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*व्याघात, शूल, व्यतीपात; अतिगण्ड, विष्कम्भ, गण्ड, परिघ और वज्र-इन योगों में गृहारम्भ नहीं करना चाहिये।  
*व्याघात, शूल, व्यतीपात; अतिगण्ड, विष्कम्भ, गण्ड, परिघ और वज्र-इन योगों में गृहारम्भ नहीं करना चाहिये।  
*श्वेत, मैत्र, माहेन्द्र, गान्धव, अभिजित, रौहिण, वैराज और सावित्र- इन मुहूर्तों में गृहारम्भ करना चाहिये।  
*श्वेत, मैत्र, माहेन्द्र, गान्धव, [[अभिजित नक्षत्र|अभिजित]], रौहिण, वैराज और सावित्र- इन मुहूर्तों में गृहारम्भ करना चाहिये।  
*[[चन्द्रमा]] और सूर्य के बल के साथ-ही-साथ शुभ लग्न का भी निरीक्षण करना चाहिये।  
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*सर्वप्रथम अन्य कार्यों को छोड़कर स्तम्भरोपण करना चाहिये। यही विधि प्रासाद, कूप एवं बावलियों के लिये भी मानी गयी है। <ref>मत्स्य पुराण॥1-10॥</ref>
*सर्वप्रथम अन्य कार्यों को छोड़कर स्तम्भरोपण करना चाहिये।  
*यही विधि प्रासाद, कूप एवं बावलियों के लिये भी मानी गयी है।<ref>[[मत्स्य पुराण]]॥1-10॥</ref>




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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
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==संबंधित लेख==
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यह लेख पौराणिक ग्रंथों अथवा मान्यताओं पर आधारित है अत: इसमें वर्णित सामग्री के वैज्ञानिक प्रमाण होने का आश्वासन नहीं दिया जा सकता। विस्तार में देखें अस्वीकरण
  • गृहारम्भ में अश्विनी, रोहिणी, मूल, तीनों उत्तरा, मृगशिरा, स्वाती, हस्त और अनुराधा- ये नक्षत्र प्रशस्त कहे गये हैं।
  • रविवार और मंगलवार को छोड़कर शेष सभी दिन शुभदायक हैं।
  • व्याघात, शूल, व्यतीपात; अतिगण्ड, विष्कम्भ, गण्ड, परिघ और वज्र-इन योगों में गृहारम्भ नहीं करना चाहिये।
  • श्वेत, मैत्र, माहेन्द्र, गान्धव, अभिजित, रौहिण, वैराज और सावित्र- इन मुहूर्तों में गृहारम्भ करना चाहिये।
  • चन्द्रमा और सूर्य के बल के साथ-ही-साथ शुभ लग्न का भी निरीक्षण करना चाहिये।
  • सर्वप्रथम अन्य कार्यों को छोड़कर स्तम्भरोपण करना चाहिये।
  • यही विधि प्रासाद, कूप एवं बावलियों के लिये भी मानी गयी है।[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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