रमा एकादशी
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अनुयायी | हिन्दू |
उद्देश्य | इस एकादशी का व्रत करने से जीवन में वैभव और अंत में मोक्ष की प्राप्ति होती है। |
प्रारम्भ | पौराणिक काल |
तिथि | कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी |
धार्मिक मान्यता | इस दिन केशव भगवान का संपूर्ण विधि विधान से पूजा कर के नैवेद्य और आरती कर के प्रसाद बांटना चाहिए। अपनी सामर्थ्यानुसार ब्राह्मण को भोजन कराकर दक्षिणा देनी चाहिए। |
अन्य जानकारी | दीपावली के चार दिन पूर्व पड़ने वाली इस एकादशी को लक्ष्मी जी के नाम पर 'रमा एकादशी' कहा जाता है। |
रमा एकादशी (अंग्रेज़ी:Rama Ekadashi) कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी के दिन पड़ती हैं। दीपावली के चार दिन पूर्व पड़ने वाली इस एकादशी को लक्ष्मी जी के नाम पर 'रमा एकादशी' कहा जाता है। इस एकादशी के प्रभाव से ब्रह्महत्या जैसे महापाप भी दूर हो जाते हैं और ईश्वर के चरणों में जगह मिलती है। इस दिन केशव भगवान का संपूर्ण विधि विधान से पूजा कर के नैवेद्य और आरती कर के प्रसाद बांटना चाहिए। अपनी सामर्थ्यानुसार ब्राह्मण को भोजन कराकर दक्षिणा देनी चाहिए।
व्रत और विधि
इस दिन भगवान विष्णु के पूर्णावतार श्रीकृष्ण के केशव रूप की पूजा अराधना की जाती है। इस दिन भगवान केशव का संपूर्ण वस्तुओं से पूजन, नैवेद्य तथा आरती कर प्रसाद वितरण करें व ब्राह्मणों को भोजन कराएँ। इस एकादशी का व्रत करने से जीवन में वैभव और अंत में मोक्ष की प्राप्ति होती है।
व्रत की कथा
एक समय मुचकुन्द नाम का एक राजा रहता था। वह बड़ा दानी और धर्मात्मा था। उसे एकादशी व्रत का पूरा विश्वास था। वह प्रत्येक एकादशी व्रत को करता था तथा उसके राज्य की प्रजा पर यह व्रत करने का नियम लागू था। उसके एक कन्या थी जिसका नाम था- चंद्रभागा। वह भी पिता से ज़्यादा इस व्रत पर विश्वास करती थी।
उसका विवाह राजा चन्द्रसेन के पुत्र शोभन के साथ हुआ। वह राजा मुचकुन्द के साथ ही रहता था। एकादशी आने पर सभी ने व्रत किए, शोभन ने भी एकादशी का व्रत किया। परन्तु दुर्बल और क्षीणकाय होने से भूख से व्याकुल हो मृत्यु को प्राप्त हो गया।
इससे राजा-रानी और चन्द्रभागा अत्यंत दुखी हुए। इधर शोभन को व्रत के प्रभाव से मंदराचल पर्वत पर स्थित देवनगरी में आवास मिला। वहाँ उसकी सेवा में रमादि अप्सराएँ थीं।
एक दिन राजा मुचकुन्द टहलते हुए मंदरांचल पर्वत पर पहुंच गए तो अपने दामाद को सुखी देखा। घर आकर सारा वृतांत अपनी पत्नी व पुत्री को बताया। पुत्री यह सब समाचार सुन अपने पति के पास चली गई। फिर दोनों सुखपूर्वक रम्भादि अप्सराओं की सेवा लेते हुए सुखपूर्वक रहने लगे।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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