वाराह श्रौतसूत्र

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कृष्णयजुर्वेद की मैत्रायणी शाखा से सम्बद्ध वाराह श्रौतसूत्र कलेवर में लघु तथा कानक्रम से पश्चातवर्ती होने पर भी श्रौत साहित्य में अपना विशिष्ट स्थान रखता है। यह श्रौतसूत्र तीन अध्यायों में विभक्त है– प्राक्सोमिक, अग्निचयन तथा वाजपेय। इन अध्यायों का अवान्तर वर्गीकरण खण्डों तथा सूत्रों में किया गया है। वाराह श्रौतसूत्र में अग्निचयन, दर्शपौर्णमास, अग्न्याधान, पुनराधान, अग्निहोत्र, पशुबन्ध, चातुर्मास्य, वाजपेय, द्वादशाह, गवामयन, राजसूय, अश्वमेध एवं सौत्रामणी आदि यज्ञों का निरूपण है।

पारिभाषिक सूत्रों

वाराह श्रौतसूत्र के प्रथम भाग के प्रथम अध्याय में पारिभाषिक सूत्रों का संकलन है। इसमें रथकार को भी यज्ञ का अधिकार दिया गया है। यहाँ ऋत्विजों की योग्यता पर भी प्रकाश डाला गया है। इस श्रौतसूत्र के आरम्भ में अग्न्याधानेष्टि का वर्णन है। इस प्रसंग में विभिन्न सम्भारों, यथा– वाराहविहित, वल्मीक वपा आदि का निरूपण हुआ है। मानव की ही भाँति इस श्रौतसूत्र में अग्न्याधान में ब्रह्मौदन तथा व्रतोपायन के नियमों का उल्लेख है। चारों ऋत्विजों को भिन्न–भिन्न दक्षिणा देने का विधान अग्न्याधान की समाप्ति पर किया गया है। अग्न्याधान के प्रसंग में इस श्रौतसूत्र में अग्निपवमान, पावक तथा शुचि; इन तीनों इष्टियों का वर्णन है। शरद् में वैश्य को, वर्षा में रथकार को तथा अन्य वर्णों को शिशिर ऋतु में अग्न्याधान करना चाहिए। अग्न्याधान के विफल होने और अभीष्ट फल की प्राप्ति न होने पर पुनराधानेष्टि का विधान किया गया है। पुनराधानेष्टि में अग्नि वैश्वानर के लिए द्वादशक–पालक उत्सादनीयेष्टि का निर्वाप किया जाता है। पुनराधान वर्षा अथवा शरद् ऋतु में रोहिणी, अनुराधा तथा पुनर्वसु में से किसी एक नक्षत्र में किया जा सकता है। पूर्णाहुति से पूर्व संततिहोम करना तथा दक्षिणा में स्वर्ण देना चाहिए।

हविर्द्रव्य

अग्निहोत्र प्रात: तथा सांयकाल अग्नि को उद्दिष्ट कर सम्पादित करना चाहिए। कामनानुसार हविर्द्रव्य का विधान है। पशु कामना में दुग्ध से, ग्राम कामना में जौ से, तेजस् कामना में आज्य से, इन्द्रिय कामना में दधि से तथा बल कामना में तण्डुल से अग्निहोत्र याग काने का विधान है। दर्शपूर्णमास का सम्पादन सर्वकामना से तीस वर्ष तक अथवा यावज्जीवन करना चाहिए। दर्शेष्टि के अंग के रूप में अमावस्या के अपराह्ण में पिण्डपितृयज्ञ का सम्पादन करना चाहिए।[1] चातुर्मास्य का वैश्वदेव पर्व पशुकामना से किया जाता है। वरुण प्रघास के प्रसंग में मेष–मेषीकरण तथा करम्भ पात्रों का वर्णन किया गया है। शुनासीरीय पर्व का सम्पादन ग्राम, अन्नवृष्टि, पशु तथा स्वर्ग कामना से किया जाता है।

यूपछेदन

पशुयाग में वैष्णव आहुति देकर यूपछेदन करने का विचार है। यूज्ञीययूप पाँच अरत्नि का होना चाहिए। यूप के काष्ठ का इस श्रौतसूत्र में निर्देश नहीं किया गया है। पशु अंगों का भी विस्तृत वर्णन उपलब्ध होता है। ब्राह्मण अथवा क्षत्रिय को शरद ऋतु में वाजपेय याग करना चाहिए। इस याग में सत्रह दीक्षा और तीन उपसद होते हैं। सप्तदश संख्या का इस याग में विशेष महत्त्व है। प्रजापति हेतु सप्तदश–पशु का विधान है। यूप सप्तदश अरत्नि मात्र लम्बे होते हैं। सभी ऋत्विक् हिरण्यस्त्रज् धारण करते हैं।[2] वाजपेय याग की दक्षिणा में भी सप्तदश संख्या का योग प्राप्त होता है। वाजपेय याग की समाप्ति ब्रहस्पतिसव नामक कृत्य से होती है। गवामयन यज्ञ का आरम्भ पूर्णमासी से पूर्व एकादशी को दीक्षाकर्म से विहित है। वाराह श्रौतसूत्र में राजसूय याग का अधिकारी राजा को बताया गया है। राजसूय याग में अभिषेचनीय, सांवत्सरिक चातुर्मास्य, दशपेयादि कृत्यों का विशद वर्णन उपलब्ध होता है। इस श्रौतसूत्र में चरक सौत्रामणी तथा कोकिल सौत्रामणी के रूप में दो सौत्रामणियों का निरूपण किया गया है।

अश्वमेध याग

वाराह श्रौतसूत्र में अश्वमेध याग विजिगीषु के लिए विहित है। इस याग में एक वर्ष तक सवितृ–प्रसवितृ, सवितृ–आसवितृ तथा सत्यप्रसव–सवितृ हेतु तीन हवियों से यजन यज्ञानुष्ठाता द्वारा किया जाता है। अश्व को प्रक्षालित करके उसका उपाकरण करते हैं। इस उपाकृत अश्व के मुख से लेकर अगली टाँगों तक के भाग को महिषी कसाम्बु के तेल से चिकना करती है। उससे आगे नाभि तक के प्रदेश में वावाता गुग्गुल का तेल और उसके आगे पृष्ठ तक के अवशिष्ट भाग में परिवृक्ता मुस्तकृत का तेल चुपड़ती है।[3] इसके पश्वात तीनों– महिषी, वावाता और परिवृक्ती क्रमश: स्वर्ण, रजत और शंख मणियाँ सहस्त्र संख्या में अश्व के बाँधती हैं। महिषी अभिषेक के योग्य राजपूत्रों और सौ पुत्रियों के साथ ‘भू’ मन्त्र से, वावाता ‘भुव:’ मन्त्र से राजाओं और उनकी सौ पुत्रियों सहित अश्वाङ्गों में क्रमश: स्वर्ण, रजत और शंखमणियों को प्रविष्ट कराकर अश्वाभिषेक करती हैं। अश्वमेधयाजी मृत्यु तथा ब्रह्महत्या जैसे पाप से मुक्त हो जाता है। इस प्रकार निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि वाराह श्रौतसूत्र में यज्ञों का संक्षिप्त क्रमिक विवरण मिलता है। सोमयागों की प्रकृति अग्निष्टोम याग तथा अन्य अनेक एकाहों, अहीनों, सत्रों, पुरुषमेध, सर्वमेध जैसे महत्त्वपूर्ण कृत्यों का इसमें अभाव है।

व्याख्याएँ एवं संस्करण

वाराह श्रौतसूत्र पर कोई भी व्याख्या उपलब्ध नहीं है। प्रो. कालन्द और डॉ. रघुवीर के द्वारा सम्पादित रूप में यह श्रौतसूत्र प्रथम बार लाहौर से सन् 1933 में मेहरचन्द लक्ष्मणदास के द्वारा प्रकाशित हुआ था। इसी का पुनर्मुद्रण 1971 ई. में दिल्ली में हुआ। सन् 1988 में पुणे से श्री चिं. ग. काशीकर के द्वारा सुसम्पादित और शोधपूर्ण संस्करण प्रकाशित हुआ है, जो सर्वश्रेष्ठ है।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. वाराह श्रौतसूत्र 2.3.1 अमावास्यायामपराह्णे पिण्डपितृयज्ञाय।
  2. वाराह श्रौतसूत्र 1.1.12 हिरण्यस्त्रज् ऋत्विंज ......।
  3. वाराह श्रौतसूत्र 3.4.14 कासाम्बेन महिषी, गोल्गुल्वेन वावाता मोस्तफोटेन परिवृक्ती।

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