"आर्षेय कल्पसूत्र": अवतरणों में अंतर
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सामान्यत: श्रौतसूत्रों और विशेष रूप से साम–लक्षण ग्रन्थों के मध्य इसका अत्यन्त सम्मानपूर्ण स्थान है। कालन्द के अनुसार यह [[लाट्यायन श्रौतसूत्र|लाट्यायन]] एवं [[द्राह्यायण श्रौतसूत्र|द्राह्यायण]] श्रौतसूत्रों की अपेक्षा अधिक प्राचीन है।<ref>Pancavimsa Brahmana, Eng. Trans., Introduction, Page IX (Asiatic Society, Calcutta | सामान्यत: श्रौतसूत्रों और विशेष रूप से साम–लक्षण ग्रन्थों के मध्य इसका अत्यन्त सम्मानपूर्ण स्थान है। कालन्द के अनुसार यह [[लाट्यायन श्रौतसूत्र|लाट्यायन]] एवं [[द्राह्यायण श्रौतसूत्र|द्राह्यायण]] श्रौतसूत्रों की अपेक्षा अधिक प्राचीन है।<ref>Pancavimsa Brahmana, Eng. Trans., Introduction, Page IX (Asiatic Society, Calcutta</ref> इसके रचयिता मशक या मशक गार्ग्य माने जाते हैं। परिमाण की दृष्टि से इसमें एकादश अध्याय हैं, जिनमें विभिन्न सोमयागों में गेय स्तोमों की क्लृप्तियाँ दी गई हैं, जिनसे यागों का औद्गात्र पक्ष सम्पन्न होता है। वस्तुत: सोमयाग त्रिविध होते हैं– एकाह (एक सुत्यादिवस वाले) याग, अहीन (दो से ग्यारह सुत्यादिवसों वाले) तथा सत्रयाग (12 से लेकर तीन सौ इकसठ दिनों में साध्य)। | ||
==स्तोत्रीय ऋचा== | ==स्तोत्रीय ऋचा== | ||
आर्षेयकल्प में एकाह से लेकर सहस्त्र संवत्सरसाध्य सोमयागों से सम्बद्ध विविध सामों और उनकी स्तोत्रीय ऋचाओं की सूची मात्र प्रदत्त है, जो किसी सीमा तक याग–परम्परा में रुचि न रखने वाले को नीरस भी प्रतीत हो सकती है। प्रारम्भ गवामयन सत्रयाग से हुआ है। आर्षेयकल्प पूर्णतया ताण्ड्य ब्राह्मण के क्रम का अनुसर्त्ता है। 361 दिनों में सम्पद्यमान गवामयन सत्र के अनन्तर इसमें एकाह, अहीन और सत्रयागों से सम्बद्ध विवरण दिया गया है। श्येन, इषु, संदंश और वज्र प्रभृति अभिचार यागों के निरूपण में, जो पंचविंश ब्राह्मण में न निरूपित होकर [[षडविंश ब्राह्मण]] में विहित हैं, आर्षेयकल्प यजुर्वेदीय क्रम का अनुयायी है, जहाँ श्येन का उल्लेख साद्यस्क्र के रूप में इषु का ब्रहस्पतिसव के तथा संदेश और वज्र का एकाह यागों के अनन्तर हुआ है। सोमयागों में गान–विनियोग प्रायेण नियमत: ऊह और ऊह्य ग्रन्थों से हुआ है, किन्तु इसके कतिपय अपवाद भी हैं, जहाँ ग्रामेगेय और अरण्येगेय गानों से भी गान विहित हैं। आर्षेयकल्प में बतलाया गया है कि तत्तत् सोमयागों के विभिन्न | आर्षेयकल्प में एकाह से लेकर सहस्त्र संवत्सरसाध्य सोमयागों से सम्बद्ध विविध सामों और उनकी स्तोत्रीय ऋचाओं की सूची मात्र प्रदत्त है, जो किसी सीमा तक याग–परम्परा में रुचि न रखने वाले को नीरस भी प्रतीत हो सकती है। प्रारम्भ गवामयन सत्रयाग से हुआ है। आर्षेयकल्प पूर्णतया ताण्ड्य ब्राह्मण के क्रम का अनुसर्त्ता है। 361 दिनों में सम्पद्यमान गवामयन सत्र के अनन्तर इसमें एकाह, अहीन और सत्रयागों से सम्बद्ध विवरण दिया गया है। श्येन, इषु, संदंश और वज्र प्रभृति अभिचार यागों के निरूपण में, जो पंचविंश ब्राह्मण में न निरूपित होकर [[षडविंश ब्राह्मण]] में विहित हैं, आर्षेयकल्प यजुर्वेदीय क्रम का अनुयायी है, जहाँ श्येन का उल्लेख साद्यस्क्र के रूप में इषु का ब्रहस्पतिसव के तथा संदेश और वज्र का एकाह यागों के अनन्तर हुआ है। सोमयागों में गान–विनियोग प्रायेण नियमत: ऊह और ऊह्य ग्रन्थों से हुआ है, किन्तु इसके कतिपय अपवाद भी हैं, जहाँ ग्रामेगेय और अरण्येगेय गानों से भी गान विहित हैं। आर्षेयकल्प में बतलाया गया है कि तत्तत् सोमयागों के विभिन्न स्रोतों में केन सामों का गान किया जाना चाहिए और उनकी स्तोत्रगत ऋचाएँ कौन–कौन सी हैं? प्रतीक ऋक् के प्रथम पाद से उल्लिखित हैं, किन्तु वे उस प्रतीक से आरम्भ होने वाले सम्पूर्ण तृच के द्योतक हैं। कल्पकार जब यह अनुभव करते हैं कि [[ताण्ड्य ब्राह्मण]] में से किसी याग की विस्तार से स्तोम–क्लृप्ति दी गई है, तब वे वहाँ पुनरूक्ति नहीं करते। हाँ, भाष्यकार वरदराज अवश्य उस स्थल पर आवश्यक और अपेक्षित विवरण जुटाकर न्यूनता की पूर्ति का प्रयत्न करते हैं। | ||
==साम–गान== | ==साम–गान== | ||
सोमयागों के साम–गान की प्रक्रिया अत्यन्त जटिल है। इसलिए यहाँ उसका आंशिक परिचय दे देना आवश्यक है। साम–गान दो भागों में विभक्त हैं– पूर्वगान और उत्तरगान। पूर्वगान में ग्रामेगेयगान और अरण्येगेयगान नाम से दो भाग हैं। इन्हें प्रकृतिगान भी कहते हैं। सोमयाग में उत्तरगानों का ही मुख्यतया व्यवहार होता है। ये सामवेद के उत्तरार्चिक पर आधृत हैं जिसके 20 अध्यायों पर ऊह और ऊह्यगान प्राप्त होते हैं। उत्तरगानों के 'ऊह' और 'ऊह्य' नाम इनके विचारपूर्वक गान होने की सूचना देते हैं। सोमयागों में उद्गातृ–मण्डल इनका पाँच अथवा साप्तभक्तिक रूप में आगान करता है। ये पाँच विभक्तियाँ क्रमश: इस प्रकार हैं– प्रस्ताव, उद्गीथ, प्रतिहार, उपद्रव और निधन। इन्हीं में ओङ्कार और हिङ्कार का समावेश करने से इनकी संख्या सात हो जाती है। प्रस्तोता प्रतिहर्त्ता और उद्गाता अपने–अपने भागों का गान करते हैं। अन्तिम निधन भक्ति का गान समवेत स्वर में होता है। किसी सामविशेष में कितना–कितना भाग किस ऋत्विक् के द्वारा गेय है, यही विचार वस्तुत: 'ऊह' है। वह आधारभूत ऋचा, जिस पर साम (गान) आधृत होता है, 'योनि' या 'सामयोनि' कहलाती है। ऊह और ऊह्य गानगततृच की प्रथम स्तोत्रीय ऋक् ग्रामेगेयगान या अरण्येगेयगान के एकर्च गान के सदृश होती है और अन्य दो स्तोत्रीय ऋचाओं में वही ज्ञान अपनाया जाता है जो प्रथम स्तोत्रीय ऋचा में होता है। इस प्रकार उत्तरगान में सामान्यत: एक स्तोत्र का सम्पादन तीन ऋचाओं से होता है। इसे ही 'प्रगाथ' भी कहा जाता है। इन्हीं तृच रूप स्तोत्रों का आवृत्तिपूर्वक गान 'स्तोत' है– 'आवृत्तियुक्तं तत्साम स्तोम इत्यभिधीयते।'<ref> ताण्ड्यब्राह्मण पर सायण–भाष्य की उपक्रमणिका।</ref> स्तोमों की कुल संख्या नौ है– त्रिवृत, पञ्चदश, सप्तदश, एकविंश, त्रिणव, त्रयस्त्रिंश, चतुर्विंश, चतुश्चत्वारिंश तथा अष्टचत्वारिंश। स्तोमों के विभिन्न प्रकारों को ‘विष्टुति’ कहा जाता है। 'पञ्चपञ्चिनी', 'उद्यती', 'कुलायिनी' इत्यादि विभिन्न विष्टुतियाँ हैं, जिनका विशेष विवरण ताण्ड्यमहाब्राह्मण में है। | सोमयागों के साम–गान की प्रक्रिया अत्यन्त जटिल है। इसलिए यहाँ उसका आंशिक परिचय दे देना आवश्यक है। साम–गान दो भागों में विभक्त हैं– पूर्वगान और उत्तरगान। पूर्वगान में ग्रामेगेयगान और अरण्येगेयगान नाम से दो भाग हैं। इन्हें प्रकृतिगान भी कहते हैं। सोमयाग में उत्तरगानों का ही मुख्यतया व्यवहार होता है। ये सामवेद के उत्तरार्चिक पर आधृत हैं जिसके 20 अध्यायों पर ऊह और ऊह्यगान प्राप्त होते हैं। उत्तरगानों के 'ऊह' और 'ऊह्य' नाम इनके विचारपूर्वक गान होने की सूचना देते हैं। सोमयागों में उद्गातृ–मण्डल इनका पाँच अथवा साप्तभक्तिक रूप में आगान करता है। ये पाँच विभक्तियाँ क्रमश: इस प्रकार हैं– प्रस्ताव, उद्गीथ, प्रतिहार, उपद्रव और निधन। इन्हीं में ओङ्कार और हिङ्कार का समावेश करने से इनकी संख्या सात हो जाती है। प्रस्तोता प्रतिहर्त्ता और उद्गाता अपने–अपने भागों का गान करते हैं। अन्तिम निधन भक्ति का गान समवेत स्वर में होता है। किसी सामविशेष में कितना–कितना भाग किस ऋत्विक् के द्वारा गेय है, यही विचार वस्तुत: 'ऊह' है। वह आधारभूत ऋचा, जिस पर साम (गान) आधृत होता है, 'योनि' या 'सामयोनि' कहलाती है। ऊह और ऊह्य गानगततृच की प्रथम स्तोत्रीय ऋक् ग्रामेगेयगान या अरण्येगेयगान के एकर्च गान के सदृश होती है और अन्य दो स्तोत्रीय ऋचाओं में वही ज्ञान अपनाया जाता है जो प्रथम स्तोत्रीय ऋचा में होता है। इस प्रकार उत्तरगान में सामान्यत: एक स्तोत्र का सम्पादन तीन ऋचाओं से होता है। इसे ही 'प्रगाथ' भी कहा जाता है। इन्हीं तृच रूप स्तोत्रों का आवृत्तिपूर्वक गान 'स्तोत' है– 'आवृत्तियुक्तं तत्साम स्तोम इत्यभिधीयते।'<ref> ताण्ड्यब्राह्मण पर सायण–भाष्य की उपक्रमणिका।</ref> स्तोमों की कुल संख्या नौ है– त्रिवृत, पञ्चदश, सप्तदश, एकविंश, त्रिणव, त्रयस्त्रिंश, चतुर्विंश, चतुश्चत्वारिंश तथा अष्टचत्वारिंश। स्तोमों के विभिन्न प्रकारों को ‘विष्टुति’ कहा जाता है। 'पञ्चपञ्चिनी', 'उद्यती', 'कुलायिनी' इत्यादि विभिन्न विष्टुतियाँ हैं, जिनका विशेष विवरण ताण्ड्यमहाब्राह्मण में है। | ||
==याग दृष्टि== | ==याग दृष्टि== | ||
इस प्रकार याग दृष्टि से साम–गान में सामान्यत: बहिष्पवमानादि तैंतीस प्रमुख स्तोत्र, नौ स्तोम और 28 विष्टुतियाँ व्यवहृत होती हैं। ऋचा को गान रूप देने के लिए कतिपय परिवर्तन होते हैं, जिन्हें 'विकार' कहा जाता है। इनमें 'स्तोभ' (ऋग्भिन्न 'औहोवा', 'हाउ' इत्यादि अक्षर) मुख्य हैं। इनके अतिरिक्त पुष्पसूत्र में आइत्व, प्रकृतिभाव इत्यादि 20 भाव विकार भी बतलाए गए हैं।<ref> साम गान की सांगीतिक प्रक्रिया के लिए द्रष्टव्य ग्रन्थ है– सामवेद का परिशीलन (डॉ. ओमप्रकाश पाण्डेय) भारत भारती अनुष्ठानम्, 346 | इस प्रकार याग दृष्टि से साम–गान में सामान्यत: बहिष्पवमानादि तैंतीस प्रमुख स्तोत्र, नौ स्तोम और 28 विष्टुतियाँ व्यवहृत होती हैं। ऋचा को गान रूप देने के लिए कतिपय परिवर्तन होते हैं, जिन्हें 'विकार' कहा जाता है। इनमें 'स्तोभ' (ऋग्भिन्न 'औहोवा', 'हाउ' इत्यादि अक्षर) मुख्य हैं। इनके अतिरिक्त पुष्पसूत्र में आइत्व, प्रकृतिभाव इत्यादि 20 भाव विकार भी बतलाए गए हैं।<ref> साम गान की सांगीतिक प्रक्रिया के लिए द्रष्टव्य ग्रन्थ है– सामवेद का परिशीलन (डॉ. ओमप्रकाश पाण्डेय) [[भारत]] भारती अनुष्ठानम्, 346 क़ानून गोयांन, बारांबकी (उ. प्र.) से प्रकाशित।</ref> चतु:संस्थ सोमयागों का नामकरण इन्हीं सामों और स्तोमों के आधार पर सम्पन्न हुआ है। अग्निष्टोम, उक्थ्य, षोडशी तथा अतिरात्र नाम वस्तुत: विभिन्न स्तोत्रों और स्तोमों के ही उपलक्षक है। उदाहरण के लिए सभी सोमयागों के प्रकृतिभूत याग 'अग्निष्टोम' का नामकरण 'यज्ञायज्ञा वो अग्नये'<ref>ग्रामेगेय गान, 1.4.35–4</ref> इस आग्नेयी ऋचा में उत्पन्न 'यज्ञायज्ञीय अग्निष्टोम' संज्ञक साम से समाप्त होने के कारण हुआ है। इसी प्रकार 'उक्थ्य' संज्ञक तीन विशेष स्तोत्रों (साकमश्व साम, सौरभ साम तथा नार्मेध साम) का एकविंश स्तोम में प्रयोग उक्थ्य संस्थ ज्योतिष्टोम में होता है। | ||
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*प्रो. बेल्लिकोत्तु रामचन्द्र शर्मा के द्वारा सम्पादित ‘विवृति’ युक्त श्रेष्ठ संस्करण, विश्वेश्वरानन्द संस्थान, होशियारपुर से 1967 ई. में प्रकाशित है। | *प्रो. बेल्लिकोत्तु रामचन्द्र शर्मा के द्वारा सम्पादित ‘विवृति’ युक्त श्रेष्ठ संस्करण, विश्वेश्वरानन्द संस्थान, होशियारपुर से 1967 ई. में प्रकाशित है। | ||
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06:39, 14 अक्टूबर 2011 के समय का अवतरण
सामान्यत: श्रौतसूत्रों और विशेष रूप से साम–लक्षण ग्रन्थों के मध्य इसका अत्यन्त सम्मानपूर्ण स्थान है। कालन्द के अनुसार यह लाट्यायन एवं द्राह्यायण श्रौतसूत्रों की अपेक्षा अधिक प्राचीन है।[1] इसके रचयिता मशक या मशक गार्ग्य माने जाते हैं। परिमाण की दृष्टि से इसमें एकादश अध्याय हैं, जिनमें विभिन्न सोमयागों में गेय स्तोमों की क्लृप्तियाँ दी गई हैं, जिनसे यागों का औद्गात्र पक्ष सम्पन्न होता है। वस्तुत: सोमयाग त्रिविध होते हैं– एकाह (एक सुत्यादिवस वाले) याग, अहीन (दो से ग्यारह सुत्यादिवसों वाले) तथा सत्रयाग (12 से लेकर तीन सौ इकसठ दिनों में साध्य)।
स्तोत्रीय ऋचा
आर्षेयकल्प में एकाह से लेकर सहस्त्र संवत्सरसाध्य सोमयागों से सम्बद्ध विविध सामों और उनकी स्तोत्रीय ऋचाओं की सूची मात्र प्रदत्त है, जो किसी सीमा तक याग–परम्परा में रुचि न रखने वाले को नीरस भी प्रतीत हो सकती है। प्रारम्भ गवामयन सत्रयाग से हुआ है। आर्षेयकल्प पूर्णतया ताण्ड्य ब्राह्मण के क्रम का अनुसर्त्ता है। 361 दिनों में सम्पद्यमान गवामयन सत्र के अनन्तर इसमें एकाह, अहीन और सत्रयागों से सम्बद्ध विवरण दिया गया है। श्येन, इषु, संदंश और वज्र प्रभृति अभिचार यागों के निरूपण में, जो पंचविंश ब्राह्मण में न निरूपित होकर षडविंश ब्राह्मण में विहित हैं, आर्षेयकल्प यजुर्वेदीय क्रम का अनुयायी है, जहाँ श्येन का उल्लेख साद्यस्क्र के रूप में इषु का ब्रहस्पतिसव के तथा संदेश और वज्र का एकाह यागों के अनन्तर हुआ है। सोमयागों में गान–विनियोग प्रायेण नियमत: ऊह और ऊह्य ग्रन्थों से हुआ है, किन्तु इसके कतिपय अपवाद भी हैं, जहाँ ग्रामेगेय और अरण्येगेय गानों से भी गान विहित हैं। आर्षेयकल्प में बतलाया गया है कि तत्तत् सोमयागों के विभिन्न स्रोतों में केन सामों का गान किया जाना चाहिए और उनकी स्तोत्रगत ऋचाएँ कौन–कौन सी हैं? प्रतीक ऋक् के प्रथम पाद से उल्लिखित हैं, किन्तु वे उस प्रतीक से आरम्भ होने वाले सम्पूर्ण तृच के द्योतक हैं। कल्पकार जब यह अनुभव करते हैं कि ताण्ड्य ब्राह्मण में से किसी याग की विस्तार से स्तोम–क्लृप्ति दी गई है, तब वे वहाँ पुनरूक्ति नहीं करते। हाँ, भाष्यकार वरदराज अवश्य उस स्थल पर आवश्यक और अपेक्षित विवरण जुटाकर न्यूनता की पूर्ति का प्रयत्न करते हैं।
साम–गान
सोमयागों के साम–गान की प्रक्रिया अत्यन्त जटिल है। इसलिए यहाँ उसका आंशिक परिचय दे देना आवश्यक है। साम–गान दो भागों में विभक्त हैं– पूर्वगान और उत्तरगान। पूर्वगान में ग्रामेगेयगान और अरण्येगेयगान नाम से दो भाग हैं। इन्हें प्रकृतिगान भी कहते हैं। सोमयाग में उत्तरगानों का ही मुख्यतया व्यवहार होता है। ये सामवेद के उत्तरार्चिक पर आधृत हैं जिसके 20 अध्यायों पर ऊह और ऊह्यगान प्राप्त होते हैं। उत्तरगानों के 'ऊह' और 'ऊह्य' नाम इनके विचारपूर्वक गान होने की सूचना देते हैं। सोमयागों में उद्गातृ–मण्डल इनका पाँच अथवा साप्तभक्तिक रूप में आगान करता है। ये पाँच विभक्तियाँ क्रमश: इस प्रकार हैं– प्रस्ताव, उद्गीथ, प्रतिहार, उपद्रव और निधन। इन्हीं में ओङ्कार और हिङ्कार का समावेश करने से इनकी संख्या सात हो जाती है। प्रस्तोता प्रतिहर्त्ता और उद्गाता अपने–अपने भागों का गान करते हैं। अन्तिम निधन भक्ति का गान समवेत स्वर में होता है। किसी सामविशेष में कितना–कितना भाग किस ऋत्विक् के द्वारा गेय है, यही विचार वस्तुत: 'ऊह' है। वह आधारभूत ऋचा, जिस पर साम (गान) आधृत होता है, 'योनि' या 'सामयोनि' कहलाती है। ऊह और ऊह्य गानगततृच की प्रथम स्तोत्रीय ऋक् ग्रामेगेयगान या अरण्येगेयगान के एकर्च गान के सदृश होती है और अन्य दो स्तोत्रीय ऋचाओं में वही ज्ञान अपनाया जाता है जो प्रथम स्तोत्रीय ऋचा में होता है। इस प्रकार उत्तरगान में सामान्यत: एक स्तोत्र का सम्पादन तीन ऋचाओं से होता है। इसे ही 'प्रगाथ' भी कहा जाता है। इन्हीं तृच रूप स्तोत्रों का आवृत्तिपूर्वक गान 'स्तोत' है– 'आवृत्तियुक्तं तत्साम स्तोम इत्यभिधीयते।'[2] स्तोमों की कुल संख्या नौ है– त्रिवृत, पञ्चदश, सप्तदश, एकविंश, त्रिणव, त्रयस्त्रिंश, चतुर्विंश, चतुश्चत्वारिंश तथा अष्टचत्वारिंश। स्तोमों के विभिन्न प्रकारों को ‘विष्टुति’ कहा जाता है। 'पञ्चपञ्चिनी', 'उद्यती', 'कुलायिनी' इत्यादि विभिन्न विष्टुतियाँ हैं, जिनका विशेष विवरण ताण्ड्यमहाब्राह्मण में है।
याग दृष्टि
इस प्रकार याग दृष्टि से साम–गान में सामान्यत: बहिष्पवमानादि तैंतीस प्रमुख स्तोत्र, नौ स्तोम और 28 विष्टुतियाँ व्यवहृत होती हैं। ऋचा को गान रूप देने के लिए कतिपय परिवर्तन होते हैं, जिन्हें 'विकार' कहा जाता है। इनमें 'स्तोभ' (ऋग्भिन्न 'औहोवा', 'हाउ' इत्यादि अक्षर) मुख्य हैं। इनके अतिरिक्त पुष्पसूत्र में आइत्व, प्रकृतिभाव इत्यादि 20 भाव विकार भी बतलाए गए हैं।[3] चतु:संस्थ सोमयागों का नामकरण इन्हीं सामों और स्तोमों के आधार पर सम्पन्न हुआ है। अग्निष्टोम, उक्थ्य, षोडशी तथा अतिरात्र नाम वस्तुत: विभिन्न स्तोत्रों और स्तोमों के ही उपलक्षक है। उदाहरण के लिए सभी सोमयागों के प्रकृतिभूत याग 'अग्निष्टोम' का नामकरण 'यज्ञायज्ञा वो अग्नये'[4] इस आग्नेयी ऋचा में उत्पन्न 'यज्ञायज्ञीय अग्निष्टोम' संज्ञक साम से समाप्त होने के कारण हुआ है। इसी प्रकार 'उक्थ्य' संज्ञक तीन विशेष स्तोत्रों (साकमश्व साम, सौरभ साम तथा नार्मेध साम) का एकविंश स्तोम में प्रयोग उक्थ्य संस्थ ज्योतिष्टोम में होता है।
विषय
अध्याय–क्रम से ‘आर्षेयकल्प’ में प्रतिपादित विषयों का विवरण इस प्रकार है:–
- प्रथम दो अध्यायों में गवामयन सत्र का निरूपण है, जो वास्तव में विभिन्न एकाहों के निश्चित क्रम में अनुष्ठान से सम्पन्न होता है। पूर्वपक्ष के पहले दो दिनों में अतिरात्र तथा प्रायणीयेष्टि का अनुष्ठान होता है। तदनन्तर पाँच मासों तक विभिन्न अभिप्लव षडहों (ज्योति, गौ, आयु, आयु तथा ज्योति संज्ञक एकाहों) तथा पृष्ठ्य षडहों का अनुष्ठान किया जाता है। षष्ठ मास में तीन अभिप्लव षडहों, एक अभिजित तथा तीन स्वर सामों का अनुष्ठान होता है। अन्तिम दिन 'विषुवत्' संज्ञक होता है। उत्तरपक्ष के सप्तम मास में तीन स्वर साम, एक विश्वजित, तीन अभिप्लव षडह अनुष्ठेय हैं। अष्टम से एकादश मास तक पृष्ठ्य तथा अभिप्लव षडहों का ही अनुष्ठान होता है। 12वें मास में तीन अभिप्लव षडह, एक आयु, एक गोष्टोम तथा द्वादशाह के 10 दिन अनुष्ठेय हैं। अन्त में 'महाव्रत' का अनुष्ठान विहित है, जिसकी कल्पना पक्षी के विभिन्न अवयवों के रूप में की गई है। यह हास–परिहास तथा मनोरंजन से संवलित कृत्य है।
- तृतीय अध्याय में ज्योति, गौ:, आयु प्रभृति एकाहों के साथ ही श्येन और इषु सदृश अभिचार यागों तथा संस्कारविहीन व्रात्यस्तोम यागों का भी विधान है। इसी अध्याय में 'सर्वस्वार' नामक विलक्षण याग (जो सुत्या के दिन मृत्यु–कामना करने वाले के द्वारा अनुष्ठेय है) का विधान भी हुआ है।
- चतुर्थ अध्याय में चातुर्मास्यों का विशद विवरण है। इनके साथ ही उपहव्य, ऋतपेय, दूणाश, वैश्य स्तोम, तीव्रसुत, वाजपेय तथा राजसूय संज्ञक यागों का निरूपण भी हुआ है। पञ्चम अध्याय में राज, विराज, औपशद्, पुन: स्तोम, द्विविध चतुष्टोम, उद्भिद्, बलभिद्, अपचिति, ज्योति, ऋषभ प्रभृति का वर्णन हुआ है। 'गोसव' संज्ञक विलक्षण याग, जिसमें एक वर्ष तक सभी क्रियाएँ पशु के समान की जाती हैं, का तथा 'संदंश' और 'वज्र' संज्ञक अभिचार यागों का प्रतिपादन भी इसी अध्याय में हुआ है।
- षष्ठ से अष्टम अध्याय तक विभिन्न अहीन यागों (दो सुत्यादिवसों से लेकर 11 सुत्यादिवसों से युक्त) का निरूपण किया गया है। इनमें आंगिरस, चैत्ररथ तथा कापिवन संज्ञक द्विरात्र हैं, गर्ग, अश्व, वैद, छन्दोमपवमान, अन्तर्वसु तथा पराक संज्ञक त्रिरात्र हैं, अत्रि, जामदग्न्य, वसिष्ठ और वैश्वामित्र संज्ञक चतुरार्थ हैं, देव, पञ्च शारदीय और व्रतमध्य नामक पञ्चरात्र हैं। तीन षडह हैं, सात सप्तरात्र हैं, एक अष्टरात्र है, दो नवरात्र हैं, चार दशरात्र हैं और एक एकादश रात्र है।
- नवम अध्याय में 48 सत्रयागों का विवरण है। दशम तथा एकादश अध्याय विभिन्न 'अयन' संज्ञक यागों के विधि–विधान के प्रस्तावक हैं। इनमें आदित्यों, अङ्गिरसों, दृतिवातवानों, कुण्डपायियों, तपश्चितों के अयनों के साथ ही सारस्वत, दार्षवत, सर्परात्र, त्रिसंवत्सर, प्राजापत्य (सहस्त्र संवत्सरसाध्य) तथा विश्वसृजामयन प्रमुखतया उपपादित हैं। कतिपय अपवादों को छोड़कर 'आर्षेयकल्प' सामान्यत: ताण्ड्य महाब्राह्मण का अनुवर्तन करता है।
व्याख्या
'आर्षेयकल्प' पर वरदराज की वैदुष्यपूर्ण व्याख्या उपलब्ध है जिसका नाम है 'विवृति'। आरम्भ में लगभग 90 पृष्ठों का उनका उपोद्घात सोमयागों के स्वरूप के परिज्ञान के लिए अत्यन्त उपादेय है। व्याख्या की पुष्पिका से ज्ञात होता है कि वरदराज के पिता का नाम वामनार्य तथा पितामह का नाम अनन्तनारायण यज्वा था। वे तमिलनाडु के निवासी तथा श्री वैष्णव सम्प्रदाय के अनुयायी थे। सामवेदीय राणायनीय शाखा से उनका विशेष सम्बन्ध था।
संस्करण
- कालन्द के द्वारा सम्पादित तथा 1908 में लीप्जिग से ‘Der ARSE Yakalpa Des Samveda’ नाम से प्रकाशित है। इसमें अध्याय के स्थान पर प्रपाठक शब्द का व्यवहार हुआ है।
- प्रो. बेल्लिकोत्तु रामचन्द्र शर्मा के द्वारा सम्पादित ‘विवृति’ युक्त श्रेष्ठ संस्करण, विश्वेश्वरानन्द संस्थान, होशियारपुर से 1967 ई. में प्रकाशित है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ Pancavimsa Brahmana, Eng. Trans., Introduction, Page IX (Asiatic Society, Calcutta
- ↑ ताण्ड्यब्राह्मण पर सायण–भाष्य की उपक्रमणिका।
- ↑ साम गान की सांगीतिक प्रक्रिया के लिए द्रष्टव्य ग्रन्थ है– सामवेद का परिशीलन (डॉ. ओमप्रकाश पाण्डेय) भारत भारती अनुष्ठानम्, 346 क़ानून गोयांन, बारांबकी (उ. प्र.) से प्रकाशित।
- ↑ ग्रामेगेय गान, 1.4.35–4