में निर्बाध चलने वाले सदावर्त एवं भोजन व्यवस्था का आनन्द लेते ओर अपनी कार्य-विधि का संचालन करके पुन: अभीष्ट स्थान को चले जाते। अत: प्रयत्न करने के बाद भी स्वतंत्रता संग्राम प्रेमियों को शासन न रोक पाया।
मान्यताएं
बलदेव एक ऐसा तीर्थ है, जिसकी मान्यताएं हिन्दू धर्मावलम्बी करते आये हैं। धर्माचार्यों में श्रीमद वल्लभाचार्य जी के वंश की तो बात ही पृथक् है। निम्बार्क, माध्व, गौड़ीय, रामानुज, शंकर कार्ष्णि, उदासीन आदि समस्त धर्माचार्यों, में बलदेव जी की मान्यताएं हैं। सभी नियमित रूप से बलदेव जी के दशनार्थ पधारते रहे हैं और यह क्रम आज भी जारी है।
ग्राउस के अनुसार
इसके साथ ही एक धक्का ब्रिटिश राज में मंदिर को तब लगा, जब एफ. एस. ग्राउस यहाँ का कलेक्टर नियुक्त हुआ। ग्राउस महोदय का विचार था कि बलदेव जैसे प्रभावशाली स्थान पर एक चर्च का निर्माण कराया जाय; क्योंकि बलदेव उस समय एक मूर्धन्य तीर्थ स्थल था। अत: उसने मंदिर की बिना आज्ञा के चर्च निर्माण प्रारम्भ कर दिया। शाही जमाने से ही मंदिर की 256 एकड़ भूमि में मंदिर की आज्ञा के बगैर कोई व्यक्ति किसी प्रकार का निर्माण नहीं करा सकता था। क्योंकि उपर्युक्त भूमि के मालिक ज़मींदार श्री दाऊजी हैं तो उनकी आज्ञा के बिना कोई निर्माण कैसे हो सकता था? परन्तु उन्मादी ग्राउस महोदय ने बिना कोई परवाह किये निर्माण कराना शुरू कर दिया। मंदिर के मालिकान ने उसको बलपूर्वक ध्वस्त करा दिया, जिससे चिढ़ कर ग्राउस ने पंडा वर्ग एवं अन्य निवासियों को भारी आतंकित किया। आगरा के एक मूर्धन्य सेठ एवं महाराज मुरसान के व्यक्तिगत प्रभाव का प्रयोग कर वायसराय से भेंट कर ग्राउस का स्थानान्तरण बुलन्दशहर कराया गया। जिस स्थान पर चर्च का निर्माण कराने की ग्राउस की हठ थी, उसी स्थान पर आज वहाँ 'बेसिक प्राइमरी पाठशाला' है, जो 'पश्चिमी स्कूल' के नाम से जानी जाती है। यह ग्राउस की पराजय का मूक साक्षी है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ रोहिणेयक ग्राम का अपभ्रंश तथा अबैरनी, बैर रहित क्षेत्र
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