यह तैत्तिरीय शाखा का दूसरा श्रौतसूत्र है। सत्याषाढ (हिरण्यकेशिसूत्र) की महादेवकृत 'वैजयन्ती' टीका के मंगल में तैत्तिरीय शाखा के कल्पाचार्यों की वन्दना की गई है। उसमें बौधायन के बाद भरद्वाज का नाम है। परम्परा से भरद्वाज और भारद्वाज– इन दोनों शब्दों के प्रयोग मिलते हैं। भारद्वाज शब्द का प्रयोग अधिक प्राचीन है। स्वयं भारद्वाज गृह्यसूत्र[1] में आचार्य भरद्वाज का निर्देश है–'भारद्वाजाय सूत्रकाराय।'
सूची
उपलब्ध श्रौतसूत्र में निम्नलिखित विषयों का वर्णन है:–
प्रश्न | विषय |
1–4. | दर्शपूर्णमास |
5. | अग्न्याधेय |
6. | अग्निहोत्र, आग्रयण |
7. | निरूढपशु |
8. | चातुर्मास्ययाग |
9. | पूर्वप्रायश्चित्त |
10–14. | ज्योतिष्टोम, प्रवर्ग्य |
15. | ज्योतिष्टोम ब्रह्मत्व |
सूत्रग्रन्थ
जैसा कि उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है, यह सूत्रग्रन्थ प्रश्नों में विभक्त है। प्रत्येक प्रश्न में कुछ कण्डिकाएँ हैं और कण्डिकाओं में सूत्र हैं। यह सूत्रग्रन्थ है, प्रवचन नहीं है। सूत्रारम्भ में विध्यंश है और बाद में मन्त्र। बौधायन श्रौतसूत्र की अपेक्षा इसमें अनेक तैत्तिरीय शाखीय विषयों का अभाव होने से अपूर्ण प्रतीत होता है। प्रमाणपुरस्सर कहा जा सकता है कि कदाचित् पहले यह सूत्रग्रन्थ पूर्ण था, जिसके अप्रकाशित अंशों के हस्तलेख परम्परा का लोप होने से नष्ट हो गए। सौभाग्य से इसके प्रमाण अन्य सूत्रग्रन्थों में, उनके भाष्यों और प्रयोगों में मिलते हैं। डॉ. रघुवीर ने अपने संस्करण में भारद्वाज श्रौतसूत्र के उन प्रकरणों का संग्रह किया है, जो उन्हें आपस्तम्ब श्रौतसूत्र के रुद्रदत्तकृत भाष्य में और सत्याषाढ सूत्र की महादेवकृत 'वैजयन्ती' में मिले। डॉ. काशीकर ने भी अपने संस्करणों में इन उद्धरणों का संकलन कर उन्हें प्रकाशित किया है। इन प्रकरणों (उद्धरणों) में दाक्षायण यज्ञ, इष्टिहोत्र, काम्य पशुयाग, सोमयाग, प्रायश्चित्त, पश्वैकादशिनी, अग्निचयन और अश्वमेध का निरूपण है। इससे स्पष्ट है कि मूल श्रौतसूत्र में ये विषय अन्तर्भूत थे। नवम प्रश्न में अग्निहोत्र और इष्टि सम्बन्धी प्रायश्चित्त समाविष्ट हैं। इसी कारण उसे पूर्व प्रायश्चित्त कहा गया है। अन्य विषय सम्बन्धी प्रायश्चित्त निरूपक भारद्वाज सूत्र के उद्धरण मिलने से अनुमान होता है कि इस सूत्रग्रन्थ में 'उत्तरप्रायश्चित्त' संज्ञक एक प्रश्न था।
भरद्वाज ने संहिता, ब्राह्मण और आरण्यक इन तीनों ग्रन्थों के मन्त्रों का विनियोग किया है। भरद्वाज ने तीसरे काण्ड के मन्त्रों का विनियोग उचित स्थान पर दिया है। उनके सामने सारस्वत पाठ प्रतिष्ठित रूप में था, इस कारण आवश्यकता के अनुरूप वह मन्त्रों का निर्देश 'अनुवाक' या 'अनुवाशकशेष' शब्दों से करते हैं। कभी–कभी 'इति प्रतिपद्य ... इत्यन्ते' (यहाँ से वहाँ तक) रूप में भी निर्देश है। भारद्वाज सूत्रों में ब्राह्मण ग्रन्थों के उद्धरण भी मिलते हैं। इन्हें उद्धृत करके अन्त में 'इति विज्ञायते' का उल्लेख है। इस सम्बन्ध में कभी–कभी 'ब्राह्मण–व्याख्यातम्' या 'यथा समाम्नातम्' शब्दों का भी प्रयोग किया गया है। बौधायन श्रौतसूत्र के विपरीत भारद्वाज ने तैत्तिरीय ब्राह्मण[2] के अच्छिद्र काण्ड में से भी कुछ मन्त्रों का विनियोग किया है। उपलब्ध भारद्वाज सूत्र में हौत्र का कोई अंश नहीं है।
अग्निष्टोम या ज्योतिष्टोम
प्रवर्ग्य विधि सोमयाग के अंगरूप में की जाती है। उसका स्थान कहाँ होना चाहिए, इस विषय में यजुर्वेदीय सूत्रों में कोई नियम नहीं है। बहुधा अग्निष्टोम या ज्योतिष्टोम के पश्चात् इसका विवरण स्वतन्त्र प्रश्न में दिया गया है। भारद्वाज सूत्र की हस्तलिखित प्रतियों में और प्रकाशित संस्करण में भी वह ज्योतिष्टोम के मध्य में दिया गया है। इस प्रकार भारद्वाज सूत्र में प्रवर्ग्य विधि स्वतन्त्र प्रश्न में वर्णित है। प्रतीत होता है कि किसी हस्तलेख के लेखक ने अपनी सुविधा के लिए उसे ज्योतिष्टोम के मध्य में रख दिया जिसका अनुसरण अन्य लोगों ने किया, क्योंकि वस्तुत: प्रवर्ग्य का स्थान ज्योतिष्टोम के अन्त में होना चाहिए, न कि अनुष्ठान–क्रम को खण्डित करते हुए मध्य में।
मन्त्र और संहिता
भरद्वाज सूत्र अपनी तैत्तिरीय शाखा के साथ अन्य शाखाओं से भी मन्त्र लेकर उनका विनियोग बतलाता है। उसने काण्ड और मैत्रायणीय शाखाओं से भी मन्त्र लिए हैं। वाजसनेय संहिता के भी कुछ मन्त्र उसमें मिलते हैं। चार ऋचाएँ उसमें शौनकीय अथर्ववेद से भी उद्धृत हैं। इनमें से अधिकाशं उद्धरण भारद्वाज और आपस्तम्ब सूत्र में समान हैं। हाँ, एक अन्तर अवश्य है। आपस्तम्ब श्रौतसूत्र में जहाँ ‘वाजसनेयक’ अथवा 'वाजसननेयिन्' के निर्देश के साथ कुछ मत प्रदर्शित हैं, वहीं भारद्वाज सूत्र में एक बार भी इस प्रकार का निर्देश नहीं मिलता। एक बात और ध्यान देने की है। कुछ स्थलों में भारद्वाज सूत्र जहाँ काठक और मैत्रायणीय संहिता का मन्त्र विनियुक्त करता है, वहीं आपस्तम्ब सूत्र तैत्तिरीय या वाजसनेय संहिता का आश्रय लेता है।
वेद
वेदों के कर्मकाण्ड में जो विभिन्न परम्पराएँ निर्मित हुईं, उनके कारण का सन्धान विविध ऐतिहासिक और भौगोलिक स्थितियों में करना चाहिए। पहले प्रत्येक वेद के शाकल, बाष्कल प्रभृति विभिन्न चरण हुए, फिर उनके आधार पर विभिन्न सम्प्रदाय स्थापित हुए, जो शाखाओं के रूप में विद्यमान हैं। सामान्यत: यह कहा जा सकता है कि जिस विषय में ब्राह्मणोक्त विधि स्पष्ट नहीं है, वहाँ सूत्रों में परस्पर मतभेद दिखलाई पड़ते हैं। यों ब्राह्मणों में भी भिन्न–भिन्न अनुष्ठान विषयक मत व्यक्त करने वाले आचार्यों के नाम मिलते हैं। ‘क्वचित्, एके, अपरे’ प्रभृति शब्दों द्वारा इस मत–वैभिन्न्य का प्रकाशन हुआ है। भारद्वाज श्रौतसूत्र में आश्मरथ्य और आलेखन इन दो आचार्यों के नाम कुछ बार आए हैं जो विधि के सम्बन्ध में विभिन्न मत व्यक्त करते हैं। भारद्वाज परिशेष सूत्र और भारद्वाज गृह्यसूत्र में भी इनके विभिन्न मतों का निर्देश मिलता है। भारद्वाज सूत्र के अतिरिक्त आपस्तम्ब श्रौतसूत्र, सत्याषाढ सूत्र, आश्वलायन श्रौतसूत्र, बौधायन प्रवरसूत्र, अथर्व प्रायश्चित्तानि तथा पूर्वमीमांसा सूत्र में भी इन दो आचार्यों के विभिन्न मत उद्धृत हैं। इनके अध्ययन से यह निष्कर्ष निकलता है कि प्राय: आश्मरथ्य का मत परम्परा के अनुकूल होता है और आलेखन का मत सुविधा की प्रधानता के अनुरूप होता है। भारद्वाज परिशेष सूत्र का द्वितीय प्रशोजन है कि एक ओर यह भारद्वाज भारद्वाज श्रौतसूत्र का परिशिष्ट है तथा दूसरी ओर परिभाषाओं का संग्रह है। कुल 222 सूत्रों में से 102 परिभाषा स्वरूप हैं, तथा 9 अनुग्रह रूवरूप तथा शेष परिशिष्ट प्रकार के हैं। परिशिष्ट सूत्र मूल सूत्रों को लेकर प्रवृत्त होते हैं। परिशेष सूत्र में आश्मरथ्य और आलेखन के साथा बादरायण और औडुलोमि के नाम आते हैं। कुछ सूत्र ब्राह्मण वाक्य सदृश हैं। हस्तलेखों में प्राप्त संकेतों से अनुमान होता है कि परिभाषा सूत्र कंडिकाओं में विभक्त था। सूत्रों में से एक तिहाई ऊसे सूत्र हैं, जिनके विषय उपलब्ध भारद्वाज सूत्र में नहीं हैं। परिशेष सूत्र का अधिकार भारद्वाज श्रौतसूत्र के ही समान रहा है। इसका प्रमाण यह है कि तैत्तिरीय शाखा के सूत्रों के टीकाकारों ने परिशेष और श्रौतसूत्र दोनों के ही सूत्रों का निर्देश भारद्वाज के नाम से ही किया गया है। परिशेष सूत्र के विषयक्रम के संकीर्ण होने से प्रतीत होता है कि यह एक आचार्य की कृति नहीं है। इसके प्रणयन में अनेक रचनाकारों ने योगदान किया होगा।
श्रौतसूत्र तथा गृह्यसूत्र
- भारद्वाज रचित श्रौतसूत्र तथा गृह्यसूत्र; दोनों की एक ही शैली है। इससे निष्कर्ष निकलता है कि दोनों की रचना एक ही व्यक्ति ने की थी। भारद्वाज पैतृमेधिक सूत्र का भी श्रौतसूत्र से साधर्मय है। अत: इसे भी उसी रचनाकार की कृति मानना उपयुक्त है।
- भारद्वाज श्रौतसूत्र में ब्राह्मण ग्रन्थों की भाषा–शैली के बहुत प्रयोग मिलते हैं। प्राकृत भाषा के अंश भी इसमें मिलते हैं।
- भारद्वाज श्रौतसूत्र के पर्युक्त परिचय से इसकी प्राचीनता सुस्पष्ट है। बौधायन और भारद्वाज सूत्रों में कुछ बातें समान हैं तथा कुछ में भिन्नता भी है। भारद्वाज बौधायन के सदृश विस्तार से विषयों का प्रतिपादन नहीं करते और न ही मन्त्रों को पूर्ण रूप से उद्धृत करते हैं। जहाँ तक भारद्वाज सूत्र का विस्तार है, वहीँ तक बौधायन और भारद्वाज के विषयक्रम में भिन्नता है। दर्शपूर्णमासेष्टि में ब्रह्मत्व में ज्योतिष्टोम के पूर्व प्रायश्चित्तों का विधान है। बौधायन में सभी प्रायश्चित्त अन्त में एकत्र दिए गए हैं। भारद्वाज में प्रवर्ग्यप्रश्न को हस्तलेखों के लेखकों ने ज्योतिष्टोम के मध्य में सम्मिलित कर दिया है।
- बौधायन की अपेक्षा आपस्तम्ब श्रौतसूत्र से भारद्वाज की रचना–शैली अधिक मिलती है। दोनों में विषयों का क्रम प्राय: समान है। इतना ही नहीं, सूत्रों और शब्द–प्रयोगों में भी बहुधा साम्य है। आपस्तम्ब की अपेक्षा भारद्वाज की रचना–शैली कुछ शिथिल है। इन प्रमाणों से यह स्पष्ट है कि भारद्वाज का समय बौधायन के पश्चात् और आपस्तम्ब के पूर्व है। भारद्वाज ने सम्भवत: ई. पू. 550 के आस–पास अपना श्रौतसूत्र रचा होगा।
- भारद्वाज सूत्र में मैत्रायणीय संहिता से मन्त्र उद्धृत किए गए हैं। इस संहिता का भौगोलिक क्षेत्र कुरूपाञ्चाल प्रदेश में था। भारद्वाज गृह्यसेत्र में यमुना नदी का निर्देश मिलता है। इससे स्पष्ट है कि भारद्वाज का स्थान कुरु-पांचाल में यमुना नदी के प्रदेश में था। इस शाखा के अनुयायी आन्ध्र प्रदेश और तमिलनाडु में थे। इस शाखा के हस्तलेख भी इन्हीं प्रदेशों में मिले हैं। प्रतीत होता है कि इस शाखा के इने–गुने अनुयायी ही शेष हैं।
संस्करण
- भारद्वाज श्रौतसूत्र के प्रथम 11 प्रश्न समग्र रूप से और 12वें प्रश्न का कुछ अंश सर्वप्रथम डॉ. रघुवीर ने ‘जर्नल ऑफ वैदिक स्टडीज़’ भाग 1–2, में लाहौर से सन् 1934 में प्रकाशित किया गया था।
- सन् 1964 में डॉ. चिं. ग. काशीकर के द्वारा अनेक हस्तलेखों के आधार पर पुन: सम्पादित तथा अंग्रेज़ी में अनूदित रूप में पितृमेध और परिशेष सूत्र सहित वैदिक संशोधन मण्डल, पुणे से दो भागों में प्रकाशित इस संस्करण का उपोद्घात अत्यन्त शोधपूर्ण सामग्री से संवलित है।