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*[[महावन]] जो कि [[मथुरा]] के समीप, [[यमुना]] के दूसरे तट पर स्थित अति प्राचीन स्थान है, इसे बालकृष्ण की क्रीड़ास्थली माना जाता है। यहाँ अनेक छोटे-छोटे मंदिर हैं, जो अधिक पुराने नहीं हैं। समस्त वनों से आयतन में बड़ा होने के कारण ही महावन को 'बृहद्वन' भी कहा गया है।
*[[महावन]] जो कि [[मथुरा]] के समीप, [[यमुना]] के दूसरे तट पर स्थित अति प्राचीन स्थान है, इसे बालकृष्ण की क्रीड़ास्थली माना जाता है। यहाँ अनेक छोटे-छोटे मंदिर हैं, जो अधिक पुराने नहीं हैं। समस्त वनों से आयतन में बड़ा होने के कारण ही महावन को 'बृहद्वन' भी कहा गया है।
*यहाँ [[नंदबाबा]] की गौशाला में [[कृष्ण]] और [[बलराम]] का नामकरण हुआ था। नंदबाबा के कहने से [[गर्गाचार्य|गर्गाचार्य जी]] ने इस निर्जन गोशाला में कृष्ण और बलराम के [[नामकरण संस्कार]] सम्पन्न किये थे।
*यहाँ [[नंदबाबा]] की गौशाला में [[कृष्ण]] और [[बलराम]] का नामकरण हुआ था। नंदबाबा के कहने से गर्गाचार्य जी ने इस निर्जन गोशाला में कृष्ण और बलराम के [[नामकरण संस्कार]] सम्पन्न किये थे।
*नामकरण के समय बलराम और कृष्ण के अद्भुत पराक्रम, दैत्यदलन एवं भागवतोचित लीलाओं के संबन्ध में भविष्यवाणी भी गर्गाचार्य ने की थीं। [[कंस]] के अत्याचारों के भय से नंदबाबा ने बिना किसी उत्सव के नामकरण संस्कार कराया था।
*नामकरण के समय बलराम और कृष्ण के अद्भुत पराक्रम, दैत्यदलन एवं भागवतोचित लीलाओं के संबन्ध में भविष्यवाणी भी गर्गाचार्य ने की थीं। [[कंस]] के अत्याचारों के भय से नंदबाबा ने बिना किसी उत्सव के नामकरण संस्कार कराया था।



08:21, 20 नवम्बर 2016 के समय का अवतरण

नंद गौशाला भगवान श्रीकृष्ण की बाललीलाओं से जुड़ा प्रसिद्ध स्थल है। यह स्थल मथुरा के निकट महावन में स्थित है।[1]

  • महावन जो कि मथुरा के समीप, यमुना के दूसरे तट पर स्थित अति प्राचीन स्थान है, इसे बालकृष्ण की क्रीड़ास्थली माना जाता है। यहाँ अनेक छोटे-छोटे मंदिर हैं, जो अधिक पुराने नहीं हैं। समस्त वनों से आयतन में बड़ा होने के कारण ही महावन को 'बृहद्वन' भी कहा गया है।
  • यहाँ नंदबाबा की गौशाला में कृष्ण और बलराम का नामकरण हुआ था। नंदबाबा के कहने से गर्गाचार्य जी ने इस निर्जन गोशाला में कृष्ण और बलराम के नामकरण संस्कार सम्पन्न किये थे।
  • नामकरण के समय बलराम और कृष्ण के अद्भुत पराक्रम, दैत्यदलन एवं भागवतोचित लीलाओं के संबन्ध में भविष्यवाणी भी गर्गाचार्य ने की थीं। कंस के अत्याचारों के भय से नंदबाबा ने बिना किसी उत्सव के नामकरण संस्कार कराया था।


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