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जानकी मंगल में [[गोस्वामी तुलसीदास]] जी ने आद्याशक्ति भगवती श्री [[जानकी]] जी तथा पुरुषोत्तम भगवान [[श्रीराम]] के मंगलमय विवाहोत्सव का बहुत ही मधुर शब्दों में वर्णन किया है। [[जनकपुर]] में स्वयंवर की तैयारी से आरम्भ करके [[विश्वामित्र]] के [[अयोध्या]] जाकर [[श्रीराम]] - [[लक्ष्मण]] को [[यज्ञ]] - रक्षा के लिए अपने साथ ले आने, यज्ञ - रक्षा के अनन्तर धनुष - यज्ञ दिखाने के बहाने उन्हें जनकपुर ले जाने, रंग-भूमि में पधारकर श्रीराम के धनुष तोड़ने तथा [[सीता]] जी का उन्हें वरमाला पहनाने, लग्न - पत्रिका तथा तिलक की सामग्री लेकर [[जनक]] पुरोधा महर्षि शतानन्द जी के अयोध्या जाने, महाराज के [[दशरथ]] के बारात लेकर जनकपुर जाने, विवाह - संस्कार सम्पन्न होने के अनन्तर बारात के विदा होने, मार्ग में [[परशुराम]] जी से भेंट होने तथा अन्त में अयोध्या पहुँचने पर वहाँ आनन्द मनाये जाने आदि प्रसंगों का संक्षेप में बड़ा ही सरस एवं सजीव वर्णन किया गया है; जो प्राय: [[रामचरितमानस]] से मिलता-जुलता ही है। कहीं-कहीं तो रामचरितमानस के शब्द ही ज्यों-के-त्यों दुहराये गये हैं।  
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==श्रीजानकी मंगल==
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;मंगलाचरण
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<poem>गुरु गनपति गिरिजापति गौरि गिरापति।
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सारद सेष सुकबि श्रुति संत सरल मति।।1।।
सारद सेष सुकबि श्रुति संत सरल मति।।1।।
हाथ जोरि करि बिनय सबहि सिर नावौं।
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;स्वयंवर की तैयारी
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<poem>सुभ दिन रच्यौ स्वयंबर मंगलदायक।
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जानकी मंगल -तुलसीदास
जानकी मंगल
जानकी मंगल
लेखक तुलसीदास
मूल शीर्षक 'जानकी मंगल'
देश भारत
भाषा अवधी
शैली छन्द
विषय तुलसीदास ने आद्यशक्ति भगवती जानकी तथा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम के मंगलमय विवाहोत्सव का बहुत ही मधुर शब्दों में वर्णन 'जानकी मंगल' में किया है।
प्रकार खण्ड काव्य
विशेष हिन्दू धर्म का एक प्रमुख धार्मिक ग्रंथ है।

जानकी मंगल में गोस्वामी तुलसीदास जी ने आद्याशक्ति भगवती श्री जानकी जी तथा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम के मंगलमय विवाहोत्सव का बहुत ही मधुर शब्दों में वर्णन किया है। जनकपुर में स्वयंवर की तैयारी से आरम्भ करके विश्वामित्र के अयोध्या जाकर श्रीराम - लक्ष्मण को यज्ञ - रक्षा के लिए अपने साथ ले आने, यज्ञ - रक्षा के अनन्तर धनुष - यज्ञ दिखाने के बहाने उन्हें जनकपुर ले जाने, रंग-भूमि में पधारकर श्रीराम के धनुष तोड़ने तथा सीता जी का उन्हें वरमाला पहनाने, लग्न - पत्रिका तथा तिलक की सामग्री लेकर जनक पुरोधा महर्षि शतानन्द जी के अयोध्या जाने, महाराज के दशरथ के बारात लेकर जनकपुर जाने, विवाह - संस्कार सम्पन्न होने के अनन्तर बारात के विदा होने, मार्ग में परशुराम जी से भेंट होने तथा अन्त में अयोध्या पहुँचने पर वहाँ आनन्द मनाये जाने आदि प्रसंगों का संक्षेप में बड़ा ही सरस एवं सजीव वर्णन किया गया है; जो प्राय: रामचरितमानस से मिलता-जुलता ही है। कहीं-कहीं तो रामचरितमानस के शब्द ही ज्यों-के-त्यों दुहराये गये हैं।

श्रीजानकी मंगल

मंगलाचरण

गुरु गनपति गिरिजापति गौरि गिरापति।
सारद सेष सुकबि श्रुति संत सरल मति।।1।।
हाथ जोरि करि बिनय सबहि सिर नावौं।
सिय रघुबीर बिबाहु जथामति गावौं।।2।।[1]

स्वयंवर की तैयारी

सुभ दिन रच्यौ स्वयंबर मंगलदायक।
सुनत श्रवन हिय बसहिं सीय रघुनायक।।3।।
देस सुहावन पावन बेद बखानिय।
भूमि तिलक सम तिरहुति त्रिभुवन जानिय।।4।।[2]
तहँ बस नगर जनकपुर परम उजागर।
सीय लच्छि जहँ प्रगटी सब सुख सागर।।5।।[3]
जनक नाम तेहिं नगर बसै नरनायक।
सब गुन अवधि न दूसरे पटतर लायक।।6।।[4]
भयउ न होइहि है न जनक सम नरवइ।
सीय सुता भइ जासु सकल मंगलमइ।।7।।[5]
नृप लखि कुँअरि सयानि बोलि गुर परिजन।
करि मत रच्यौ स्वयंबर सिव धनु धरि पन।।8।।[6]
पनु धरेउ सिव धनु रचि स्वयंबर अति रुचिर रचना बनी।
जनु प्रगटि चतुरानन देखाई चतुरता सब आपनी।।
पुनि देस देस सँदेस पठयउ भूप सुनि सुख पावहीं।
सब साजि साजि समाज राजा जनक नगरहिं आवहीं।।1।।[7]
रूप सील बय बंस विरुद बल दल भले।
मनहुँ पुरंदर निकर उतरि अवनिहिं चले।।9।।[8]
दानव देव निसाचर किंनर अहिगन।
सुनि धरि-धरि नृप बेष चले प्रमुदित मन।।10।।[9]
एक चलहिं एक बीच एक पुर पैठहिं।
एक धरहिं धनु धाय नाइ सिरु बैठहिं।।11।।[10]
रंग भूमि पुर कौतुक एक निहारहिं।
ललकि सुभाहिं नयन मन फेरि न पावहिं।।12।।[11][12]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गुरु, गणपति, गणेश जी, शिव जी, पार्वती जी, वाणी के स्वामी बृहस्पति अथवा विष्णु भगवान, शारदा, द्वेष, सुकवि, वेद और सरलमति संत - सबको हाथ जोड़कर विनयपूर्वक सिर नवाता हूँ और अपनी बुद्धि के अनुसार श्री रामचन्द्र जी और जानकी जी के विवाहोत्सव का गान करता हूँ।।1-2।।
  2. पृथ्वी का तिलक स्वरूप और तीनों लोकों में विख्यात जो परम पवित्र शोभाशाली और वेद विदित तिरहुत देश है, वहाँ एक अच्छे दिन श्रीजानकी का मंगलप्रद स्वयंवर रचा गया, जिसका श्रवण करने से श्रीराम और सीता जी हृदय में बसते हैं।।3-4।।
  3. वहाँ (तिरहुत देश में) जनकपुर नामक एक प्रसिद्ध नगर बसा हुआ था, जिसमें सुखों की समुद्र लक्ष्मी स्वरूपा श्रीजानकीजी प्रकट हुई थीं।।5।।
  4. उस नगर में जनक नाम के एक राजा निवास करते थे, जो सारे गुणों की सीमा थे, और जिनके समान कोई दूसरा नहीं था।।6।।
  5. जनक के सामन नरपति न हुआ, न होगा, न है; जिनकी पुत्री सर्व मंगलमयी जानकी जी हुईं।।7।।
  6. राजा ने राजकुमारी को वयस्क होते देख अपने गुरु और परिवार के लोगों को बुलाकर सलाह की और शिव - धनुष को शर्त के रूप में रखकर स्वयंवर रचा। (अर्थात् यह शर्त रखकर स्वयंवर रचा कि जो शिव जी का धनुष चढ़ा देगा, वही कन्या से विवाह करेगा) ।।8।।
  7. राजा ने शिव-धनुष चढ़ाने की शर्त रखकर स्वयंवर रचा, जिसकी सजावट अत्यन्त सुन्दर थी, मानो ब्रह्मा ने अपना सम्पूर्ण कौशल प्रत्यक्ष करके दिखा दिया। फिर देश-देश में समाचार भेजा गया, जिसे सुनकर राजा लोग प्रसन्न हुए और वे सब के सब अपना साज सजाकर जनकपुर में आये।।1।।
  8. वे सुन्दरता, शील, आयु, कुल की बड़ाई, बल और सेना से सुसज्जित होकर चले, मानो इन्द्रों का यूथ ही पृथ्वी पर उतरकर जा रहा हो ।।9।।
  9. दैत्य, देवता, राक्षस किन्नर और नागगण भी स्वयंवर का समाचार सुन राजवेष धारण कर-करके प्रसन्नचित्त से चले।।10।।
  10. कोई चल रहे हैं, कोई मार्ग के बीच में हैं, कोई नगर में घुस रहे हैं और कोई दौड़कर धनुष को पकड़ते हैं और फिर सिर नीचा करके - लज्जित हो बैठ जाते हैं (क्योंकि उनसे धनुष टस-से-मस नहीं होता) ।।11।।
  11. कोई रंगभूमि और नगर की सजावट बड़े चाव से देखते हैं और बड़े भले जान पड़ते हैं, वे अपने मन और नयनों को वहाँ से फेर नहीं पाते।।12।।
  12. जानकी मंगल (हिंदी)। । अभिगमन तिथि: 12 जुलाई, 2011।

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