"तैत्तिरीय ब्राह्मण": अवतरणों में अंतर

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'''सायं यावानश्च वै देवा: प्रातर्यावाणश्चाग्निहोत्रिणो गृहमागाच्छन्ति, तान्यत्रेन तर्पयेत्'''<ref>तैत्तिरीय-ब्राह्मण 1.5.3.3</ref><br />
'''सायं यावानश्च वै देवा: प्रातर्यावाणश्चाग्निहोत्रिणो गृहमागाच्छन्ति, तान्यत्रेन तर्पयेत्'''<ref>तैत्तिरीय-ब्राह्मण 1.5.3.3</ref><br />
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प्रथम काण्ड के 5वें प्रपाठक में एक सुन्दर उपमा के माध्यम से अपराह्ण काल को यागानुष्ठान-हेतु शुभ बतलाया गया है, क्योंकि वह कुमारियों के श्रुंगार का समय होता है-'अपराह्णे कुमार्यो भगमिच्छमानाश्चरन्ति'<ref>तैत्तिरीय-ब्राह्मण 1.5.4.1</ref> इसी प्रपाठक के चतुर्थ अनुवाक में यागीय पात्रों  का विवरण देते हुए काष्ठमय पात्रों का विशेषरूप से उल्लेख है।<ref>तैत्तिरीय-ब्राह्मण 1.3.6.2</ref> गवामयन सत्र का प्रथम निरूपण इसलिए है कि इसमें विभिन्न एकाहों और अहीनयागों में अनुष्ठेय कृत्यों की ही पौन:पुन्येन आवृति होती है, अतएव उसके निरूपण से सभी का निरूपण स्वत: हो जाता है। वाजपेय-निरूपण के प्रसंग में आजि-धावन इत्यादि के विषय में प्राप्त आख्यायिका और विधि-विधान के अतिरिक्त कुछ अर्थवादात्मक कथन बहुत सुन्दर हैं। अतिग्रहों के अन्तर्गत सोम और सुरा भी विहित हैं जो क्रमश: पुरुष और स्त्री रूप बतलाये गये हैं। दुन्दुभि-वादन को परमा वाक् बतलाते हुए उसे वाग्देवी का नादात्मक शरीर कहा गया हैं-'परमा वा एषा वाक् या दुन्दुभी'<ref>तैत्तिरीय-ब्राह्मण 1.3.6.2</ref>
प्रथम काण्ड के 5वें प्रपाठक में एक सुन्दर उपमा के माध्यम से अपराह्ण काल को यागानुष्ठान-हेतु शुभ बतलाया गया है, क्योंकि वह कुमारियों के श्रुंगार का समय होता है-'अपराह्णे कुमार्यो भगमिच्छमानाश्चरन्ति'<ref>तैत्तिरीय-ब्राह्मण 1.5.4.1</ref> इसी प्रपाठक के चतुर्थ अनुवाक में यागीय पात्रों  का विवरण देते हुए काष्ठमय पात्रों का विशेषरूप से उल्लेख है।<ref>तैत्तिरीय-ब्राह्मण 1.3.6.2</ref> गवामयन सत्र का प्रथम निरूपण इसलिए है कि इसमें विभिन्न एकाहों और अहीनयागों में अनुष्ठेय कृत्यों की ही पौन:पुन्येन आवृति होती है, अतएव उसके निरूपण से सभी का निरूपण स्वत: हो जाता है। वाजपेय-निरूपण के प्रसंग में आजि-धावन इत्यादि के विषय में प्राप्त आख्यायिका और विधि-विधान के अतिरिक्त कुछ अर्थवादात्मक कथन बहुत सुन्दर हैं। अतिग्रहों के अन्तर्गत सोम और सुरा भी विहित हैं जो क्रमश: पुरुष और स्त्री रूप बतलाये गये हैं। दुन्दुभि-वादन को परमा वाक् बतलाते हुए उसे [[वाग्देवी]] का नादात्मक शरीर कहा गया हैं-'परमा वा एषा वाक् या दुन्दुभी'<ref>तैत्तिरीय-ब्राह्मण 1.3.6.2</ref>


श्रौतयागों में पुरुषमेध ने वैदिक विद्वानों का सर्वाधिक ध्यान आकृष्ट किया है। उसके तात्त्विक् अनुशीलन की पुष्कल सामग्री इस ब्राह्मण में है। इस अहीन सोमयाग का निरूपण तृतीय काण्ड के चतुर्थ प्रपाठक में हुआ है। इसमें पाँच दिन लगते हैं। नाम-श्रवण से प्रतीत होता है कि अश्वमेध में जैसे अश्व का संज्ञपन, विशसन और उसके अंगों से होम होता है, तद्वत् यहाँ  भी पुरुष के संज्ञपनादि कृत्य होने चाहिए। किन्तु वास्तव में ऐसा नहीं  होता है। उल्लिखित विशिष्ट पुरुषों का विधिवत् विभिन्न देवों के सम्मुख उपाकरण करके उनका उत्सर्जन (जीवित रूप में ही परित्याग) हो जाता है, न तो उनका संज्ञपन होता है, न विशसन और न ही अग्नि में प्रक्षेपात्मक होम ही होता है। इस सन्दर्भ में 198 प्रकार के पुरुषों का उल्लेख है, जिनका उपाकरण और उत्सर्जन होता है। संज्ञपन और विशसनादि अजादि पशुओं के ही विहित हैं। पुरुषों का नारायण के रूप में ध्यान भर किया जाता है। ध्यान के समय पुरुषसूक्त के मन्त्र पठनीय हैं। 198 प्रकार के पुरुषों के उल्लेख से उस युग के विभिन्न व्यवसायों पर अच्छा प्रकाश पड़ता है। इस यज्ञ का अनुष्ठाता अपना सर्वस्व-दान देकर तथा राग-द्वेषरहित होकर वन को चला जाता है।
श्रौतयागों में पुरुषमेध ने वैदिक विद्वानों का सर्वाधिक ध्यान आकृष्ट किया है। उसके तात्त्विक् अनुशीलन की पुष्कल सामग्री इस ब्राह्मण में है। इस अहीन सोमयाग का निरूपण तृतीय काण्ड के चतुर्थ प्रपाठक में हुआ है। इसमें पाँच दिन लगते हैं। नाम-श्रवण से प्रतीत होता है कि अश्वमेध में जैसे अश्व का संज्ञपन, विशसन और उसके अंगों से होम होता है, तद्वत् यहाँ  भी पुरुष के संज्ञपनादि कृत्य होने चाहिए। किन्तु वास्तव में ऐसा नहीं  होता है। उल्लिखित विशिष्ट पुरुषों का विधिवत् विभिन्न देवों के सम्मुख उपाकरण करके उनका उत्सर्जन (जीवित रूप में ही परित्याग) हो जाता है, न तो उनका संज्ञपन होता है, न विशसन और न ही अग्नि में प्रक्षेपात्मक होम ही होता है। इस सन्दर्भ में 198 प्रकार के पुरुषों का उल्लेख है, जिनका उपाकरण और उत्सर्जन होता है। संज्ञपन और विशसनादि अजादि पशुओं के ही विहित हैं। पुरुषों का नारायण के रूप में ध्यान भर किया जाता है। ध्यान के समय पुरुषसूक्त के मन्त्र पठनीय हैं। 198 प्रकार के पुरुषों के उल्लेख से उस युग के विभिन्न व्यवसायों पर अच्छा प्रकाश पड़ता है। इस यज्ञ का अनुष्ठाता अपना सर्वस्व-दान देकर तथा राग-द्वेषरहित होकर वन को चला जाता है।
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*सायण-भाष्य सहित, आनन्दाश्रम, [[पुणे]] से 1934 में प्रकाशित,  
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*भट्टभास्कर-भाष्य सहित, महादेवशास्त्री द्वारा सम्पादित तथा मैसूर से प्रकाशित्। अन्तिम दोनों संस्करणों का पुन: मुद्रण हो चुका है।
*भट्टभास्कर-भाष्य सहित, महादेवशास्त्री द्वारा सम्पादित तथा मैसूर से प्रकाशित्। अन्तिम दोनों संस्करणों का पुन: मुद्रण हो चुका है।
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07:10, 13 फ़रवरी 2013 के समय का अवतरण

तैत्तिरीय ब्राह्मण कृष्ण यजुर्वेदीय शाखा से सम्बंधित है। इसमें सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण आख्यान महर्षि भारद्वाज से संबंधित है। तैत्तिरीय ब्राह्मण के अनुसार मनुष्य का आचरण देवों के समान होना चाहिए। इस ग्रन्थ में मन को ही सर्वाच्च प्रजापति बताया गया है। कृष्ण-यजुर्वेदीय शाखा में एकमात्र यही ब्राह्मण अद्यावधि सम्पूर्ण रूप में उपलब्ध है। ‘काठक-ब्राह्मण’ के केवल कुछ अंश ही प्राप्त हैं। शतपथ-ब्राह्मण के सदृश इसका पाठ भी सस्वर है। यह इसकी प्राचीनता का द्योतक है।

तैत्तिरीय-ब्राह्मण का विभाग

सम्पूर्ण ग्रन्थ तीन काण्डों अथवा अष्टकों में विभक्त है।

  • प्रथम दो काण्डों में आठ-आठ अध्याय अथवा प्रपाठक हैं।
  • तृतीय काण्ड में 12 अध्याय (या प्रपाठक) है।

भट्टभास्कर ने अपने भाष्य में इन्हें ‘प्रश्न’ भी कहा है। एक अवान्तर विभाजन अनुवाकों का भी है, जिनकी संख्या 353 है।

प्रवक्ता और प्रसार क्षेत्र

परमपरा से तैत्तिरीय-ब्राह्मण के प्रवक्ता के रूप में वैशम्पायन के शिष्य तित्तिरि की प्रसिद्धि है। नाम से भी यही प्रकट होता है। इसके अन्तर्गत सम्मिलित काठक-भाग[1] के प्रवचन का श्रेय भट्टभास्कर के अनुसार काठक को है। परम्परा के अनुसार आन्ध्र प्रदेश, नर्मदा की दक्षिण तथा आग्नेयी दिशा एवं गोदावरी के तटवर्ती प्रदेशों में तैत्तिरीय-शाखा का प्रचलन रहा है। बर्नेल ने इस दक्षिण भारतीय जनश्रुति को उद्धृत किया है, जिसके अनुसार दक्षिण की पालतू बिल्लियाँ भी तैत्तिरीय-शाखा से परिचित होती है। सुप्रसिद्ध भाष्यकार सायणाचार्य की अपनी यही शाखा थी, इसलिए ब्राह्मण-ग्रन्थों में, सर्वप्रथम उन्होंने इसी पर अपना भाष्य रचा।

तैत्तिरीय-ब्राह्मण का प्रतिपाद्य

तैत्तिरीय-ब्राह्मण यजुर्वेदीय होने के कारण अध्वर्युकर्तृक याग-कृत्यों का विस्तार से प्रस्तावक है। सायण के अनुसार यज्ञ के शरीर की निर्मित अध्वर्यु और उसकी अनुगत ॠत्विङ्-मण्डली के द्वारा वस्तुत: याजुष मन्त्रों और प्रक्रियाओं से ही की जाती है, अतएव तैत्तिरीय-ब्राह्मणगत यागमीमांसा अत्यन्त व्यापक है। संक्षेप में, तैत्तिरीय-ब्राह्मण के कुछ काण्ड इस प्रकार है-

  • प्रथम काण्ड में अग्न्याधान, गवामयन, वाजपेय, नक्षत्रेष्टि तथा राजसूय यागों का वर्णन है।
  • द्वितीय काण्ड में अग्निहोत्र, उपहोम, सौत्रामणी तथा बृहस्पति सब प्रभृति विविध सर्वों का निरूपण है।
  • तृतीय काण्ड में नक्षत्रेष्टियों तथा पुरुषमेध से सम्बद्ध विवरण मुख्यत: आया है।

अन्य ब्राह्मणों में जहाँ सोमयागों का ही वर्चस्व है, वहीं तैत्तिरीय-ब्राह्मण में इष्टीयों और पशुयागों की भी विशद विवेचना मिलती है। नक्षत्रेष्टियाँ, नक्षत्रों से सम्बद्ध होम तथा नाचिकेत और सावित्र-चयन भी कृष्णयजुर्वेदीय ब्राह्मण की विशिष्ट उपलब्धि है। तैत्तिरीय-संहिता में आये 'इषे त्वोर्ज्जे त्वा' प्रभृति दर्शपूर्णमास से सम्बद्ध मन्त्रों के अनुवर्तन में, तैत्तिरीय-ब्राह्मण में पहले पहले पौरोडाशिक काण्ड होना चाहिए, किन्तु अग्न्याधान के बिना दर्शपूर्णमास का अनुष्ठान सम्भव नहीं है, इस कारण पहले उसी की विधि बतलाई गई है। अग्न्याधान-काल की मीमांसा करते हुए नक्षत्र और ॠतुनिर्णय के अनन्तर देवयजन की साज-सज्जा का विधान है। कृष्णयजुर्वेदीय यागानुष्ठाता गार्हपत्याग्नि का आधान रात्रि में और सूर्य के आधे उदित होने पर आहवनीयाग्नि का आधान करते हैं-
नक्तं गार्हपत्यमादधाति। अर्धोदिते सूर्य आहवनीयमादधाति।
प्रथम काण्ड[2] में ब्रह्योदन की विधि बतलाई गई है। यह वस्तुत: वह ओदन है, जिसे ब्राह्म-होम तथा ॠत्विग्भोजनार्थ पकाया गया हो। इसी काण्ड के द्वितीय प्रपाठक से गवामयन-याग का वर्णन आरम्भ होता है, क्योंकि ब्राह्मणकार के अनुसार इसमें सभी सोमयागों का अन्तर्भाव हो जाता है।[3]
द्वितीय काण्ड[4] में अग्निहोत्र का विशद निरूपण एक आख्यायिका के माध्यम से किया गया है। उसे अग्नि का भाग बतलाया गया है-
स एतद्भागधेयमभ्यजयत यदग्निहोत्रम्[5]
तैत्तिरीय-ब्राह्मण में उदितहोम का विधान है- उदिते सूर्ये प्रातर्जुहोति[6] घर में रहने वाले दो पुण्यात्माओं में से दोनों की जैसे पूजा की जाती है, उसी प्रकार सायंकाल अग्नि और सूर्य के लिए संसृष्ट होम किया जाता है। अग्निहोत्र को देवों ने घर की निष्कृति के रूप में देखा था।[7] उस समय गृहागत अतिथियों को अन्न-परिवेषण से तृप्त करना चाहिए-
सायं यावानश्च वै देवा: प्रातर्यावाणश्चाग्निहोत्रिणो गृहमागाच्छन्ति, तान्यत्रेन तर्पयेत्[8]


प्रथम काण्ड के 5वें प्रपाठक में एक सुन्दर उपमा के माध्यम से अपराह्ण काल को यागानुष्ठान-हेतु शुभ बतलाया गया है, क्योंकि वह कुमारियों के श्रुंगार का समय होता है-'अपराह्णे कुमार्यो भगमिच्छमानाश्चरन्ति'[9] इसी प्रपाठक के चतुर्थ अनुवाक में यागीय पात्रों का विवरण देते हुए काष्ठमय पात्रों का विशेषरूप से उल्लेख है।[10] गवामयन सत्र का प्रथम निरूपण इसलिए है कि इसमें विभिन्न एकाहों और अहीनयागों में अनुष्ठेय कृत्यों की ही पौन:पुन्येन आवृति होती है, अतएव उसके निरूपण से सभी का निरूपण स्वत: हो जाता है। वाजपेय-निरूपण के प्रसंग में आजि-धावन इत्यादि के विषय में प्राप्त आख्यायिका और विधि-विधान के अतिरिक्त कुछ अर्थवादात्मक कथन बहुत सुन्दर हैं। अतिग्रहों के अन्तर्गत सोम और सुरा भी विहित हैं जो क्रमश: पुरुष और स्त्री रूप बतलाये गये हैं। दुन्दुभि-वादन को परमा वाक् बतलाते हुए उसे वाग्देवी का नादात्मक शरीर कहा गया हैं-'परमा वा एषा वाक् या दुन्दुभी'[11]

श्रौतयागों में पुरुषमेध ने वैदिक विद्वानों का सर्वाधिक ध्यान आकृष्ट किया है। उसके तात्त्विक् अनुशीलन की पुष्कल सामग्री इस ब्राह्मण में है। इस अहीन सोमयाग का निरूपण तृतीय काण्ड के चतुर्थ प्रपाठक में हुआ है। इसमें पाँच दिन लगते हैं। नाम-श्रवण से प्रतीत होता है कि अश्वमेध में जैसे अश्व का संज्ञपन, विशसन और उसके अंगों से होम होता है, तद्वत् यहाँ भी पुरुष के संज्ञपनादि कृत्य होने चाहिए। किन्तु वास्तव में ऐसा नहीं होता है। उल्लिखित विशिष्ट पुरुषों का विधिवत् विभिन्न देवों के सम्मुख उपाकरण करके उनका उत्सर्जन (जीवित रूप में ही परित्याग) हो जाता है, न तो उनका संज्ञपन होता है, न विशसन और न ही अग्नि में प्रक्षेपात्मक होम ही होता है। इस सन्दर्भ में 198 प्रकार के पुरुषों का उल्लेख है, जिनका उपाकरण और उत्सर्जन होता है। संज्ञपन और विशसनादि अजादि पशुओं के ही विहित हैं। पुरुषों का नारायण के रूप में ध्यान भर किया जाता है। ध्यान के समय पुरुषसूक्त के मन्त्र पठनीय हैं। 198 प्रकार के पुरुषों के उल्लेख से उस युग के विभिन्न व्यवसायों पर अच्छा प्रकाश पड़ता है। इस यज्ञ का अनुष्ठाता अपना सर्वस्व-दान देकर तथा राग-द्वेषरहित होकर वन को चला जाता है।

अश्वमेध के प्रसंग में भी अन्यत्र राजरानियों और ॠत्विजों के मध्य अश्लील-संभाषण के जो कृत्य विहित हैं, वे तैत्तिरीय-ब्राह्मण में नहीं हैं। 'सव' संज्ञक एकाह-यागों का विशद विधान भी इस ब्राह्मण की एक विशेषता है। ये 12 हैं-

  • बृहस्पतिसव,
  • वैश्यसव,
  • ब्राह्मणसव,
  • सोमसव,
  • पृथिसव,
  • गोसव,
  • ओदनसव,
  • मरुत्स्तोम (पंचशारदीय),
  • अग्निष्टुत्,
  • इन्द्रस्तुत,
  • अप्तोर्याम और
  • विघन।

सायण का कथन है कि 'सव' ईश्वर (स्वामी) की तरह अभिषिक्त होने का वाचक है। 'बृहस्पतिसव' में नियोज्य होता का वैशिष्ट्य है उसका खल्वाट (परिस्त्रजी) होना और बार-बार आँखों का उन्मीलन और निमीलन करना। 'दशहोत्र' संज्ञक होमों का विधान भी तैत्तिरीय-ब्राह्मण का वैशिष्ट्य है। द्वितीय काण्ड के चतुर्थ प्रपाठक में कतिपय उपहोम भी विहित हैं, जो श्रौत के साथ ही स्मार्त कृत्य भी हैं। इसी काण्ड के षष्ठ प्रपाठक में कौकिली-सौत्रामणी का विधान भी उल्लिखित है। यह पशुयाग है, जिसमें पाँच पशु विहित हैं- इन्हीं की 'सौत्रामणी' आख्या है। इस याग में तौक्म (व्रीहि), मासर (भुने हुए यव का दधिमिश्रित महीन चूर्ण), नग्न (मट्ठामिश्रित यव का मोटा चूर्ण) के साथ सुरा के संसर्जन की विधि भी इसमें विहित है। नक्षत्रेष्टियों के सन्दर्भ में देवताओं के रूप में तैत्तिरीय-ब्राह्मण में अम्बा, दुला, नितत्नी, श्रयन्ती, मेघयन्ती वर्षयन्ती और चुपुणीका के नाम आये है।

तृतीय काण्ड के दशम प्रपाठक में सावित्र-चयन का निरूपण है। ईंटों से बनाया गया स्थान विशेष ही 'चयन' है। याग की जटिल प्रक्रियाओं के मध्य में भी साहित्यिक सौष्ठव की दृष्टि से यहाँ ध्यान रखा गया है। इसी काण्ड के 11वें प्रपाठक में नाचिकेताग्नि-चयन की प्रक्रिया निरूपित है। इसी स्थल पर नचिकेता का सुप्रसिद्ध आख्यान आया है। तैत्तिरीय-ब्राह्मण में यागों का निरूपण बहुत विप्रकीर्ण शैली मेन हुआ है, जो इसकी प्राचीनता का उपलक्षक है। याग-मीमांसा का फलक अत्यन्त विशद और सर्वाङ्ग सम्पन्न है। आध्वर्यव के साथ ही हौत्र और औदगात्र पक्ष भी निरूपित है। इस ब्राह्मण में यह दृष्टिकोण उपपादित है कि यज्ञ ही मनुष्य का सर्वस्व है-
यज्ञो रायो यज्ञ ईशे वसूनाम्। यज्ञ: सस्यानामुत सुक्षितीनाम्[12]
इसलिए यह प्रार्थना की गई है कि यज्ञ निरन्तर बढ़ता रहे। याग की वेदि पुत्र-पौत्रों के माध्यम से निरन्तर फूलती-फलती रहे-
अयं यज्ञो वर्धतां गोभिरश्वै:। इयं वेदि: स्वपत्या सुवीरा[13]

आख्यान

तैत्तिरीय-ब्राह्मण का सर्वाधिक प्रसिद्ध आख्यान महर्षि भरद्वाज से सम्बद्ध है, जो तृतीय काण्ड के 10वें प्रपाठक में आया है। इसमें वेदों के आनन्त्य अनन्ता वै वेदा:[14] का प्रतिपादन है। परम तत्त्व के विवेचन की आख्यायिका[15] इस ब्राह्मण को उपनिषदों के ज्ञान-गौरव से विभूषित करती है। इसके कुछ अंश इस प्रकार हैं- अरुण के पुत्र अत्यंह के किसी ब्रह्मचारी से दय्यापति प्लक्ष ने पूछा-
'सावित्राग्नि किसमें प्रतिष्ठित है'?
-'रजोगुण से परे।
उससे परे क्या है?'
-'रजोगुण से परे दृश्यमान मण्डलात्मा है'।
'यह अग्नि किसमें प्रतिष्ठित है?'
-'सत्य में'।
नचिकेता के आख्यान के साथ ही प्रह्लाद और अगस्त्य विषयक आख्यायिकाएँ भी उल्लिखित हैं। सीता-सावित्री की प्रणयाख्यायिका, उषस् के द्वारा प्रिय की प्राप्ति के आख्यान इसकी रोचकता में अभिवृद्धि करते हैं। सृष्टि, यज्ञ और नक्षत्र-विषयक आख्यान तो पुष्कल परिमाण में हैं। देवविषयक आख्यानों से देवशास्त्र के विकास पर अच्छा प्रकाश पड़ता है।

सृष्टि प्रक्रिया-सृष्टि

प्रक्रिया की दृष्टि से तैत्तिरीय-ब्राह्मण के द्वितीय काण्ड (प्रपाठक 2) में सर्वाधिक सामग्री है। ॠग्वेदीय-नासदीयसूक्त का विशेष प्रभाव परिलक्षित होता है। सृष्टि से पहले किसी भी वस्तु की सत्ता नहीं मानी गई है। अनभिव्यक्त नामरूप (असत्) ने ही यह इच्छा की कि मैं सतरूप में हो जाउँ-
तदसदेव सन्मनोऽकुरुत स्यामिति।
उसने तप किया, जिससे धूम, अग्नि, ज्योति, अर्चि, मरीचि, उदार और अभ्र की क्रमश: सृष्टि हुई। स्त्रष्टा की बस्ति (मूत्राशय) के भेदन से समुद्र उत्पन्न हुआ- इसी कारण समुद्र का जल आज भी अपेय समझा जाता है। तदनन्तर सब कुछ जलमय हो गया। इस पर प्रजापति को रुलाई आ गई कि जब मैं कुछ भी नहीं कर सकता, कुछ भी नहीं रच सकता तो मेरी उत्पत्ति ही क्यों हुई? प्रजापति के इसी अश्रुजल के समुद्र में गिरने से पृथ्वी बनी। कालान्तर से अन्तरिक्ष और द्युलोक बने। प्रजापति के जघनभाग से असुरों की सृष्टि हुई। पुन: प्रजापति ने तपस्या की, जिससे मनुष्यों, देवों और ॠतुओं की सृष्टि हुई। इस प्रक्रिया में मन का योगदान सर्वाधिक रहा-
असतोऽधि मनोऽसृज्यत। मन: प्रजापति: प्रजा: असृजत।[16]
सङ्कल्पित अर्थ वाला यह मन ही श्वोवस्य नामक ब्रह्म है-
यदिदं किं तदेतच्छ्वोवस्यं नाम ब्रह्म।[17]
सृष्टि की सुरक्षा प्राकृतिक नियमों की संरक्षा पर निर्भर है। इन्हें 'ॠत' कहा गया है, जिसका अतिक्रमण कोई भी वस्तु नहीं कर सकती। भूमि और समुद्र सभी उस पर ही अवलम्बित है-
ॠतमेव परमेष्ठि। ॠतं नात्येति किञ्चन्। ॠते समुद्र आहित:। ॠते भूमिरियं श्रिता।[18]

आचार-दर्शन

तैत्तिरीय-ब्राह्मण के अनुसार मनुष्य का आचरण देवों के समान होना चाहिए-'इति देवा अकुर्वत्। इत्यु वै मनुष्या: कुर्वते।'[19] सत्य-भाषण, वाणी की मिठास, तपोमय जीवन, अतिथि-सत्कार, संगठनशीलता, सम्पत्ति के परोपकार-हेतु विनियोग, मांस-भक्षण से दूर रहने तथा ब्रह्मचर्य के पालन पर विशेष बल दिया गया है। इनके अनुष्ठान में प्रमाद या अपराध करने पर निष्कपट भाव से प्रायश्चित्त का विधान है। आहिताग्नि व्यक्ति को कदापि असत्य नहीं बोलना चाहिए, क्योंकि तेजोमयता सत्य में ही है-'आहिताग्नि: न अनृतं वदेत्।' उग्र वाणी भूख और प्यास की हेतु होने के कारण महापातक के सदृश है-'अशनयापिपासे ह वा उग्रं वच:।'[20] ॠत और सत्य एक है-'तदृतं तत्सत्यम्'[21] तथा 'ॠतं सत्येऽधायि सत्यमृतेऽधायि'।[22] सत्य वह है, जो नेत्रों से देखकर बोला जाये, क्योंकि वाणी झूठ बोल जाती है और मन मिथ्या का ध्यान करने लग जाता है। इसलिए चक्षु ही विश्वसनीय है। व्यक्ति को निरन्तर असत्य से सत्य की ओर बढ़ने का प्रयत्न करना चाहिए, क्योंकि वह मनुष्यत्व से देवत्व की ओर अग्रसर होने का द्योतक है-
अनृतात् सत्यमुपैमि। मानुषाद्दैव्यमुपैमि। दैवी वाचं यच्छामि[23]
तपोमय जीवन तैत्तिरीय-ब्राह्मण में प्रतिपादित दूसरा महनीय जीवनमूल्य है। तपस्या से देवों ने उच्च स्थिति प्राप्त की, ॠषियों ने स्वर्गिक सुख पाया और अपने शत्रुओं का विनाश किया-
तपसा देवा देवतामग्र आयन्। तपसर्षय: स्वरन्वविन्दन्। तपसा सपत्नान् प्रणुदामराती:[24]
श्रद्धा भी विशिष्ट जीवन-मूल्य के रूप में उल्लिखित है। लोक की प्रतिष्ठा श्रद्धा से ही है। अमृत का दोहन करती हुई श्रद्धा कामना की बछेरी है। वह संसार की पालिका है-
श्रद्धया देवो देवत्वमश्नुते। कामवतसामृत दुहाना। श्रद्धा देवी प्रथमजा ॠतस्य्। विश्वस्य भर्त्री जगत: प्रतिष्ठा। तां श्रद्धां हविषा यजामहे[25]
तैत्तिरीय-ब्राह्मण के अनुसार आहिताग्नि व्यक्ति को न तो मांसभक्षण करना चाहिए और न स्त्री-गमन ही करना चाहिए।[26] जिस सम्पत्ति से यज्ञादि परोपकार और सार्वजनीन कृत्यों का अनुष्ठान होता रहता है, दान-पुण्य होते रहते हैं, उसका कदापि विनाश नहीं होता। न तो उसे शत्रु ले जाते हैं और न शत्रु क्षति पहुँचाते हैं-
न ता नशन्ति न दभाति तस्कर:। नैना अमित्रो व्यथिरादधर्षति। देवाश्च याभिर्यजते ददाति च[27]
सबके प्रति मैत्री-भाव पर भी तैत्तिरीय-ब्राह्मण में बल दिया गया है। सात पगों की भी यात्रा जिनके साथ हुई हो, वे सभी मित्र हैं। उनके प्रति सख्यभाव कि कभी क्षति नहीं पहुँचने देनी चाहिए-
सखाय: सप्तपदा अभूम्। सख्यं ते गमेयम्। सख्यात्ते मा योषम्। सख्यान्मे मा योष्ठा:[28]
तैत्तिरीय-ब्राह्मण के अनुसार मनुष्य का मन ही सर्वोच्च प्रजापति है। सभी क्रियाएँ उसी से सम्पन्न होती हैं, अतएव मन की शुद्धि परम आवश्यक है-'मन इव हि प्रजापति:'[29] तथा 'येन पूतस्तरति दुष्कृतानि'[30] मन की शुद्धि के सन्दर्भ में बहुविध कामनाओं का परित्याग भी आवश्यक है, क्योंकि वे समुद्र के समान अपार है-'समुद्र इव हि काम:। नैव हि कामस्यान्तोऽस्ति' इस प्रकार तैत्तिरीय-ब्राह्मण में मनुष्य के चतुर्दिक् अभ्युत्थान और उदात्त-दृष्टि से जीवन-पथ पर आरोहण के निमित्त अत्यन्त प्रशस्त आचार-दर्शन की प्रस्तुति दिखलाई देती है।

संस्करण

अब तह इसके तीन संस्करण सम्पादित हुए हैं- जिन का पौन:पुन्येन मुद्रण होता रहता है। प्रथमत: मुद्रित संस्करण ये हैं-

  • राजेन्द्रलाल मित्र के द्वारा सायण-भाष्य सहित सम्पादित तथा कलकत्त्ता से 1862 में प्रकाशित,
  • सायण-भाष्य सहित, आनन्दाश्रम, पुणे से 1934 में प्रकाशित,
  • भट्टभास्कर-भाष्य सहित, महादेवशास्त्री द्वारा सम्पादित तथा मैसूर से प्रकाशित्। अन्तिम दोनों संस्करणों का पुन: मुद्रण हो चुका है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 3.10-12
  2. प्रपाठक 1, अनुवाकानुक्रमणी 6
  3. ब्राह्मणकार 2.3.6.4
  4. प्रपाठक 1
  5. तैत्तिरीय-ब्राह्मण 2.1.2.5-6
  6. तैत्तिरीय-ब्राह्मण 2.1.6
  7. तैत्तिरीय-ब्राह्मण 2.1.5.10
  8. तैत्तिरीय-ब्राह्मण 1.5.3.3
  9. तैत्तिरीय-ब्राह्मण 1.5.4.1
  10. तैत्तिरीय-ब्राह्मण 1.3.6.2
  11. तैत्तिरीय-ब्राह्मण 1.3.6.2
  12. तैत्तिरीय-ब्राह्मण 2.5.5.1
  13. तैत्तिरीय-ब्राह्मण 2.5.5.1
  14. तैत्तिरीय-ब्राह्मण 3.10.11.3
  15. तैत्तिरीय-ब्राह्मण 3.10.9
  16. तैत्तिरीय-ब्राह्मण 2.2.9.10
  17. तैत्तिरीय-ब्राह्मण 2.2.9.10
  18. तैत्तिरीय-ब्राह्मण 1.5.5.1
  19. तैत्तिरीय-ब्राह्मण 1.5.9.4
  20. तैत्तिरीय-ब्राह्मण 1.5.9.5
  21. तैत्तिरीय-ब्राह्मण 11.5.5.4
  22. तैत्तिरीय-ब्राह्मण 3.7.7.4
  23. तैत्तिरीय-ब्राह्मण 1.2.1
  24. तैत्तिरीय-ब्राह्मण 3.12.3.1
  25. तैत्तिरीय-ब्राह्मण 3.12.3.2
  26. तैत्तिरीय-ब्राह्मण 2.4.6.8
  27. तैत्तिरीय-ब्राह्मण 3.7.7.11
  28. तैत्तिरीय-ब्राह्मण 3.7.7.11
  29. तैत्तिरीय-ब्राह्मण 2.2.6.2
  30. तैत्तिरीय-ब्राह्मण 3.12.3.4

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