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कवि के अनुसार, मेरी पहली [[कविता]] सन [[1924]] ई. में [[जबलपुर]] से प्रकाशित होने वाले पाक्षिक पत्र ‘छात्र सहोदर’ में छपी थी, जिसके सम्पादक श्री नरसिंह दास थे। जब ‘छात्र सहोदर’ मासिक था, उसका सम्पादन श्री रामेश्वर शुक्ल अंचल के [[पिता]] पंडित मातादीन शुक्ल किया करते थे। उसके बाद मेरी बहुत-सी कविताएँ कलकत्ते (वर्तमान [[कोलकाता]]) से निकलने वाले साप्ताहिक पत्र ‘सेनापति’ और ‘विश्वमित्र’ में तथा मासिक पत्र ‘नारायण’ और ‘सरोज’ में छपीं। [[पटना]] से निकलने वाले पत्र ‘देश’ और ‘महावीर’ में भी मेरी आरम्भिक रचनाएँ छपी थीं। [[गुजरात]] में बारदोली का सत्याग्रह संग्राम [[सरदार वल्लभ भाई पटेल]] ने चलाया था। जब इस संग्राम में जीत किसानों की हुई, मैंने उससे प्रेरणा लेकर दस-बारह गीत लिखे थे, जिनका संग्रह ‘बारदोली-विजय’ के नाम से सन [[1928]] ई. में निकला था। खेद की बात है कि इस पुस्तिका की एक भी प्रति मेरे पास नहीं है।<ref>{{cite web |url=http://pustak.org/home.php?bookid=6848|title=रश्मिमाला|accessmonthday=13 अक्टूबर|accessyear= 2013|last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=हिन्दी}}</ref>
कवि के अनुसार, मेरी पहली [[कविता]] सन [[1924]] ई. में [[जबलपुर]] से प्रकाशित होने वाले पाक्षिक पत्र ‘छात्र सहोदर’ में छपी थी, जिसके सम्पादक श्री नरसिंह दास थे। जब ‘छात्र सहोदर’ मासिक था, उसका सम्पादन श्री रामेश्वर शुक्ल अंचल के [[पिता]] पंडित मातादीन शुक्ल किया करते थे। उसके बाद मेरी बहुत-सी कविताएँ कलकत्ते (वर्तमान [[कोलकाता]]) से निकलने वाले साप्ताहिक पत्र ‘सेनापति’ और ‘विश्वमित्र’ में तथा मासिक पत्र ‘नारायण’ और ‘सरोज’ में छपीं। [[पटना]] से निकलने वाले पत्र ‘देश’ और ‘महावीर’ में भी मेरी आरम्भिक रचनाएँ छपी थीं। [[गुजरात]] में बारदोली का सत्याग्रह संग्राम [[सरदार वल्लभ भाई पटेल]] ने चलाया था। जब इस संग्राम में जीत किसानों की हुई, मैंने उससे प्रेरणा लेकर दस-बारह गीत लिखे थे, जिनका संग्रह ‘बारदोली-विजय’ के नाम से सन [[1928]] ई. में निकला था। खेद की बात है कि इस पुस्तिका की एक भी प्रति मेरे पास नहीं है।<ref>{{cite web |url=http://pustak.org/home.php?bookid=6848|title=रश्मिमाला|accessmonthday=13 अक्टूबर|accessyear= 2013|last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=हिन्दी}}</ref>


तब मैंने ‘जयद्रथ-वध’ के अनुकरण पर एक छोटा-सा खण्डकाव्य सन [[1929]] में लिखा, जो ‘प्रण-भंग’ नाम से उसी वर्ष प्रकाशित भी हो गया। संयोगवश इस पुस्तक पर [[आचार्य रामचन्द्र शुक्ल]] की दृष्टि पड़ी और उन्होंने उसका उल्लेख अपने 'हिन्दी साहित्य के इतिहास' में कर दिया। शायद इसी कारण मेरे पाठक इस पुस्तक के बारे में जिज्ञासु हो उठे और उन्होंने बार-बार मुझे पूछा है कि यह पुस्तक कहाँ मिलेगी। इस जिज्ञासा का आदर करने के लिए ही यह उचित जान पड़ा कि ‘प्रण-भंग’ का नया संस्करण निकाल दिया जाये। ‘प्रण-भंग’ के प्रकाशन की बात निश्चित होते ही मन में यह विचार आया कि मेरी जो अन्य पचास-साठ कविताएँ अप्रकाशित अथवा असंगृहीत पड़ी हुई हैं, उनका भी उद्धार ‘प्रण-भंग’ के साथ ही क्यों नहीं कर दिया जाये। ‘प्रण-भंग’ के प्रथम प्रकाशन के बाद मैंने अपनी कविताओं का एक संग्रह ‘रश्मिमाला’ नाम से निकालना चाहा था; किन्तु अच्छा हुआ कि उसके प्रकाशन में बाधा पड़ गयी। परिणाम यह हुआ कि सन [[1935]] में जब ‘रेणुका’ प्रकाशित होने लगी, ‘रश्मिमाला’ की केवल तीन या चार कविताएँ ही उसमें जा सकीं। जो कविताएँ उस समय रोक ली गयी थीं, वे अब वर्तमान संग्रह में जा रही हैं, जिन्हें ‘रश्मिमाला’ की पांडुलिपि देखना या उस पर काम करना हो, वे उसे 'भारत कला भवन', [[काशी]] के संग्रहालय में देख सकते हैं।  
तब मैंने ‘जयद्रथ-वध’ के अनुकरण पर एक छोटा-सा खण्डकाव्य सन [[1929]] में लिखा, जो ‘प्रण-भंग’ नाम से उसी वर्ष प्रकाशित भी हो गया। संयोगवश इस पुस्तक पर [[आचार्य रामचन्द्र शुक्ल]] की दृष्टि पड़ी और उन्होंने उसका उल्लेख अपने 'हिन्दी साहित्य के इतिहास' में कर दिया। शायद इसी कारण मेरे पाठक इस पुस्तक के बारे में जिज्ञासु हो उठे और उन्होंने बार-बार मुझे पूछा है कि यह पुस्तक कहाँ मिलेगी। इस जिज्ञासा का आदर करने के लिए ही यह उचित जान पड़ा कि ‘प्रण-भंग’ का नया संस्करण निकाल दिया जाये। ‘प्रण-भंग’ के प्रकाशन की बात निश्चित होते ही मन में यह विचार आया कि मेरी जो अन्य पचास-साठ कविताएँ अप्रकाशित अथवा असंग्रहीत पड़ी हुई हैं, उनका भी उद्धार ‘प्रण-भंग’ के साथ ही क्यों नहीं कर दिया जाये। ‘प्रण-भंग’ के प्रथम प्रकाशन के बाद मैंने अपनी कविताओं का एक संग्रह ‘रश्मिमाला’ नाम से निकालना चाहा था; किन्तु अच्छा हुआ कि उसके प्रकाशन में बाधा पड़ गयी। परिणाम यह हुआ कि सन [[1935]] में जब ‘रेणुका’ प्रकाशित होने लगी, ‘रश्मिमाला’ की केवल तीन या चार कविताएँ ही उसमें जा सकीं। जो कविताएँ उस समय रोक ली गयी थीं, वे अब वर्तमान संग्रह में जा रही हैं, जिन्हें ‘रश्मिमाला’ की पांडुलिपि देखना या उस पर काम करना हो, वे उसे 'भारत कला भवन', [[काशी]] के संग्रहालय में देख सकते हैं।  


इस पुस्तक के प्रकाशन का बहाना तो प्रारम्भिक रचनाएँ ही बनीं, किन्तु प्रवेश इसमें अनेक ऐसी रचनाओं का भी हो गया, जिनकी रचना मैंने इधर हाल में की है। पुस्तक के अन्त में ‘क्षणिकाएँ’ नाम से जो अट्ठाईस कविताएँ संगृहीत हैं, उनमें ज्यादा तो ऐसी ही हैं, जिनका रचनाकाल [[1969]]-[[1970]] ई. है। अत: ‘रश्मिलोक’ के समान यह संग्रह रत्नों को काल के करतल पर रखता है। वराटिकाओं को वह रास्ते में ही छोड़ देता है। मैंने इस बिखरी वराटिकाओं की भी एक मन्जूषा बना दी, यह धृष्टता हो सकती है; किन्तु साहित्य के इतिहास की इससे थोड़ी सेवा हो जाना भी संभव है।
इस पुस्तक के प्रकाशन का बहाना तो प्रारम्भिक रचनाएँ ही बनीं, किन्तु प्रवेश इसमें अनेक ऐसी रचनाओं का भी हो गया, जिनकी रचना मैंने इधर हाल में की है। पुस्तक के अन्त में ‘क्षणिकाएँ’ नाम से जो अट्ठाईस कविताएँ संग्रहीत हैं, उनमें ज्यादा तो ऐसी ही हैं, जिनका रचनाकाल [[1969]]-[[1970]] ई. है। अत: ‘रश्मिलोक’ के समान यह संग्रह रत्नों को काल के करतल पर रखता है। वराटिकाओं को वह रास्ते में ही छोड़ देता है। मैंने इस बिखरी वराटिकाओं की भी एक मन्जूषा बना दी, यह धृष्टता हो सकती है; किन्तु साहित्य के इतिहास की इससे थोड़ी सेवा हो जाना भी संभव है।





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रश्मिमाला -रामधारी सिंह दिनकर
'रश्मिमाला' रचना का आवरण पृष्ठ
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कवि रामधारी सिंह दिनकर
मूल शीर्षक 'रश्मिमाला'
प्रकाशक लोकभारती प्रकाशन
प्रकाशन तिथि 1 जनवरी, 2008
ISBN 978-81-8031-337
देश भारत
भाषा हिंदी
विधा कविता संग्रह
मुखपृष्ठ रचना सजिल्द
टिप्पणी 'रश्मिमाला' में 'महाभारत' के युद्ध में श्रीकृष्ण के प्रण-भंग के चित्रण से लेकर अपने राष्ट्र, समाज तथा मानव-कल्याण-कामना की मंगल-भावना के दर्शन होते हैं।

रश्मिमाला राष्ट्रकवि रामधारी सिंह 'दिनकर' की श्रेष्ठ कविताओं, क्षणिकाओं और सूक्तियों का संकलन है। इस पुस्तक में 'महाभारत' के युद्ध में भगवान श्रीकृष्ण के प्रण-भंग के चित्रण से लेकर अपने राष्ट्र, समाज तथा मानव-कल्याण-कामना की मंगल-भावना के दर्शन होते हैं।

काव्य साहित्य की अमूल्य निधि

रामधारी सिंह 'दिनकर' की श्रेष्ठ कविताओं, क्षणिकाओं और सूक्तियों से सजी-सँवरी, सरल, सहज भाषा-शैली में यह कृति हिन्दी के काव्य साहित्य की अमूल्य निधि है। राष्ट्रकवि दिनकर जी का प्रखर चिन्तन उनकी विचारोत्तेजक, मार्गदर्शक सूक्तियों में मिलता है तथा क्षणिकाओं के रूप में महाकवि की दार्शनिकता की झाँकी भी इस पुस्तक में मिलती है, जैसे-

जो बहुत बोलता हो,
उसके साथ कम बोलो।
जो हमेशा चुप रहे।
उसके सामने हृदय मत खोलो।

भूमिका

कवि के अनुसार, मेरी पहली कविता सन 1924 ई. में जबलपुर से प्रकाशित होने वाले पाक्षिक पत्र ‘छात्र सहोदर’ में छपी थी, जिसके सम्पादक श्री नरसिंह दास थे। जब ‘छात्र सहोदर’ मासिक था, उसका सम्पादन श्री रामेश्वर शुक्ल अंचल के पिता पंडित मातादीन शुक्ल किया करते थे। उसके बाद मेरी बहुत-सी कविताएँ कलकत्ते (वर्तमान कोलकाता) से निकलने वाले साप्ताहिक पत्र ‘सेनापति’ और ‘विश्वमित्र’ में तथा मासिक पत्र ‘नारायण’ और ‘सरोज’ में छपीं। पटना से निकलने वाले पत्र ‘देश’ और ‘महावीर’ में भी मेरी आरम्भिक रचनाएँ छपी थीं। गुजरात में बारदोली का सत्याग्रह संग्राम सरदार वल्लभ भाई पटेल ने चलाया था। जब इस संग्राम में जीत किसानों की हुई, मैंने उससे प्रेरणा लेकर दस-बारह गीत लिखे थे, जिनका संग्रह ‘बारदोली-विजय’ के नाम से सन 1928 ई. में निकला था। खेद की बात है कि इस पुस्तिका की एक भी प्रति मेरे पास नहीं है।[1]

तब मैंने ‘जयद्रथ-वध’ के अनुकरण पर एक छोटा-सा खण्डकाव्य सन 1929 में लिखा, जो ‘प्रण-भंग’ नाम से उसी वर्ष प्रकाशित भी हो गया। संयोगवश इस पुस्तक पर आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की दृष्टि पड़ी और उन्होंने उसका उल्लेख अपने 'हिन्दी साहित्य के इतिहास' में कर दिया। शायद इसी कारण मेरे पाठक इस पुस्तक के बारे में जिज्ञासु हो उठे और उन्होंने बार-बार मुझे पूछा है कि यह पुस्तक कहाँ मिलेगी। इस जिज्ञासा का आदर करने के लिए ही यह उचित जान पड़ा कि ‘प्रण-भंग’ का नया संस्करण निकाल दिया जाये। ‘प्रण-भंग’ के प्रकाशन की बात निश्चित होते ही मन में यह विचार आया कि मेरी जो अन्य पचास-साठ कविताएँ अप्रकाशित अथवा असंग्रहीत पड़ी हुई हैं, उनका भी उद्धार ‘प्रण-भंग’ के साथ ही क्यों नहीं कर दिया जाये। ‘प्रण-भंग’ के प्रथम प्रकाशन के बाद मैंने अपनी कविताओं का एक संग्रह ‘रश्मिमाला’ नाम से निकालना चाहा था; किन्तु अच्छा हुआ कि उसके प्रकाशन में बाधा पड़ गयी। परिणाम यह हुआ कि सन 1935 में जब ‘रेणुका’ प्रकाशित होने लगी, ‘रश्मिमाला’ की केवल तीन या चार कविताएँ ही उसमें जा सकीं। जो कविताएँ उस समय रोक ली गयी थीं, वे अब वर्तमान संग्रह में जा रही हैं, जिन्हें ‘रश्मिमाला’ की पांडुलिपि देखना या उस पर काम करना हो, वे उसे 'भारत कला भवन', काशी के संग्रहालय में देख सकते हैं।

इस पुस्तक के प्रकाशन का बहाना तो प्रारम्भिक रचनाएँ ही बनीं, किन्तु प्रवेश इसमें अनेक ऐसी रचनाओं का भी हो गया, जिनकी रचना मैंने इधर हाल में की है। पुस्तक के अन्त में ‘क्षणिकाएँ’ नाम से जो अट्ठाईस कविताएँ संग्रहीत हैं, उनमें ज्यादा तो ऐसी ही हैं, जिनका रचनाकाल 1969-1970 ई. है। अत: ‘रश्मिलोक’ के समान यह संग्रह रत्नों को काल के करतल पर रखता है। वराटिकाओं को वह रास्ते में ही छोड़ देता है। मैंने इस बिखरी वराटिकाओं की भी एक मन्जूषा बना दी, यह धृष्टता हो सकती है; किन्तु साहित्य के इतिहास की इससे थोड़ी सेवा हो जाना भी संभव है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. रश्मिमाला (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 13 अक्टूबर, 2013।

बाहरी कड़ियाँ

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